भगवान तो सब के हैं, अभक्त के भी हैं। फिर लोग क्यों कहते हैं “भक्त के भगवान’?
बात यह है कि लोग यह बात महसूस नहीं करते हैं कि भगवान उनके हैं। यह बोध केवल भक्त में होता है। इसीलिए ये भक्त के भगवान कहे जाते हैं। भक्त भगवान को इस अनुभूति से बॉंधे रहते हैं। उपनिषद में कहा गया है-
“”नायनात्मा प्रवचनेन लभ्यः न मेघया न बहुना श्रुतेन।।”
परमपुरुष को अध्ययन के द्वारा, अपार पाण्डित्य के द्वारा न कभी किसी ने पाया है, न पा रहे हैं और न पाएँगे। मानव जीवन सीमित है। अतः अध्ययन के द्वारा भगवत्-प्राप्ति की व्यर्थ चेष्टा मत करो। लम्बे-चौड़े भाषण देने से कोई परमपुरुष को नहीं पाते हैं, लेकिन एक अनपढ़ किसान पा जाता है। बीस विषयों में एम.ए. करने पर भी परमात्मा नहीं मिलेंगे। साधना मार्ग में निम्नतम योग्यता है, केवल एक निर्मल हृदय और कुछ नहीं।
बुद्घिमान समझते हैं कि उन लोगों ने परमात्मा को जैसे समझा है, जितना इनके बारे में सोचा है, उतना बुद्घिहीन कैसे कर पायेंगे! और लोग मेरे बराबर श्रेष्ठ नहीं हैं, मुझे ही भगवत् प्राप्ति होगी। उपनिषद् का कहना है कि मेधा से भगवत् प्राप्ति नहीं होगी। मनुष्य के छोटे से दिमाग में कितनी बुद्घि रहती है और भगवान कितने विराट हैं। और फिर यह बुद्घि भी तो सदा नहीं रहती।
कुछ लोग सोचते हैं कि मैंने बहुत सुना है, शास्त्रों की चर्चा, भक्तों और विद्वानों के भाषण। मुझे भगवत् प्राप्ति अवश्य होगी। परन्तु वह भी ठीक नहीं है। सबसे अधिक तो सुनता है माइक, तो क्या उसे भगवत्-प्राप्ति हो जाएगी?
बात यह है कि जिन पर उनकी कृपा होती है, वे ही उनको पा सकते हैं। अन्य लोग “हरिपरिमण्डल’ के सदस्य नहीं बन सकते। जिन पर उनकी कृपा हो जाती है, वे अनुभव करते हैं कि परमपुरुष मेरे हैं।
– श्री आनन्दमूर्ति
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