सम्पूर्ण मानव समाज में विविध धर्मों के अनुरूप विवाह एक धार्मिक संस्कार है। स्त्री-पुरुष के युगलबंदी सांस्कारिक जीवन को प्रायः दाम्पत्य-जीवन कहा जाता है। हमारे हिन्दू समाज में स्त्रियों को अखण्ड सौभाग्यवती बनने और सदा बने रहने के लिए नाना प्रकार के व्रत-पूजन, धर्माचरण व धार्मिक अनुष्ठान प्रचलित हैं। प्रायः स्त्रियां अपने नारी धर्म का पालन करती हैं। अखण्ड सौभाग्यवती बनने व बने रहने के लिए समाज में प्रचलित व्रतों में प्रमुख हैं – वट सावित्री व्रत (बरगद पूजा या बरगदाही अमावस पूजन), भद्र पक्ष की कजरी तीज (हरतालिका तीज) और कार्तिक मास के कृष्ण-पक्ष की गणेश चतुर्थी पर करवा चौथ का व्रत आदि।
उत्तर भारत और पश्र्चिमी भारत में करवाचौथ एवं पूर्वांचल में कजरी तीज के व्रत का बड़ा ही महत्व है। देश के मध्य मैदानी भाग में वट सावित्री व्रत का व्यापक प्रचलन है। हिन्दू धर्म में ऐसी मान्यता है कि स्त्री-पुरुष के वैवाहिक बंधन का संबंध जन्म-जन्मांतर से है। प्रायः धर्म में सात जन्मों तक के अमिट संबंधों की अटूट परिकल्पना की गयी है। यह पृथक बात है कि पौराणिक कथाओं के अनुसार माता पार्वती ने भगवान शंकर को पति रूप में पाने के लिए सात हजार वर्षों तक व्यवस्था की। उनका यह संकल्प था कि “”वरहूं संभु न तो रहूं कुंवारी।” परिणाम जगत विदित है कि हर जन्म में भगवान शंकर उन्हें पति रूप में प्राप्त हुए।
ठीक इसी प्रकार अखण्ड सौभाग्यवती बनने और पति के दीर्घायु होने की कामना से ओत-प्रोत अधिकांशतः विवाहित स्त्रियां करवा – चौथ का व्रत रखती हैं। कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाये जाने वाले इस व्रत में स्त्रियां अपने सुहाग की अमरता और जन्म-जन्मांतर तक वर्तमान पति को ही पाने की महत्वाकांक्षा को फलीभूत करने के निमित्त करवा चौथ का व्रत-पूजन करती हैं।
इस संदर्भ में प्रचलित कथाएं स्त्री-पुरुष दोनों वर्गों के लिए अनुकरणातीत हैं। एक कथा द्वापर युग की है, जिसमें धर्मराज युधिष्ठिर द्वारा युद्घ में विजय पाने के लिए पूछे गये प्रश्र्न्नों के उत्तर में श्रीकृष्ण ने उन्हें करवा चौथ का व्रत धारण करने का उपाय बताया। तत्पश्र्चात् इसी व्रत को अर्जुन और द्रौपदी ने मनोवांछित फल पाने के लिए किया और उन्हें अपने लक्ष्य की प्राप्ति हुई।
इसी संदर्भ में एक अन्य कथा बहुप्रचलित है। कहा जाता है कि एक परिवार के कुछ भाइयों ने अपनी लाडली बहन को विश्र्वास में लेकर छल-कपट द्वारा खुले मैदान में दीपक जलाकर धुंधले प्रकाश को छलनी के माध्यम से दिखाया, जिससे उगते चन्द्रमा के आरंभिक अस्तित्व की पुष्टि होने लगी। परिणामस्वरूप वास्तविक चन्द्रमा निकलने से पूर्व ही उस स्त्री ने अपने भाइयों की इस छद्म चाल को समझे बिना धुंधले प्रकाश को ही अर्घ्य देकर अपना व्रत तोड़ दिया और अन्न व जल ग्रहण कर लिया। फलस्वरूप विघ्नविनाशक श्रीगणेशजी कुपित हुए और उन्होंने उस स्त्री को शापित कर दिया। इस भूल के कारण वह स्त्री वर्ष भर विषम परिस्थितियों से जूझती रही। पति अस्वस्थ होकर मरणासन्न हो गया, लेकिन दूसरे वर्ष पुनः करवा चौथ का व्रत रखकर विधिवत् पूजा-अर्चना करने से श्रीगणेश प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने आशीर्वाद से उसे धन-धान्य से सम्पन्न कर दिया, जिससे उसका पति पुनः स्वस्थ, तन्दुरुस्त व दीर्घायु हो गया।
प्रश्र्न्न उठता है कि अखण्ड सौभाग्यवती बने रहने और पति की दीर्घायु होने की कामनापूर्ति के लिए सारे धर्म-कर्म, जप-तप, व्रत-अनुष्ठान आदि स्त्रियां ही क्यों करें? क्या स्त्रियों की दीर्घायु की कामनापूर्ति के लिए पुरुषों का भी दायित्व नहीं बनता? जब यह कहा – सुना व समझा और समझाया जाता है कि स्त्री-पुरुष दाम्पत्य जीवन रूपी रथ के दो पहिये हैं तो रथ का एक पहिया अपने दूसरे पहिये के लिए यह कामना करे कि वह कभी न टूटे और दूसरा पहिया अपने पहले पहिये के अस्तित्व के प्रति कर्त्तव्य महसूस न करे? स्त्री-पुरुष के युगल जीवन के प्रति यह कैसा न्याय है? इस विषय पर गंभीरता से विचार-विनिमय अनिवार्य है।
अपवादस्वरूप यह कटु-सत्य और आकट्य मनोवृत्ति है कि पुरुष प्रधान समाज अनन्त काल से स्त्रैणगामी रहा है। यह अलग बात है कि स्त्री धरती के रूप में वीरभोग्या व वीर्यवान योग्या है। अतएव पति को भी एक पत्नी व्रतधारी बनाने के लिए संकल्पित जीवन जीना चाहिए। जो स्त्री आपके (पुरुष) लिए व्रत, धर्म आदि का पालन करती है, उस स्त्री के लिए सद्भाव के साथ पुरुषों को भी व्रत व अनुष्ठान आदि करना चाहिए।
इसीलिए द्वापर में श्रीकृष्ण ने करवा चौथ का महात्म्य बताते हुए स्त्री-पुरुष दोनों को करवा-चौथ का व्रत धारण करने का अनिवार्य अनुष्ठान बताया। युद्घ जीतने के लिए धर्मराज युधिष्ठिर को करवा-चौथ व्रत धारण की सलाह दी, तो दूसरी ओर मनोवांछित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अर्जुन और द्रौपदी को भी करवा-चौथ का धारण करने का निर्देश दिया।
कलिकाल में भले ही स्त्रियों के सुहाग को अमर करने की कल्पना को साकार करता हुआ यह व्रत हो, लेकिन सच तो यह है कि विवेक को जीवन में सर्वोपरि मानकर अभिलक्षित लक्ष्य के प्रति कर्म-काण्ड करने का यह अनुपम उपाय है, जो स्त्री-पुरुष दोनों के लिए अनुमन्य है, उपयोगी है और जन्म – जन्मान्तर के संग-साथ की अवधारणा को पुष्टित करने वाला यह करवा-चौथ का अनिवार्य धार्मिक कार्य है।
– कीर्ति
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