गुरु पूर्णिमा

guru-gyanभारतीय परम्परा में गुरु पूर्णिमा का बड़ा महत्व है। गुरु का अर्थ है- जो ज्ञान का मार्ग दिखाये और उस पर चलकर व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार कर सके। पूर्णिमा का अर्थ है पूर्णता, समूची सृष्टि की, संचालक शक्ति की अर्थात् प्राकृतिक नियमों की पूर्णता में जागृति। इसका अर्थ यह हुआ कि गुरुपूर्णिमा मनाने का, उसमें सम्मिलित होने का अर्थ है – प्रकृति की समग्रता को अपनी चेतना में जागृत कर सर्वसमर्थता की प्राप्ति।

आधुनिक-विज्ञान भी कहता है कि अव्यक्त शून्य में कुछ सजीवता है। इस शून्य सत्ता से ही सारे विश्र्व ब्रह्माण्ड का उदय हुआ है और इसी में इसके संचालन का रहस्य है। व्यक्ति की शान्त चेतना में सारे विश्र्व ब्रह्माण्ड की इसी ज्ञान-शक्ति का, क्रिया-शक्ति के पूर्ण प्रस्फुटन का पर्व है – गुरु पूर्णिमा। अर्थात् गुरु पूर्णिमा-पूर्ण ज्ञान का प्रकाशक है।

यह स्पष्ट होने के बाद प्रश्र्न्न उठता है कि सम्पूर्ण ज्ञान सत्ता की वाहक इन प्राकृतिक शक्तियों का, नियमों का, सिद्घान्तों का व्यक्ति की चेतना में जागरण कैसे हो? इसी के लिए गुरु की आवश्यकता पड़ती है। गुरु ही इस पूर्ण ज्ञान से साक्षात्कार के माध्यम बता सकता है, इसलिए यह गुरु के पूजन का, गुरु के सम्मान का दिन है।

अपने शास्त्रों में गुरु को श्रोत्रिय कहा गया है, ब्रह्मनिष्ठ कहा गया है। “तद् विज्ञानार्थं सद्गुरुमेवाभिगच्छेः सनित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठं’ अर्थात् उस परम तत्व को जानने के लिए, जिसके जानने से सब कुछ जाना जाता है, ऐसे गुरु से शिष्य शिक्षा लें। “श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठं’ चेतना वाले गुरु की चेतना पूर्ण विस्तारित होगी। इसलिए शिष्य के प्रश्र्न्नों का, समस्याओं का, शंकाओं का समाधान भी पूर्णता में होगा।

भारत के शुद्घ, सम्पूर्ण ज्ञान रूप वेद का वैज्ञानिक रूप समस्त विश्र्व में प्रतिष्ठित है। इस ज्ञान को अपने भीतर जगाने के लिए ज्यादा इधर-उधर भटकने की जरूरत नहीं है, न ही भौतिक रूप में किताबों में ज्ञान तलाशने की जरूरत है। “एकहि साधे सब सधे’ से सब हो जाता है। अपनी चेतना को जागृत कर लो, सब कार्य स्वतः ही सिद्घ हो जायेंगे। अपने भीतर समस्त सृष्टि का सुचारू रूप में संचालन करने वाले प्राकृतिक नियमों की पूर्ण शक्ति अपने भीतर जगाने के वैदिक सिद्घान्तों को अपना लो, तो व्यक्ति में सर्वज्ञानी होने की क्षमता आ जाती है। इस शक्ति के बल पर उसमें सर्वसमर्थता आती है। इस शक्ति को जगाने की युक्ति गुरु ही बताता है। इसीलिए अपने यहॉं गुरु-शिष्य परम्परा में कहा गया है।

न गुरोधिकं तत्वम् न गुरोरधिकं तपः

न गुरोरधिकं ज्ञानम् तस्मै श्रीगृरवे नमः

भारतीय संस्कृत भाषा वेद-वाणी है, जिसमें लिखने की, उच्चारित होने की और अर्थ प्रदान करने की प्राकृतिक समता और क्षमता है। इस भाषा में शिक्षित और दैनंदिन व्यवहार में इसके प्रयुक्त होने से प्रत्येक क्षेत्र में सफलता मिलती है, क्योंकि उसमें वैज्ञानिकता है, सम्पूर्णता है।

ब्राह्मी सत्ता की अनुभूति के वाहक ऐसे पर्वों की सार्थकता तभी है, जब हम ज्ञान धारा की उसी परम्परा के तहत अपनायें, जो हमें हमारी वेद परम्परा में हमारे गुरुओं, हमारे पूर्वजों से मिली है।

– रणजीत सिंह

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