सारा घर मीठी-मस्ती भरी गहमागहमी में डूबा था। चप्पा-चप्पा रोशनियों से चमक रहा था और जर्रा-जर्रा देसी-विदेशी इत्र-परफ्यूम और फूलों की महक से महक रहा था। इस भीनी महक में एक और खास महक भी शामिल थी और वह थी घुली मेहंदी की महक, जिसे शुभा बड़े यत्न से तैयार कर रही थी। मलमल के कपड़े से छनी मेहंदी में कैरोसिन के तेल की चार-पॉंच बूंदें डालकर घोलने के बाद उसमें एक बताशा दबा दिया गया। यह मेहंदी भी निराली है और क्यों न होगी! यह खास मेहंदी के घर राजस्थान से मंगवाई है, जो शुभा का मायका-प्रदेश है। इससे भी बढ़कर यह शुभा की इकलौती भावी पुत्र-वधू विभा के हाथों में रचने जा रही है। शुभा चना चूर गरम की थैली की तरह कोन बनाने की तैयारी करने लगी कि रिश्ते की देवरानी मीना ने आकर पूछा, “”भाभी, वो वंदन का सेहरा और रंगी हुई पगड़ियॉं आ गई हैं। कहिए, कहॉं रखवानी हैं?”
“”ठहरो, मैं खुद ही रखवाती हूँ,” कहकर शुभा उठी तो उसकी आँखों के सामने अँधेरा-सा छा गया और वह सिर थाम कर वहीं बैठ गई। दुपट्टे पर गोटा-किनारी टांकती शुभा की सास ने देखा तो फौरन दुपट्टा एक ओर धर कर शुभा के पास चली आई और स्नेह से उसके सिर को सहलाते हुए बोली, “”अब ऊपर अपने कमरे में जाकर थोड़ा-सा आराम कर लो बेटा, नहीं तो बीमार हो जाओगी और बड़ी मुश्किल हो जाएगी।”
मेहंदी से सने हाथ धुला कर मीना उसे कमरे में ले गई। ज्यों ही पलकें मूंद कर शुभा लेटी, तो अपने बचपन में पहुँच गई। मेहंदी वाले देश के सबसे बड़े शहर जयपुर में एक पंजाबी परिवार में जन्म हुआ था उसका। ज्यादा क्या कहना, घर ही मेहंदी की बाढ़ के घेरे में स्थित था उसका और सिर्फ उसका घर ही क्यों, तुलसी के बिरवों की तरह लगभग हर घर में मेहंदी के बूटे या हैज थी। मई महीने में जब मेहंदी के फूल खिलते तो उदार ब्यार उनकी खुशबू उन घरों में भी बॉंट आती, जहॉं ये फूल खिलना भूल जाते थे। होश संभालते ही मेहंदी का रंग और महक भाने लगी थी शुभा को। मेहंदी की नयी नाजुक, नरम-नरम पत्तियों को चुन-चुनकर तोड़ती थी वह। अपने जैसी ही शौकीन सखी-सहेलियों की नन्हीं सेना सहयोगी हाथों की तरह साथ होती थी, फिर मां के सिल-बट्टे पर रगड़-रगड़ कर खूब महीन पिसती।
खूब महीन पिसी मेहंदी का घोल बनाकर उसे बारीक तिनके से आपस में एक-दूसरे की नन्हीं हथेलियों पर शुभा और उसकी सहेलियॉं चित्रकारी करतीं। कभी-कभी अपनी-अपनी मॉंओं के हाथ थाम लेतीं और अपनी मेहंदी-मांडणा की कला का भरसक ज्ञान उन ममतामयी हथेलियों पर उतारने को जुट जातीं। उम्र के साथ-साथ शुभा का यह शौक भी बढ़ता गया। हर तीज-त्योहार के साथ मेहंदी की रस्म भी खूब धूमधाम से मनायी जाती थी। रक्षाबंधन हो या भाई-दूज, हरियाली तीज हो या गणगौर, शुभा और उसकी सहेलियों की नन्हीं हथेलियॉं मेहंदी के रंगों से सबसे पहले रच जातीं और सुहाग-पर्व की तो बात ही क्या? एक-एक का हाथ थाम-थाम कर शुभा पूछती, “”बोलो चाची, क्या मांडू नाचता मोर या कलश?” बिना किसी प्रशिक्षण के बचपन में ही सिद्घहस्त हो गयी थी शुभा इस कला में। वह मेहंदी प्रतियोगिताओं में भाग लेने लगी। कॉलेज, क्लब या संस्था में कभी भी कोई मेहंदी मांडणा प्रतियोगिता होती तो वह झट पहुँच जाती और धीरे-धीरे उसने प्रथम पुरस्कार पर अपना एकाधिकार जमा लिया। इसके अलावा नाते-रिश्तेदारी, मित्र-मंडली या फिर गली-मुहल्ले में कहीं भी ब्याह-शादी हो, मेहंदी की रात शुभा के नाम की ही पुकार उठती।
“”बस गप्पबाजी और मेहंदी मांडणां, ये दो ही काम आते हैं तुम्हें। न घर का काम और न पढ़ाई-लिखाई, ये ही नहीं होते तुमसे।” प्रत्युत्तर में वह लड़ियाते हुए बेला की बेल की तरह मॉं के गले से लिपट जाती और कहती, “”ओ मॉं, आप हैं न घर का काम करने के लिए, मैं भी करूँगी सारे काम, पर शादी के बाद।”
बचपन से यौवन तक सैकड़ों हथेलियों में मेहंदी के हरे-सुर्ख, बेल-बूटे, चॉंद-सूरज, तारे उकेरते-उकेरते आखिर शुभा के हाथों में भी मेहंदी रचने का वक्त आ ही गया। स्वर्ग से चुनकर भेजा उसका प्रेम-दूत उसे मिल गया अपनी खास सहेली कुमकुम के ब्याह में। गुजराती शैली का लहंगा-चोली और सितारों से झिलमिलाती ओढ़नी के साथ बहुत ही पारंपरिक ढंग से तैयार हुई थी शुभा। दिल्ली से बारात में आए जीजा जी यानी कुमकुम के पति के दोस्त शेखर पहली नजर में ही फिदा हो गये उस पर। उन्होंने चुपके से उसे अपनी मॉं को दिखाया और सहमति हासिल कर ली। दूसरे ही दिन मॉं के साथ सीधे उसके घर पहुँच गये, उसका हाथ मांगने। शुभा की मॉं हैरान रह गईं यह सब देख-सुनकर। उन्हें अपनी बड़ी बेटी आभा की शादी के लिए दिन-रात एक करना पड़ा था, तब कहीं जाकर एक साधारण-सा घर-वर जुट पाया था, तो वहीं बैठे-बिठाए संपन्न घर का वर शुभा के लिए खुद रिश्ता मांगने चला आया। रुकाई की रस्म तो हॉं के साथ तत्काल ही कर दी गई और ब्याह दो महीने बाद होना तय हुआ।
शादी की तैयारियॉं जोर-शोर से चल रही थीं। हालॉंकि शेखर के परिवार की ओर से राई-रत्ती भी मांग नहीं की गई थी, फिर भी शुभा के माता-पिता कोई कोर-कसर नहीं रखना चाहते थे। शुभा की तैयारियॉं अपने ढंग से चल रही थीं। मेहंदी चढ़ने के बाद आने वाले रंग के रूपहले सितारों जड़े लहंगा-चुनरी और सोने के गहनों की जगह उजले-धवल मोतियों के जेवर बनवाए गये।
पार्लर का जमाना नहीं था, सो पुरानी हवेली के आउट हाउस में रहने वाली बूढ़ी सुंदरियॉं काकी को मेहंदी लगवाने के लिए बुलाया गया। वह कभी राजघराने की रानी-महारानियों को मेहंदी लगाया करती थीं। सहेलियॉं यह कह कर चुटकियां ले रही थीं, “”खुद ही लगाना न अपने सुहाग की मेहंदी।”
जीजा जी भी छेड़ते हुए कहने लगे, “”भई साली जी, तुम्हारी आभा दीदी तो कह रही थीं कि शुभा के ब्याह पर शुभा से ही मेहंदी लगवाऊँगी। मैं भी सोच रहा हूँ, एक हाथ में तुम्हीं से मेहंदी लगवा लूँ।”
मीठी छेड़छाड़ और हास-परिहास के साथ वक्त गुजरता चला जा रहा था। दस दिन ही बाकी रह गये थे ब्याह को। शुभा की मॉं ने शेखर की मॉं से पुछवाया कि मेहंदी का शगुन लेकर कितने लोग आयेंगे?”
“”माफ करना बहन जी, हमारे यहॉं तो मेहंदी की रीत ही नहीं है। हमारे घर की बहुएँ मेहंदी लगाना तो दूर, उसे छू भी नहीं सकतीं। हॉं, बेटी ब्याह कर ससुराल चली जाए तो वहॉं के रिवाज के अनुसार जो चाहे करे। मगर बहू मेहंदी नहीं लगा सकती। यह समझ लें कि मेहंदी पर रोक है हमारे खानदान में। हॉं उबटन, तेल, क्वांरी धोती और सिंगार-पिटारी लेकर चार-पॉंच लोग आएँगे, उनके लिए क्या खास इंतजाम करना।”
शुभा की मॉं स्तब्ध खड़ी सोच रही थी कि ये खबर शुभा तक कैसे पहुँचाए? वह तो हंगामा खड़ा कर देगी। और जिस पल शुभा को यह खबर मिली, उसने आसमान सिर पर उठा लिया।
“”नहीं करना मुझे ब्याह वहॉं। अरे! ये भी कोई बात हुई? मेहंदी रचाने से भी भला कभी किसी का बुरा हो सकता है? रूढ़िवादी कहीं के। साफ मना कर दो कि शुभा नहीं करेगी ब्याह आपके यहॉं।”
“”बच्चे मेरे, जरा सोच कर देखो। इतने संपन्न घर का इकलौता बेटा खुद चलकर आया तुम्हारा रिश्ता मांगने। बेटा, कहीं तो एडजेस्ट करो। इतनी-सी बात के लिए चढ़ी बारात को घर से लौटा देना क्या ठीक है?” मॉं ने समझाया तो वह बिफर उठी, “”इतनी-सी बात? ये इतनी-बात है मॉं? बिन मेहंदी की दुल्हन मैंने तो आज तक नहीं देखी। क्या आप नहीं जानतीं कितनी हसरतें हैं मेरे मन में इस मेहंदी को लेकर। नहीं-नहीं मुझे नहीं करना ब्याह वहॉं।”
“”बिटिया रानी, जरा अपने इस गरीब बाप की तरफ देखो। ब्याह से ऐन पहले रिश्ता टूट गया तो मैं मुँह छुपाने कहां जाऊँगा?” टूटे स्वर में कहा था पापा जी ने।
“”जरा सोचिए पापा जी, कितने दकियानूसी ख्याल हैं उनके मेहंदी की रोक के लिए! अरे, कल अगर किसी मोटर-कार से टकरा कर कोई मर जाए तो क्या उनका खानदान मोटर-कार में नहीं बैठेगा? हद है रूढ़िवादिता की। पापा जी मुझे नहीं जाना ऐसे अंधविश्र्वासियों के घर।”
“”ऐसे कुबोल मत बोल बिटिया। न जाने किस घड़ी जुबान पर सरस्वती आन बैठती है और मुँह से निकली बात सच हो जाती है। मेरी खातिर छोड़ दे ये जिद।” पापा जी ने कातर स्वर में कहा तो शुभा पसीज गई फिर उसने जिद तो नहीं की, लेकिन दिल बुझ गया था उसका।
नौ फरवरी की सुनहरी गोधुली बेला में सप्तपदी का मुहूर्त था। अतिशय रूपवती दुल्हन बनी वह विवाह-मंडप में बैठी थी, लेकिन उसके मन में कहीं यह कुंठा घर कर गयी थी कि वह मुकम्मल नहीं, अधूरी दुल्हन है। रह-रहकर एक टीस उठ रही थी मन में अपने कोरे-गोरे हाथों को देखकर। जो मान-सम्मान उसके मन में शेखर और सास-ससुर के लिए था, वह धुंधला पड़ गया था, लेकिन यह भावना अस्थाई थी, जल्द ही इन पर प्रीत का गाढ़ा रंग चढ़ गया।
ससुराल पहुँची तो शेखर, बड़ी ननद शशि दीदी और सास-ससुर ने उसकी इतनी देखभाल की और इतना निश्र्चल प्यार दिया कि उसके सामने मेहंदी क्या दुनिया के तमाम सुखों के रंग फीके ही नहीं बेनूर-से लगने लगे उसे। प्रीत-प्रेम की पींगें भरते हुए पूरे आठ माह गुजर गये और आ पहुँचा करवा चौथ का त्योहार। शुभा की सोई कसक फिर से जाग उठी।
उसकी सासुजी सरगी के लिए पान, फल, मिठाई, फेनियां और चूड़ियॉं लेने बाजार गई हुई थीं और शुभा टी.वी. के सामने बैठी थी। करवा चौथ के उपलक्ष्य में दूरदर्शन पर मेहंदी के गीत आ रहे थे। अभिनेत्री नंदा के होंठ हिल रहे थे “मेहंदी लगी मेरे हाथ रे…।’ शुभा का जी खराब होने लगा कि कल उसके ससुराल के आँगन में ही पूजा होगी। सुहाग के थाल फेरे जाएँगे मेहंदी रचे हाथों से, एक उसके ही हाथ सूने-कोरे होंगे। उसने उठकर एक झटके से टी.वी. बंद कर दिया कि तभी डोर-बेल बजी।
राजस्थानी वेशभूषा में अधेड़ उम्र की एक महिला द्वार पर खड़ी थी।
“”देखो तो जरा बहू जी, यह पता यहीं का है न?”
एक छोटी-सी पर्ची आगे बढ़ाती हुई वह पूछने लगी।
“”ये तो हमारे घर का ही पता है। कौन हैं आप? क्या काम है?”
“”बहू जी, आपको मेहंदी लगाने आई हूँ। आपकी सासू जी ने भेजा है।”
“”क्यों जले पर नमक छिड़क रही हो बाई। इस घर में मेहंदी लगाना तो दूर, उसे लाना भी मना है। आप जाएँ यहॉं से।”
“”पता तो यही है फिर?” कहते हुए उस महिला के चेहरे पर चिन्ता झलकने लगी थी।
“”अब आप जाइए” कह कर शुभा ने दरवाजा बंद किया। वह महिला लौट रही थी कि शुभा की सासु मॉं आ गईं।
“”क्या बात है लाखी बाई? वापस क्यों जा रही हो?”
“”आपकी बहू रानी तो गुस्सा हो रही है।”
“”अरे! आओ, आओ। अंदर आओ।” कहती हुई वह उसे बुलाने लगी तो भीतर से उनकी आवाज सुनकर शुभा प्रस्तर प्रतिमा-सी रह गई।
“”लेकिन मम्मी जी…” बड़ी मुश्किल से बोल फूटे थे, उसके कंठ से।
“”शुभा, मैं घर में सबसे बड़ी हूँ। मैं पुराने नियमों को तोड़कर नये नियम लागू कर रही हूं, मेहंदी को वापस इस घर में लाकर।”
“”आप रहने दें मम्मी जी, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता और फिर मन में कोई वहम हो तो नयी रीतें निभाने में डर भी लगता है।”
“”कैसा वहम? कैसा डर? यह सब हमारे मन की कमजोरियॉं हैं बेटा। तुम्हारी तरह मैं भी बहुत शौकीन थी मेहंदी लगाने की, लेकिन मेरी सास बड़ी कठोर और कट्टर रूढ़िवादी थीं। जब शेखर हुआ तो मैंने फैसला कर लिया था कि इसकी दुल्हन को मेहंदी के रंग से महरूम नहीं रखूँगी।”
“”मगर मम्मी जी, हमारे ब्याह के वक्त ये कदम क्यों नहीं उठाया आपने?”
“”बेटा कोई समाज, परिवार या व्यक्ति किसी भी परिवर्तन को इतनी आसानी से स्वीकार नहीं करता। उस समय मैं इसके लिए आवाज उठाती तो भरपूर आलोचना होती मेरी और ब्याह में भी विघ्न पड़ता, इसीलिए मैंने फैसला किया था कि तुम्हारे पहले करवाचौथ से ही इस रस्म को जिंदा करूँगी। लाओ अपना हाथ आगे बढ़ाओ।”
शुभा मंत्र-मुग्ध-सी अपनी मॉं से भी ज्यादा स्नेहिल सास की मंत्रपूरित वाणी सुन-गुन-सी रही थी।
“”बेटा, तुम्हें कोई आपत्ति हो तो शुरुआत मैं अपने से ही करती हूँ।” “”नहीं-नहीं मम्मी जी, ये लीजिए, ” कहते हुए शुभा ने अपनी शुभ्र हथेली फैला दी।
मम्मी जी ने शंकर-पार्वती की युगल मूर्ति के सामने मस्तक नवाया।
“”हे चिर सुहागन गौरी मॉं! अपने मेहंदी रचे हाथ इस बच्ची के सिर पर रखना। इसका सुहाग अचल रखना। मैं जिस रस्म को पुनर्जीवित कर रही हूँ, उसकी लाज रखना।”
लाखी बाई ने शुभा के गोरे-गुलाबी हाथ पर मेहंदी का पहला टिपका डाला तो मम्मीजी ने उसके आंचल में एक सौ एक रुपये बॉंधते हुए कहा, “”यह तुम्हारा नेग है लाखी बाई। तय रकम से भी ज्यादा दूंगी, पर मेरी शुभा के हाथों में पूरी सृष्टि उतार देना।”
“”बिटिया, मैं तुम्हारे “उनका’ नाम लिखूँगी फूलों-पत्तों में छुपा कर, रात तुम उन्हें ढूँढने को कहना।” लाखी बाई ने मुस्कुराकर कहा तो शुभा खिल गई।
“”लाखी बाई, आपका पहरावा देखकर तो लगता ही नहीं कि आप इतनी साफ और मीठी खड़ी बोली बोल लेती होंगी। आप हैं कहॉं की?”
“”बेटी, उदयपुर की हूँ मैं और उम्र बीत गई है इस शहर में, जुबान तो बदलेगी ही न? पर न पहनावे का मोह छोड़ पाई और न मेहंदी मांडणे का”, किंचित उदास होते हुए लाखी बाई ने कहा।
उसी रात शुभा के मेहंदी रचे हाथ चूमते हुए शेखर ने कहा था, “”इन मेहंदी रचे हाथों ने ही तो सबसे ज्यादा जादू किया था मुझ पर, यह आज नसीब हुए हैं मुझे, शादी के पूरे आठ महीने के बाद।”
बस पहल करने और छूट देने की देर थी, मेहंदी को पूरे खानदान ने अपना लिया।
करवा चौथ के दस महीने बाद वंदन का जन्म हुआ, उसी वंदन का ब्याह है और कई पीढ़ियों के बाद ये सुनहरा मौका वंदन के हिस्से ही आया है कि इस घर से पहली बार उसकी दुल्हन के लिए शगुन की मेहंदी जा रही है।
इन मीठी यादों ने शुभा को स्वस्थ और ताजादम बना दिया। अब उठो बहुत हो चुका आराम शुभा रानी, चल कर काम संभालो, स्वयं से ही कहकर शुभा उठ खड़ी हुई। सीढ़ियों पर ही बैदेही से टकरा गई वह।
“”ओ मम्मा, मैं आपको ही बुलाने आ रही थी। मेहंदी ले जाने की तैयारी हो चुकी है। आप जरा एक नजर डाल लें कि सब ठीक है या नहीं।”
“”बेटा विदू! यह मेहंदी रंग की साड़ी विभा को मेहंदी के शगुन के वक्त पहनाना और मेहंदी रचाने से पहले उसके हाथ-पैर में यह मेहंदी का तेल जरूर लगा देना, इससे मेहंदी अच्छी रचेगी। सुर्ख शिफान उसके घरवालों के हवाले करते हुए कहना कि मेहंदी का रंग चढ़ने के बाद विभा को यह साड़ी पहनाएं और वीडिओ कवरेज जरूर लें और हॉं, मेहंदी मांडणे के बीस मिनट बाद उस पर नींबू का रस लगा देना और विभा से कहना कि मेहंदी उतारने के बाद तुरंत हाथ मत धोए, बल्कि सरसों का तेल लगाए, इससे मेहंदी का रंग चोखा चढ़ता है।” शुभा ने हसरत से सारे निर्देश दिये।
“”हे मॉं पार्वती, इस मेहंदी ने मुझे भी अचल सुहाग दिया है और मेरी बेटी-सी शुभा को भी। अब मेरी गुड़िया-सी विभा के सुहाग को भी अचलता का वरदान देना। चोखा रंग चढ़ाना मेहंदी का।” शुभा की सास ने पार्वती मॉं की मूर्ति के समक्ष नमन करते हुए कहा।
चमचमाती हुई गाड़ियां शगुन की मेहंदी लेकर रवाना हो गईं, शान से।
– कमल कपूर
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