गहरी चोट

कहा जाता है कि कोई भी व्यक्ति सम्पूर्ण नहीं होता, सिर्फ भगवान ही सम्पूर्ण होते हैं। पर यदि गहराई से देखा या सोचा जाये तो कुछ साधारण व्यक्ति भी ईश्र्वर सम सम्पूर्ण दिखाई देते हैं। होते हैं या नहीं, पर उनके जीवन की जीवट दृष्टि देखकर ऐसा आभास अवश्य होता है। मैं बात कर रही हूं, उस अपनी एकमात्र सहेली शिल्पा की, जिसे मैंने बचपन से बुढ़ापे तक हर पड़ाव पर देखा-भाला और परखा है। विश्र्वास नहीं होता, पर यही सत्य है। मैं बचपन से आज तक उससे एक ही प्रश्र्न्न पूछती आयी हूँ, “”तुम ऐसी क्यों हो?” और उसका उत्तर भी हमेशा यही रहा, “”मैं तो बस ऐसी ही हूँ।”

उसके मित्र, सहपाठी, सहयोगी, संबंधी, अफसर उसका गुणगान करते नहीं थकते थे, पर उसे कोई अंतर नहीं पड़ता था। वह अपनी सम-गति से बस जीवन जीती जा रही थी। अपने साथियों और बहन-भाइयों में सर्वश्रेष्ठ। क्या नहीं था उसके पास? रूप-सौन्दर्य, कमनीय काया, एक नजर में दिल में उतर जाने का अहसास भरने वाली मुस्कान, हॅंसती तो फूल खिलने लगते। वह केवल शारीरिक सौन्दर्य एवं बाह्य सौन्दर्य के बल पर ही नहीं, आंतरिक सौन्दर्य के प्रभाव से भी सम्पूर्ण थी। हर एक स्तर पर छू लेने वाला प्रभावी व्यक्तित्व, सौम्य, शालीन व्यवहार, छोटे-बड़े, गरीब-अमीर सबके साथ स्थिति से जन्मा भाव नहीं, बल्कि मन के अंदर की भावनाओं का स्पर्श चेहरे पर आता था। यही दर्द और भाव उसे सबका प्रिय बना देते थे। वह सबकी दुलारी थी और सब उसके। उसके जीवन में कोई शिकवा-शिकायत या तेरा-मेरा नहीं था। न अहं, न बदले की भावना। बस नदी सम सब देती, स्वीकारती आगे बढ़ती रही।

शादी की उम्र होने पर ढेरों संदेश आये, ढेरों लोगों ने, नजदीकी मित्रों ने अंगूठी पहनानी चाही, पर वह हमेशा मुस्कुरा कर टाल जाती। वह अपने विकल्प खुले रखना चाहती थी। खूब पढ़ना और स्वतंत्र अस्तित्व को सुरक्षित रख कर जीना चाहती थी। अपने पिता से वह बहुत गहरे जुड़ी थी और पिता को भी उस पर बहुत गर्व था। पिता स्वयं भी प्रभावी और सशक्त व्यक्तित्व के स्वामी थे। उन्होंने लड़के, लड़कियों में कभी अंतर नहीं माना था, न ही किया था। पिता के मित्र ने एक रिश्ता सुझाया, सब ठीक लगा और शिल्पा ने भी पिता की आज्ञा का पालन कर उसे बिना देखे, बिना जाने, बिना परखे मान लिया था। उस समय मुझे बड़ा अजीब लगा था। मैं भयभीत और शंकित हो उठी थी और ढेरों प्रश्र्न्न शिल्पा से किये थे, पर उसका एक ही उत्तर था, “”सब ठीक है।” शायद शिल्पा को अपने पिता के चुनाव पर पूर्ण विश्र्वास था। उस पल शायद उसके पास कोई प्रश्र्न्न भी नहीं था। अच्छा पढ़ा-लिखा लड़का, अच्छा परिवार और क्या चाहिए? शायद उस पल उसके पास यह आत्मविश्र्वास भी नहीं था कि वह अपनी सीमा-रेखाओं को समझ पाती, जीवन की जटिलताओं से कोई नाता भी न था। मेरे समझाने पर भी नहीं समझी वह और बोली, “”तू तो पागल है।” वह अपनी प्रतिभा और क्षमताओं का सही आकलन नहीं कर पाई। उसे अपने आत्मविश्र्वास और पिता के चुनाव पर पूर्ण आस्था थी।

लेकिन शादी के बाद उसे पता चला कि वह जहां जा पहुँची है, वहां उसके लिए कोई स्थान ही नहीं था। वहां उसका सौन्दर्य, प्रतिभा, व्यक्तित्व सब व्यर्थ था। सभी विकल्प जो वह खुले रखना चाहती थी, बंद हो गये थे। वहां यदि कुछ था तो जिम्मेदारियां और जिम्मेदारियां बस और कुछ नहीं। उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व कोई मायने नहीं रखता था। वहां पहुंच कर उसे मेरी बातों का अर्थ समझ आने लगा था और साथ ही अपनी प्रतिभा और क्षमताओं का अर्थ। सभी विकल्प बंद हो जाने की पीड़ा और सम्पूर्ण व्यक्तित्व के शून्य हो जाने का दंश वह समझ गयी थी। शिल्पा ने मुझे कहा था, “”जीवन यूँ कभी खत्म नहीं होता, ढूंढने पर कोई न कोई विकल्प मिल ही जाता है।” मैं उस दिन बहुत रोई थी, पर यह भी जानती थी कि शिल्पा कभी नहीं रोएगी, वह हार भी नहीं मानेगी। फिर उसने अपने आत्मविश्र्वास के सहारे दोनों परिवारों की लीक तोड़कर घर से बाहर निकलकर नौकरी कर ली थी। अपनी नौकरी से वह खुश थी। वह जानती थी कि नौकरी के सहारे वह सभी जिम्मेवारियों को सही ढंग से पूर्ण कर पाएगी और साथ ही अपने व्यक्तित्व को भी सुरक्षित कर लेगी। सभी के विरोध और अपशब्दों के बाद भी वह आगे बढ़ती रही। कुछ पल रुक कर उसने अपने पति की तरफ जरूर देखा था। उसे लगता था एक कंधा तो मिलेगा, जहां वह पलभर रो पाएगी और फिर हल्का हो आगे बढ़ जाएगी। पर ऐसा भी नहीं हो पाया। बस अकेले ही आगे बढ़ने की सौगन्ध उसने ले ली थी। बाकी सभी विकल्प बंद कर दिये थे। अपने पिता को वह कुछ भी नहीं बताना चाहती थी, अपने बहन-भाइयों से भी उसकी कोई सांझ नहीं थी, “तलाक’ शब्द से ही घृणा थी। कभी-कभी वह मेरे कंधे पर सिर रख कर रो लेती थी, इस वादे के साथ कि उसका यह भीगा कंधा कोई दूसरा न देख पाये। उसका सारा संसार उसके अंदर बस गया था। सभी अभावों और पीड़ाओं के स्रोत अंदर की तरफ मोड़ दिये थे। अंदर की हरियाली का सौन्दर्य और आकर्षण उसके चेहरे पर दमकता रहता था। इसी पैमाने पर सभी उसे पूर्ण सुखी और खुश मानते थे। शिल्पा ने एक बार जो निर्णय ले लिया तो बस ले लिया फिर पीछे की तरफ हारकर कभी नहीं देखा। सभी विकल्प, सभी अपेक्षाएँ खत्म कर कर्त्तव्य और कर्म के साथ जुड़ गयी थी।

शिल्पा मेरी बहुत गहरी मित्र थी। और उसके जीवन का हर पल मेरे सामने था। शायद यह अतिशयोक्ति हो, पर मेरी दृष्टि में वह सम्पूर्ण मानव हो गयी थी। शिल्पा रिश्तों की अहमियत को खूब समझती थी और अब उसका ध्येय मात्र था, दूसरों के लिए जीना। मेरा मन बहुत दुखता था, क्योंकि शिल्पा अपने लिए तो कभी जी ही नहीं पायी। पूछने पर कहती, “”बस सब इसी जीवन में भोग लेना चाहती हूँ, पिछले जन्म के सब पाप और कर्म धो लेना चाहती हूँ।” फिर हंसकर कहती, “”अरे, तुम क्यों उदास होती हो, पिछले जन्म का भोग रही हूं तो इस जन्म का अगले जन्म में भी भोगूंगी।” शिल्पा सबसे प्यार करती थी, सबका सम्मान करती थी। कभी-कभी कहती, “”मेरे पति तो मुझसे भी महान थे, वह अपने लिए तो कभी जीये ही नहीं। यदि मुझे कुछ नहीं दिया तो स्वयं भी तो कुछ नहीं भोगा। एक सच्चे, उदात्त व्यक्तित्व के स्वामी थे वह, बस दूसरों के लिए जीते। मां-बाप, बहन-भाई और आगे उनके परिवार, यही सब उनका संसार था। मैंने तो उनके इस महान कर्त्तव्य-यज्ञ में उनके साथ अपने को जोड़ भर दिया था।”

शिल्पा की बातें सुन मुझे विश्र्वास नहीं होता था, पर करना पड़ता था, क्योंकि उसके अंदर और बाहर में कोई अंतर नहीं था।

घर में जो शिल्पा को नहीं मिला, वह प्यार, सम्मान, उपलब्धियॉं सब उसे बाहर के लोगों से मिला। राष्टीय-अंतर्राष्टीय स्तर पर भरपूर सराहना और सम्मान, पर वह बिल्कुल सहज थी। लोग कहते, कितनी भाग्यशाली है, ऐसा परिवार, ऐसा पति, ऐसा बेटा सब इच्छानुसार, पर वह कभी कुछ नहीं बोलती थी, क्योंकि उसका मानना था कि यह स्थिति उसने स्वयं स्वीकार की है। यदि वह चाहती तो वह तलाक ले स्वतंत्र भी हो सकती थी और अपने हर कर्त्तव्य से विमुख भी, क्योंकि उस पर किसी का कोई दबाव नहीं था। पति के कर्त्तव्य यज्ञ में आहुति बनना उसका अपना निर्णय था। फिर पछतावा किसलिए? शिल्पा जितनी संवेदनशील और गंभीर थी, उतनी ही हंसी-मजाक से भरपूर व्यक्तित्व की मालकिन भी। उसे हंसने-हंसाने वाले जीवन्त लोग बहुत पसंद थे, पर यह सुख भी शायद उसके भाग्य में नहीं था। शादी से पूर्व ही शायद उसे जितना हंसना था – बोलना था, गाना-बजाना था, सोचना था, उसका कोटा भी खत्म हो गया था। अब तो वह केवल मात्र सुनती थी। उसका बोलना, हंसना, महसूस करना सब उसकी सास के कटु-शब्दों में अपव्यय के कारण शीघ्र खत्म हो गये थे और मीठे-मीठे सपने सब पति की नीरसता में दम तोड़ गये थे। एक तपस्वी जैसे पति से, जिसे कोई प्रलोभन या आकर्षण नहीं था। कोई भी उसे कर्त्तव्य के आसन से डिगा नहीं सकता था, कोई अपेक्षा रखना व्यर्थ था। पति के जीवन में प्रथम स्थान उसे कभी नहीं मिला, क्योंकि वहां केवल उसका अपना कर्त्तव्य था, दूसरा स्थान वह चाहे स्वीकार करे या न करे, यह उसका अपना निर्णय था। इस निर्णय के पीछे बहुत से कारण थे, जिनका विश्र्लेषण शिल्पा करती रहती थी, पर मेरे समझाने का भी कोई असर नहीं होता था। उसकी ढेरों उपलब्धियॉं भी उसका यह निर्णय नहीं बदल पायी थीं। उसका हंसना-बोलना, भावुक होना, सपने देखना सब अतीत की बात थी। अब अगर कुछ बचा था तो अपने बेटे पर अटकी एक आस, जो अंदर ही अंदर उसे भरोसा दिलाती रहती थी कि वह फिर से हंसेगी, बोलेगी, गुनगुनाएगी, भावुक सपने देखेगी और मिलेगा एक सशक्त पुरुष कंधा, जहां वह जी भर कर रो भी पाएगी। इसी उम्मीद के सहारे वह जिन्दा भी थी। कभी-कभी उसे लगता था कि पिता का युग बेटे के रूप में फिर से लौटेगा। अवश्य लौटेगा। उसकी तपस्या यूं व्यर्थ नहीं जाएगी। उसका यह विश्र्वास मुझे बड़ा अच्छा लगता था और हम दोनों घंटों बैठकर बातें करती थीं, सुनहरे भविष्य के सपने बुनतीं, रंग भरती रहती थीं।

अंकुर बड़ा हो गया था। विदेश से लौट आया था। विवाह हो गया था। बच्चे हो गये थे। अच्छी नौकरी और जीवन की तमाम सुविधाओं से भरपूर जीवन था उसका, पर वह जब भी आता तो शिकायतों का भंडार होता उसके पास, “”आपने यह नहीं किया, आपने वह नहीं किया? आपके लिए दूसरे महत्वपूर्ण थे, मैं नहीं। डैडी और आप कुत्तों की तरह दूसरों के सुखों की रखवाली करते रहते थे, उनके आगे-पीछे दुम हिलाते, इशारों पर नाचते थे और मैं चुपचाप कोने में पड़ा रहता था।” बड़ी हैरानी होती थी, उसे यह सब सुनकर। पर क्या करती, कैसे समझाती कि वह तो बस उसके लिए ही जिन्दा थी, उसका हर सपना और इच्छा पूर्ण करना वह अपना धर्म समझती थी। उसे वह सब मिला, जो शायद वह अपने बच्चों को भी नहीं दे पाएगा। फिर भी शिल्पा को आशा थी कि वह एक दिन उनके बलिदानों को अवश्य समझेगा। डैडी की मृत्यु के बाद उसके मन पर एक प्यारा-सा सपना करवटें लेने लगा था, पर कुछ भी नहीं बदला था। वह काम से लौटता, अपनी पत्नी और परिवार से गले मिलता, दिनभर की बातें करता, हंसता, बतियाता पर शिल्पा के पास आते ही शिकवे-शिकायतें शुरु कर देता। कभी कहता “”आपने मेरे लिए कुछ नहीं किया, मेरे बच्चों के किसी काम नहीं आये, मेरी पत्नी की कोई मदद नहीं की। मुझे आप पर कोई विश्र्वास नहीं, आप मेरे लिए भविष्य में भी कुछ करेंगी या नहीं।”

एक दिन तो कहने लगा, “”मेरे सामने यह आंसू मत बहाया करो, मुझे अच्छे नहीं लगते। आपने कैसा जीवन जिया, यह आपका जीवन था, आपने क्या बलिदान दिया, यह आपका निर्णय था, आपको डैडी ने क्या दिया, क्या नहीं दिया, यह आपकी अपनी जीवन-दृष्टि थी। मुझे इससे कुछ लेना-देना नहीं है। मैं यहॉं आता हूं, क्योंकि मेरे पास जाने के लिए दूसरी कोई जगह नहीं है। मुझे आराम चाहिए। आप अपना यह पहाड़ जितना अहम् और दस गज लम्बी जुबान बंद करके रखें। आप दोनों की लम्बी उपलब्धियों के बखान से मुझे कुछ मतलब नहीं है। मेरे हिसाब से तो आप दोनों एकदम पागल और बेवकूफ थे। सब अपने और अपने परिवार के लिए जीते हैं और आप दूसरों की खुशियों के लिये।” इतना कह कर अंकुर ने अपने कमरे का द्वार बंद कर टीवी लगा लिया था।

शिल्पा वहीं की वहीं पत्थर बनी बैठी थी। उसके पास सुनने को कुछ शेष न था। नौकर ने मुझे फोन किया। मैं उसी पल पहुंची, पर शिल्पा की हालत बिगड़ती ही जा रही थी। बस वह इतना ही बोली थी, “”हंसना-बोलना, गाना और भावुक सपने देखना तो पहले ही खत्म हो गये थे। बस एक सुनने की शक्ति बाकी थी, पर अंकुर के कहे शब्द मेरे कानों में पैने नश्तर की तरह चुभ गये हैं और मेरी अब सुनने की शक्ति भी खत्म हो गई है। मैं पूर्ण रूप से अपाहिज हो गयी हूं, पत्थर बन गयी हूं।” यह कह वह मेरी बांहों में लुढ़क गयी थी। मैंने और अंकुर ने मिलकर उसे अस्पताल पहुँचाया, पर वह दो दिन बेहोश या हल्के कोमे में पड़ी रहने के बाद सब छोड़ मुक्त हो, चली गयी थी। सब रो रहे थे। मुझे बड़ा अजीब लग रहा था, क्यों रो रहे हैं, वह किसी की कुछ नहीं लगती थी, उसने तो किसी के लिए कुछ किया ही नहीं था। वह तो बस अपनी इच्छा से, अपने निर्णय के आधार पर कर्त्तव्य के यज्ञ में आहुति सम भस्म हो गयी थी। बड़ी स्वार्थी थी वह, बस अपने निर्णय पर ही अटल रही, बदली ही नहीं।

मन में ढेरों प्रश्र्न्न थे। सबको बिठा बहुत कुछ कहने की इच्छा थी, पर याद आया वह वादा, जब उसने कहा था “”तुम्हारे कंधे पर सिर रख कर आज बहुत रोई हूं, पर वादा करो इस भीगे कंधे की बात किसी से नहीं करोगी।” उसके दाह-संस्कार के बाद मैं घर लौट आयी थी। मेरे लौटते कदमों ने शिल्पा की मृत्यु के बाद मुझे बहुत कुछ सिखा दिया था। मैंने सोच लिया था, अब मैं किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखूंगी। किसी के लिए कुछ करूंगी भी नहीं, बस बाकी बचे जीवन को केवल अपने लिए और अपनी इच्छा से जीऊँगी। दूसरी बात यह कि इन्सान तो इन्सान ही होता है, भगवान की तरह सम्पूर्ण नहीं बन सकता। लाख तपस्वी हो, त्यागी हो, पर चोट तो लगती ही है और वह चोट बड़ी भयंकर होती है, जो सोच के विपरीत अपने दे जाते हैं, बहुत अपने। साधारण-सी शिल्पा एक अजूबा थी, फिर भी इन्सान थी, चोट उसे भी लगी, बड़ी गहरी चोट, ऊपर से सम्पूर्ण दिखाई देने वाली शिल्पा अंदर के खंडहर को बचा नहीं पायी। एक गहरी चोट लगी और सब खत्म, सब खत्म। उसके अंत ने मेरी सोच को पंख लगा दिये थे। मैंने फैसला कर लिया था कि किसी भी बड़ी चोट से पहले मैं अपने लिये जीना सीख लूंगी, बस।

– डॉ. इन्दु बाली

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