जिस रथ में भगवान अथवा उनका भक्त बैठा है, उस पर कौन-सा झंडा लहराता है? यह एक प्रश्न है, जिसे हमें हल करना है और बताना है कि वह झण्डा किस डण्डे में पिरोया रहता है। डण्डा तो शील का है अर्थात् हमें उस व्यक्ति से भी, जिससे लड़ाई हो रही है अथवा स्पर्द्घा है, किसी प्रकार का द्वेष नहीं है और उससे कोई वैर भी नहीं है। उसके प्रति हमारे भीतर दूर तक शत्रुता का भाव नहीं है। जब महात्मा गांधी अंग्रेजों को भारत से अपना राज समेटने के लिए कह रहे थे और उन्होंने “अंग्रे़जों भारत छोड़ो’ का नारा दिया था या सरदार भगत सिंह और उनके साथियों ने अंग्रेजों के विरुद्घ ाांति का बिगुल बजाया था, तब उनके मन में अंग्रेजों के प्रति किसी प्रकार का द्वेष नहीं था। वह उनके शील का परिचय देता है। उन्हें केवल भारत से प्यार था और वे अंग्रेजों से अनुचित मांग नहीं कर रहे थे अथवा उन्हें कोई ऐसा काम करने के लिए नहीं कह रहे थे, जिसमें उन्हें कोई पाप लगता हो।
उस डण्डे में पिरोया रहता है, उसका नाम, जो सत्य है। सच्चाई का झंडा हम ऊँचा करते हैं, उसको ही फहराते हैं और हम संसार से यह कहना चाहते हैं कि हम केवल शील से जुड़े हैं, बंधे हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, करेंगे और करते रहेंगे।
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