वाराणसी के राजा बोधिसत्व एक बार राज्य के एक क्षेत्र में हुए विद्रोह को शांत करने सेना के साथ गए। विद्रोहियों ने उनका डट कर मुकाबला किया। राजा को जान बचाकर भागना पड़ा। उन्हें रात भर के लिए भी कोई शरण देने को तैयार नहीं हुआ। अंततः एक गृहस्थ ने जोखिम उठाकर उन्हें घर में शरण दी। सुबह वह घोड़े पर बैठ कर सुरक्षित अपने महल जा पहुँचे। विद्रोह को दबाने के बाद राजा ने शरण देने वाले गृहस्थ को सादर राजमहल में आमंत्रित किया। लेकिन उसने यह कह कर जाने से मना कर दिया कि उसे राजा से कोई सरोकार नहीं है। वह वहॉं जाकर अपना समय बरबाद क्यों करे। राजा ने उसके गॉंव पर कर बढ़ा दिया। किसानों पर कर बढ़ाए जाने की बात सुनकर उस व्यक्ति को बहुत दुःख हुआ। गॉंव वालों को यह पता था कि राजा बोधिसत्व गॉंव के इस विद्वान व्यक्ति का बहुत सम्मान करते हैं। अतः कुछ व्यक्ति उसे साथ लेकर वाराणसी के राजमहल में पहुँचे। राजा उसे सामने खड़ा देख कर सिंहासन से उतर आए और उसे प्रणाम किया। उन्होंने गॉंव के किसानों को कर से मुक्त कर दिया।
यह सब देख कर अमात्य ने आश्र्चर्य से पूछा, “राजन्! इसमें ऐसा क्या गुण है, जो आप इतनी इज्जत दे रहे हैं?’ राजा ने कहा, “इस महान् पुरुष ने संकट के समय मुझे शरण देकर मेरे प्राण बचाए हैं। यह मेरे लिए परमात्मा के समान है।’
You must be logged in to post a comment Login