हालांकि तीसरे टेस्ट को चौथे दिन के आखिर तक खींचने के लिए राहुल द्रविड़, वीवीएस लक्ष्मण और हरभजन सिंह ने कोलम्बो के पी. सरवनमुट्टू स्टेडियम में भरपूर कोशिश की, लेकिन कोई चमत्कार नहीं होने वाला था और भारत 8 विकेट से टेस्ट गंवाकर श्रीलंका के हाथों टेस्ट श्रृंखला भी 1-2 से हार गया। जिस दिन बीजिंग में अभिनव बिंद्रा ने शूटिंग में स्वर्णपदक जीतकर इतिहास रचा, उसी दिन श्रीलंका के हाथों पिटने की खबर आने से मन का उदास होना स्वाभाविक था, लेकिन यह श्रृंखला इसलिए अधिक अफसोसनाक बन गयी क्योंकि यह क्रिकेट इतिहास में फेबुलस फोर यानी शानदार चौकड़ी- सचिन, द्रविड़, गांगुली और लक्ष्मण के पतन के रूप में अधिक याद रखी जायेगी। इसलिए यह प्रश्न स्वाभाविक है कि क्या फेबुलस फोर अपने हिस्से की क्रिकेट खेल चुके हैं?
श्रीलंका के हाथों पराजय की कई वजहें दी जा सकती हैं। एक, अजंता मेंडिस की करिश्माई गेंदबाजी जिसकी लाइन रीड करने में सचिन जैसे दिग्गज और द्रविड़ जैसे टेक्नीशियन भी नाकाम रहे। गौरतलब है कि मेंडिस ने अपनी शानदार गेंदबाजी की बदौलत 26 विकेट चटकाये जोकि तीन टेस्टों की डेब्यू श्रृंखला का विश्र्व रिकॉर्ड है। हालांकि श्रीलंका की जीत में मुथैय्या मुरलीधरन के 22 विकेट और संगाकारा, महेला जयवर्द्घने, तिलकरत्ने दिलशान, तिलहन समरवीरा और वार्नापुरा की शतकीय पारियां भी महत्वपूर्ण रहीं, लेकिन श्रृंखला पर अपना जादुई असर मेंडिस ने ही छोड़ा और इसीलिए उन्हें मैन ऑफ द सीरीज के पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
हार की दूसरी वजह पहली बार प्रयोग के तौर पर लागू किये गये रेफरल सिस्टम को भी बताया जा रहा है। गौरतलब है कि रेफरल सिस्टम का अर्थ है कि एक टीम एक पारी में ऑनफील्ड अम्पायर के निर्णय को तीन बार चुनौती दे सकती है। चुनौती के बाद सम्बंधित निर्णय तीसरे अम्पायर के पास भेजा जाता है और वह टेक्नोलॉजी की मदद से अंतिम फैसला देता है। अगर ऑनफील्ड अम्पायर के फैसले को दी गयी चुनौती सही साबित होती है, तो चुनौती देने का अधिकार बरकरार रहता है वरना एक-एक करके खत्म हो जाता है। इस श्रृंखला में ऑनफील्ड अम्पायरों के 14 ऐसे निर्णय थे जिन्हें चुनौती देने के बाद तीसरे अम्पायर ने बदला। इनमें से तकरीबन 10 निर्णय भारत के विरुद्घ गये। लेकिन सबसे अफसोसनाक बात यह रही कि तीसरे अम्पायर ने रेफर किए गये मुद्दों पर हमेशा एक ही नियम को मद्देनजर रखते हुए निर्णय नहीं दिया। मसलन, तीसरे टेस्ट की पहली इनिंग में जिस तरह से सचिन तेंदुलकर को आउट दिया गया था, बिल्कुल उसी तरह से श्रीलंका की पहली इनिंग में समरवीरा के खिलाफ अपील हुई और मामला तीसरे अम्पायर तक पहुंचाया गया, लेकिन समरवीरा को नॉटआउट दे दिया गया जबकि रिप्ले में बॉल का इम्पैक्ट और स्टम्प से दूरी बिल्कुल वैसी ही थी जैसी कि सचिन के मामले में। दूसरी बात यह भी है कि टेक्नोलॉजी 100 प्रतिशत सही नहीं है। मसलन, हाल ही में दक्षिण अफ्रीका और इंग्लैंड के बीच जो टेस्ट श्रृंखला खेली गयी उसके चौथे टेस्ट में हाशिम अमला के कैच को जब विभिन्न कोणों से रिप्ले में दिखलाया गया तो एक कोण से यह महसूस होता था कि उनका कैच बिल्कुल वैध रूप से लिया गया है जबकि दूसरे कोण से ऐसा प्रतीत होता था कि गेंद को जमीन से उठाया गया है। तकनीक की इस कमी के आधार पर यह कहना गलत न होगा कि नये रेफरल सिस्टम ने भी काफी हद तक भारत की हार में भूमिका निभाई।
हार की तीसरी वजह भारतीय मध्याम की जबरदस्त असफलता रही। कप्तान अनिल कुंबले का भी यही कहना है कि मध्याम के एक साथ निरंतर नाकाम होने की वजह से भारत श्रीलंका में टेस्ट श्रृंखला नहीं जीत पाया। कुंबले की यह बात काफी हद तक सही है। भारतीय ओपनर्स वीरेन्द्र सहवाग और गौतम गंभीर ने तीनों टेस्टों की छह पारियों में तकरीबन हर बार अच्छी शुरुआत दी, लेकिन मध्याम इस शुरुआत को भुना न सका। जैसे ही अपना काम करके ओपनर वापस पवेलियन लौटते तो मध्याम में “तू चल मैं आया’ का सिलसिला शुरू हो जाता। आप गौर कीजिए कि मध्याम की तरफ से सिर्फ तीन अर्धशतक लगे, दो लक्ष्मण के और एक द्रविड़ का। सचिन तेंदुलकर तो छह पारियों में कुल मिलाकर भी 100 रन नहीं बना सके। गाले का जो टेस्ट भारत ने जीता उसमें वीरेन्द्र सहवाग का आतिशी नाबाद दोहरा शतक और हरभजन सिंह व इशांत शर्मा की शानदार गेंदबाजी रही। कहने का अर्थ यह है कि गाले टेस्ट की जीत में भी मध्याम का कोई योगदान नहीं था।
अब सवाल यह है कि मध्याम असफल क्यों रहा? एक वजह तो यह है कि द्रविड़, गांगुली, सचिन और लक्ष्मण मेंडिस की गेंद को रीड करने में लगातार नाकाम रहे और बिना किसी विशेष योगदान के बार-बार आउट होते रहे। लेकिन असल वजह यह प्रतीत होती है कि यह फेबुलस फोर अपने-अपने हिस्से की क्रिकेट खेल चुके हैं। यह बात न सिर्फ उनके बल्लेबाजी करते समय प्रदर्शन से नजर आती है, मसलन श्रृंखला शुरू होने से पहले टेस्टों में सबसे ज्यादा रन बनाने के ब्रायन लारा के रिकॉर्ड को तोड़ने के लिए सचिन को 172 रन बनाने थे और छह पारियां खेलने के बाद भी वे अब भी रिकॉर्ड से 77 रन दूर हैं, बल्कि मैदान में फील्डिंग करते समय भी यह अहसास होता था कि यह लोग अब अपने हिस्से का क्रिकेट खेल चुके हैं। मसलन, पहले स्लिप में द्रविड़ को सुरक्षित फील्डर माना जाता था और टेस्टों में 100 से अधिक स्लिप में उनके कैच इस बात को साबित भी करते हैं, लेकिन इस श्रृंखला में उनके रिफ्लेक्से़ज बहुत धीमे नजर आये और उन्होंने स्लिप में ऐसे कई कैच छोड़े जो पहले वह बहुत आसानी से लपक लिया करते थे। इसी तरह सौरव गांगुली मैदान में इतने स्लो थे कि बल्लेबाज उनकी तरफ गेंद मारकर आसानी से दो रन ले लेते थे जबकि उनकी जगह अगर सुरेश रैना या युवराज सिंह जैसे चपल फील्डर होते, तो बल्लेबाज को एक रन भी मुश्किल से ही मिल पाता।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि फेबुलस फोर जबरदस्त अनुभवी हैं और अपने अनुभव के दम पर वे कभी न कभी या यूं कहें कि 10 टेस्टों में एक पारी ऐसी खेल देंगे जो उनके उस हुनर की याद दिलायेगी जिसकी बदौलत वे महान या फेबुलस फोर कहलाये जाते हैं। लेकिन फिलहाल जो वे क्रीज़ और मैदान पर जूझते नजर आ रहे हैं उससे यही अनुमान लगाया जा सकता है कि वे अपने हिस्से का क्रिकेट खेल चुके हैं।
गावस्कर ने कभी कहा था कि खिलाड़ी को उस वक्त रिटायरमेंट ले लेना चाहिए जब उसमें दमखम बाकी हो ताकि लोग कहें कि वह छोड़कर क्यों जा रहा है। उसे रिटायरमेंट का इंतजार उस समय तक नहीं करना चाहिए जब लोग कहें कि वह छोड़कर जा क्यों नहीं रहा है। लेकिन अफसोस है कि अपने लचर प्रदर्शन के बावजूद भी सचिन और गांगुली यह कह रहे हैं कि अभी उन्होंने रिटायरमेंट के बारे में सोचा तक नहीं है। दरअसल, िाकेट में खेल और विज्ञापन की बदौलत इतना ज्यादा पैसा और ख्याति जुड़ी हुई है कि इसका मोह आसानी से छूटता नहीं है। यही वजह है कि फेबुलस फोर नये चेहरों को मौका देने के लिए अपने कदम पीछे नहीं हटा रहे हैं। लेकिन अब वक्त आ गया है कि भारतीय क्रिकेट के भविष्य के लिए चयनकर्ता सख्त कदम उठायें और जो लोग अपने हिस्से का क्रिकेट खेल चुके हैं उनकी जगह एस.बद्रीनाथ, सुरेश रैना, रोहित शर्मा, शिखर धवन जैसे प्रतिभावान खिलाड़ियों को मौका दें।
– शाहिद ए. चौधरी
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