“कजली’ संस्कृत के शब्द “कज्जल’ से बना है, जिसके कई अर्थ हैं – “कज्जल’ का अर्थ वैसे तो कालिमा से लगाया जाता है, किन्तु इसका प्रयोग यहॉं वर्षा की काली घटा तथा कजली देवी जगत-जननी विन्ध्यवासिनी से है, जो अपने कज्जला रूप के कारण कज्जला देवी (कलुई माई) के रूप में जग-विख्यात हैं। जिस गीत को गाकर आदि देवी विन्ध्यवासिनी को उनके भक्तों ने प्रसन्न किया, उसे “कजली’ के नाम से पुकारा गया।
कजली का त्योहार मातारानी के जन्मोत्सव के अवसर पर होता है। इसी कारण प्राचीन काल से कजली को व्यापक लोक-मान्यता प्राप्त है। कजली रागिनी व गीत है। कजली त्योहार भी है, जिसे “कजली तीज’ के नाम से जाना जाता है। “कजली तीज’ भाद्र कृष्ण तृतीया को उत्तर-प्रदेश के पूर्वांचल के मिर्जापुर, चुनार, इलाहाबाद, कछवा, भदोही से लेकर मध्य-प्रदेश के सिद्घि हनुमान तक बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। इसका प्रचलन बिहार में भी है।
वैसे तो विन्ध्याचल मंडल स्थित विन्ध्यधाम में कजली उत्सव ग्रामीणजनों द्वारा पहाड़ी उत्सव के रूप में मनाया जाता है, जिसे मनाने एवं प्राकृतिक वैभव का आनंद लूटने के लिए शहरी लोग सावन-भादो के मास में विन्ध्याचल के पहाड़ों पर पहाड़ी-भोज (लिट्टी-बाटी-चोखा) का आयोजन कर “कजरी उत्सव’ का आनंद लेते हैं, किन्तु इसका मुख्य उत्सव भाद्र कृष्ण तीज अर्थात् कजली तीज को होता है।
कजरी (कजली) स्थानीय गॉंव की भाषा में गायी जाती है। कजरी की लोक-गीत यात्रा ने देवी-गीत से आगे बढ़कर मानव के लोकजीवन में भी गहरी छाप छोड़ी है। कजरी के गायकों ने अपने अखाड़ों से सामाजिक कुरीतियों को दूर करने, नायक-नायिकाओं को रिझाने से लेकर स्वतंत्रता-संग्राम में नौजवानों को आजादी के प्रति प्रेरित करने, अंग्रेजों के प्रति घृणा के भाव तथा स्वतंत्रता के प्रति सम्मान के भाव भरने में भी उपयोग किया है। कजरी ने विलासिता में लगे सम्पन्न वर्ग, रजवाड़ों से लेकर मजदूर किसानों तक को आजादी की लड़ाई के लिए तैयार किया। देश को आजादी दिलाने में कजरी के दीवाने गवैयों ने भी व्यापक योगदान किया। कजरी के मशहूर गायक पंडित मुन्नी लाल शर्मा को दर्जनों बार कजरी गाते समय जनता के मध्य से अंग्रेजी शासकों ने गिरफ्तार कर जेल भेजा।
कजरी के दिन गांव की सुहागिन स्त्रियॉं अपने-अपने घरों से गातीं-बजातीं एक स्थान पर इकट्ठा होकर गॉंव के कजरहां पोखरा से जमी (जरमी) के लिए मिट्टी लेने आती हैं। उसी दिन कजरी एवं हरितालिका की स्थापना होती है। हरितालिका (जरई) के रोपने के बाद नित्य स्त्रियॉं कजली गाती हैं तथा छाया में उसे उगाने का उपाम करती हैं। इसके संदर्भ में भविष्य पुराण में उल्लेख है कि युधिष्ठिर के प्रश्र्न्न के उत्तर में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, “”विष्णु भगवान के समक्ष नीलकमल पर विराजमान महादेव जी ने हास्यपूर्वक देवी को “काली’ कहकर पुकारा, जिससे कुपित देवी ने श्यामधूत शरीर को आग में जलाकर नष्ट कर दिया और हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लेकर पुनः भगवान शिव की अर्द्घांगिनी के रूप में विराजमान हुईं। इसीलिए हरिकाली की पूजा होती है।
भाद्र तृतीया को उगे गंध पुष्पादि, फल लेकर स्त्रियॉं उनकी पूजा कर रात में जागरण कर प्रातः जरई को जलाशय में विसर्जित करती हैं। इस प्रकार स्त्रियॉं अपने सुहागिन रहने के लिए तथा परिवार की सुख-समृद्घि के लिए देवी की आराधना कजरी (कजली) के माध्यम से करती हैं।
कजरि ऐसे ही देवी कजरिया हो ना,
कुण्डल झलकै लालि नजरियो हो ना,
भादव बदी द्वितीया गोकुल आइन हो ना,
छट्ठी के निमि विन्ध्याचल पर छाई हो ना,
जहॉं बसे तीरथ देव अवलिया हो ना।
प्राचीन काल से इसे ग्राम्यजन अपनी सहज अभिव्यक्ति के स्तर में खझड़ी बजा-बजाकर प्राकृतिक वैभव का आनंद लूटते थे। कालान्तर में कजरी की यात्रा बढ़ी, यह मनगढ़ंत अनपढ़ की भाषा से पढ़े-लिखे साहित्यकारों में भी सम्मानित हुईं।
– निर्विकल्प विश्र्वहृदय
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