धार्मिक-जीवन एवं साधनात्मक क्षेत्र में रहस्यात्मक अनुभूतियों का होना एक सहज एवं स्वाभाविक प्रिाया है। इससे उत्पन्न परम कोटि का संज्ञान संसार में प्रायः सभी धर्मों का लक्ष्य रहा है। यह वह संज्ञान है, जिसमें आत्मा, परमात्मा से एकता स्थापित करती है, इसीलिए रहस्यवाद को मानव की उस प्रवृत्ति की संज्ञा दी जाती है, जिसके द्वारा वह समस्त चेतना को परमात्मा अथवा परम सत्य के साक्षात्कार में नियोजित करता है तथा उस साक्षात्कार जन्य आनंद एवं अनुभव को आत्मरूप में समस्त जगत में प्रसारित करता है।
रहस्यवादी व्यक्ति नैतिक चरित्र, असाधारण ज्ञान, भावना तथा इच्छाशक्ति सम्पन्न होता है, जो निःस्वार्थ भाव से अपने सभी साधनों को एकमात्र परम सत्य परमात्मा की प्रत्यक्षानुभूति में नियुक्त करके उस परम सत्य के पराबौद्घिक और अतीन्द्रिय आनंद-आस्वादन की संभावना में विश्र्वास करता है और उसे प्राप्त करना चाहता है। इस प्रकार रहस्यवाद उस अनिर्वचनीय सत्य के प्रत्यक्ष का द्योतक है। यह सत्य अनुभवकर्ता का स्वयं प्रत्यक्ष होने के कारण उसके लिए सर्वाधिक सत्य होता है। उसकी सत्यता के लिए अन्य किसी प्रमाण की अपेक्षा नहीं होती। यह ज्ञान अथवा आत्म-संज्ञान साधारण भौतिक ज्ञान की अपेक्षा इतना अधिक स्पष्ट होता है कि साधक के लिए संदेह का कोई स्थान ही नहीं रह जाता।
यह प्रश्न किया जाता है कि क्या असीम तत्व के अनुभव को ससीम-बुद्घि व्यापार का विषय बनाया जा सकता है? क्या यह संभव है कि जिसे अरूप और अनाम तत्व माना जाता है, उसे रूपों और नामों के माध्यम से अनुभव किया जा सके? सामान्य मनुष्य का भी यही अनुभव है कि अरूप तथ्य विभिन्न रूपों में प्रतिभासित हो जाता है। माता जब प्यार से अपने पुत्र को चूमती है तो विशुद्घ आनंद की एक झलक मिल जाती है। प्रिया के नयनों में जब प्रिय को निःशेष भाव से आत्म-समर्पण करने की लालसा दिख जाती है तो इस रूप को आश्रय करके अगाध और अपार प्रेम-समुद्र की एक झांकी मिल जाती है। इन सबमें परमात्मा का स्वरूप होता है। विपत्ति में फंसे हुए किसी असहाय प्राणी की सहायता के लिए जब कोई अपने को संकटग्रस्त स्थिति में झोंक देने के लिए उल्लास से चंचल हो उठता है तो भगवान के निर्मल प्रेम-रूप का क्या परिचय नहीं मिलता? प्रेम-स्नेह, दया-माया और त्याग-तप में उस दिव्य-ज्योति का साक्षात्कार हमें नित्य ही मिलता है। श्रीमद्भागवत् में रहस्यात्मक अनुभूतियों का यही आधार है। मनुष्य के प्रेम-स्निग्ध आचरण में ईश्र्वरीय महिमा की झलक हम पाते हैं। भक्त चाहे निर्गुण-भाव का साधक हो या सगुण रूप का उपासक, भगवान के परम प्रेमी रूप को अवश्य स्वीकारता है। भगवान का अनुभव गम्य प्रेममय रूप ही श्रीमद्भागवत् में रहस्यवाद का केन्द्र बिन्दु है। भगवान केवल सत्तामय या केवल चिन्मय नहीं हैं। चिन्मय रूप तो उनका एक अंग मात्र है, जिसे तत्वज्ञानी “ब्रह्म’ कहते हैं। इसके अतिरिक्त भगवान का एक और ऐश्र्वर्यमय रूप है, जिसे परमात्मा कहा जाता है, जो पूर्ण रूप है, वह प्रेममय है। सगुण-मार्गी भक्तों द्वारा प्रतिपादित अवतार-सिद्घान्त भगवान के इसी प्रेममय रूप पर आधारित है, जो असीम को सीमा में उपलब्ध करने का एक सुलभ साधन है।
पवित्रताः वैष्णव आचार्यों ने प्रेम की पवित्रता में ही भगवान के वास्तविक रूप का अन्वेषण किया है। परम तत्व एवं श्रेष्ठतम पुरुषार्थ के रूप में ही आनंद अथवा भगवत्-प्रीति के स्वरूप का निरूपण किया गया। मानव का चरम लक्ष्य सुख की प्राप्ति एवं दुःख का विनाश होता है, जब भगवान संतुष्ट हो जाते हैं, तभी व्यक्ति दुःख के अंतिम विनाश एवं नित्य सुख की प्राप्ति कर सकता है। जीव परमेश्र्वर के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान न होने एवं माया से आवृत होने के कारण उसके सत्य स्वरूप को जानने में असफल रहता है तथा आत्मगत् उपाधियों से संबंधित हो जाता है और दुःख भोगता है, किन्तु जब भगवान के प्रति वह पवित्र प्रेम के बंधन को स्वीकार करता है, तब दुःखों का नाश करने में सफल हो जाता है। भगवान में प्रीति द्विविध स्परूप की हो सकती है। प्रीति, भगवान के प्रति वह स्पृहा हो सकती है, जो भगवान के सत्य प्रत्यय, विषय ज्ञान को उत्पन्न करती है, किन्तु भगवान में प्रीति की एक अधिक अपरोक्ष अनुभूति भी होती है, जो प्रत्यक्ष रूप से एक तीव्र भावात्मक स्वरूप की होती है।
इस प्रकार की “भक्ति’ ही “रति’ कहलाती है, जिसका वर्णन पवित्र प्रेम के रूप में किया जाता है। “भागवत्’ में वर्णित श्रीकृष्ण एवं गोपियों का प्रेम, पवित्रता की इसी कोटि का है। जो लोग इस प्रेम पर वासना का आरोपण करते हैं, भ्रान्त मतों का प्रतिपादन करते हैं। इस संदर्भ में प्रो. रानाडे का कथन है, “”कृष्ण का गोपियों के साथ कभी कोई वासनामय संबंध रहा हो, ऐसी कल्पना करना भी कठिन है। संभव यही प्रतीत होता है कि अपने रहस्यात्मक साक्षात्कार में प्रत्येक गोपी ने भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन किए और भगवान ने अपने आपको उन सबके सम्मुख इस प्रकार प्रकट किया कि सबने एक ही समय उनके आनंद का उपयोग किया। यह गोपियों की समाधिक रहस्यात्मक ब्रह्मानंद की स्थिति है। भगवान के साथ वासनामय संबंध संभव नहीं है और न ही रहस्यवाद में वासना के लिए कोई स्थान ही है।”
जीव-ब्रह्म-एकता-रहस्यवादी, सम्पूर्ण प्रकृति के लीला-विलास में एक परा-चेतना को अनुभव कर आनंदित होता है, साथ ही जीव और ब्रह्म की एकता पर विश्र्वास करता है। “भागवत्’ में जीव-ब्रह्म की एकता प्रतिपादित की गई है तथा पूर्ण काम अद्वैत में लीला-रहस्य से आनंद-प्रस्फुटन का सिद्घांत प्रतिपादित किया गया है।
“भागवत’ में रहस्यवाद का स्वरूप
पुराण के रूप में “श्रीमद्-भागवत’ का रचना-तंत्र ही रहस्यवादी पद्घति पर है। इस ग्रन्थ में कथाओं और संवादों का नियोजन रहस्यवादी जिज्ञासाओं के आधार पर किया गया है। “भागवत’ में जितने गुरु-शिष्य रूप संवाद के रूप में सत्संग का वर्णन है, उसमें आत्म-रति तथा अनात्म-विरति साधन-रूप तत्वों का परोक्ष या अपरोक्ष प्रत्याख्यान किया गया है। विदुर-उद्घव संवाद में श्रीकृष्ण के गोकुल, मथुरा, द्वारिकादि के चरिताख्यानों के संबंध में जिज्ञासा की गई है, जिसके समाधान स्वरूप कथा-श्रवण का सत्संग है। बाद के अवतरणों में उद्घव जी से तत्व-ज्ञान के संबंध में जिज्ञासा की जाती है, जिसका समाधान विदुर-मैत्रेय संवाद में है। कथा-जिज्ञासा उद्घव जी से शांत होती है तथा तत्व-जिज्ञासा मैत्रेय जी से। अतः “भागवत’ के कथा प्रसंगों का अर्थ अवतार-जीवन-चरित ही नहीं होना चाहिए, प्रत्युत इन प्रसंगों में साधक की भूमिका के अनुसार तत्व-कथा का भी रूप है। “भागवत’ के दशम स्कंध में शुकदेव मुनि लीला-कथा कहते हैं तो एकादश स्कंध में तत्व कथा का उपदेश करते हैं।
– डॉ. विजय कुमार शर्मा
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