दवाओं के विकास, परीक्षण तथा शल्य-चिकित्सा की विधियॉं विकसित करने में जानवरों का उपयोग लंबे समय से होता आ रहा है। हमारा जीवन सुरक्षित बनाने के लिए हम इन बेजुबान प्राणियों के जीवन से खेलते हैं तथा उन्हें ाूरतापूर्ण तरीके से उनके अंत की ओर धकेल देते हैं। दुनिया भर में हर साल प्रयोगशालाओं में 10 करोड़ से ज्यादा जीवों पर अध्ययन होता है। वैसे यह सही है कि कुछ प्रमुख दवाइयों का विकास, जानवरों पर प्रयोग किये बगैर भी शायद संभव था। लेकिन यह भी एक सर्वस्वीकार्य तथ्य है कि जीवों पर हुए अध्ययनों से अस्तित्व में आये टीकों ने चेचक से लेकर पोलियो तक का लगभग खात्मा कर दिया है। वर्तमान में एड्स का टीका बनाने के प्रयास चल रहे हैं। इसके लिए बंदरों को मानव एड्स वायरस के समान प्रकृति वाले एक वायरस से संामित किया जा रहा है।
उन्नीसवीं सदी के दौरान भी जंतु विच्छेदन विरोधी समूह, जीवों पर होने वाले किसी भी तरह के शोध के खिलाफ थे। हाल के दशकों में जानवरों के प्रति यह भावना और अधिक विकसित हुई है और इस विचार को पर्यावरणवादियों का भी पर्याप्त सहयोग मिला है। वैसे मूलभूत शोध अक्सर इस समूह के निशाने पर आते हैं। ऐसा इसीलिए होता है क्योंकि इन शोध कार्यों के फायदे स्पष्ट व प्रत्यक्ष नहीं होते या इनका उपयोग तत्काल ऩजर नहीं आता। अक्सर ये प्रयोग संबंधित विषय में उपलब्ध मौजूदा जानकारी में कोई इ़जाफा नहीं करते या इनका उद्देश्य पी.एच.डी. के शोध थीसिस लिखना मात्र होता है। इसी तरह दवाओं, कीटनाशकों, प्रसाधन जैसे रसायनों का पहला परीक्षण जानवरों पर होता है। हालांकि अलग-अलग प्रजातियों पर इनकी प्रतििायाएँ काफी भिन्न-भिन्न हो सकती हैं।
कई पश्र्चिमी देशों में जैव चिकित्सा अनुसंधान में जानवरों के इस्तेमाल को लेकर काफी जागरूकता पैदा हुई है। इन्सानों के लिए बनी दवाओं का जानवरों पर होने वाले परीक्षण को लेकर यह विशेष रूप से है। भारत में भी केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने पशुओं पर नयी दवाओं के परीक्षण, शोध व अनुसंधान के दौरान ाूरता बरतने व यातनाओं को नियंत्रित करने हेतु कुछ दिशा-निर्देश तय किये हैं। इनके हिसाब से सरकार ने पशुओं के प्रति ाूरता निवारण कानून 1960 में संशोधन किया है। गैर सरकारी संगठन और पशुओं पर परीक्षण की निगरानी कमेटी ने कुछ संस्थानों में परीक्षण की भयावह स्थिति देखी थी। इस कमेटी के अनुसार दिल्ली के एम्स में तो बंदरों को दीवारों पर टांग कर उन पर परीक्षण किए जाते रहे हैं। कुछ जानवरों के ऑपरेशन तो जीवित रहते ही किए गए और ऑपरेशन के बाद उनका पेट चीरा हुआ ही छोड़ दिया गया। सांप की दवा बनाने वाली संस्थाएँ तो घोड़ों का खून तब तक निकालती हैं, जब तक उनकी मौत नहीं हो जाती। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रख कर कुछ महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश बनाए गए हैं। इनके अनुसार जानवरों पर परीक्षण मानवीय जीवन बचाने के लिए ़जरूरी जानकारी संग्रह करने के लिए किया जाए या किसी महामारी को रोकने के लिए आवश्यक शोधों पर। परीक्षण हेतु सबसे पहले सबसे छोटे जानवर को चुना जाये, जैसे बंदरों और चिंपाजियों पर परीक्षण के बजाय पहले चूहों या खरगोशों पर परीक्षण किया जाये और ऐसा भी तब किया जाए, जब यह विश्र्वास हो जाये कि परीक्षण का परिणाम 95 प्रतिशत सफल होगा। परीक्षण में इस बात का ध्यान रखा जाये कि जानवरों को तकलीफ न हो। परीक्षण से पहले उसे दर्द निवारक दवा दी जाये या बेहोश किया जाये। जानवरों की देखभाल, ऑपरेशन के बाद उनका उपचार और फिर पुनर्वास की जिम्मेदारी संबंधित विभाग की होगी। यदि जानवर को परीक्षण के दौरान लकवा हो जाये या वह कभी चलने-फिरने लायक न रहे या उसे ऐसा दर्द रहे कि वह ठीक ही न हो पाये या परीक्षण के बाद में जानवर मानव जीवन के लिए खतरा बन जाये- तो उसे दया मृत्यु दी जाये। इन दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करने वाले संस्थानों पर पशुओं के प्रति ाूरता में कानून के तहत सख्त कार्रवाई की जायेगी। कार्रवाई में फैकल्टी की मान्यता रद्द करना भी शामिल है। हाल ही में इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च ने भी, पेटा के सौंदर्य प्रसाधनों हेतु जंतु परीक्षण पर रोक लगाने के विचार का अनुमोदन स्वास्थ्य मंत्रालय से किया है। हालांकि उन्होंने पूर्ण स्थगन से इन्कार किया है, सिर्फ जानवरों की संख्या में कमी की मॉंग की है।
इन सबके परिणामस्वरूप, चिकित्सा समुदाय व नियंत्रक एजेंसियों की बढ़ती जागरूकता के चलते प्रयोगशाला में जीवों के प्रयोग में 60 प्रतिशत तक कमी हुई है। शोध संस्थाओं में जानवरों के रख-रखाव के स्तर में सुधार आया है तथा इन संस्थाओं द्वारा मानवीय एवं दर्दरहित प्रयोगों को वरीयता दी जा रही है। इसके अलावा दवाओं की जॉंच में अब जैव तकनीकों को भी शामिल कर लिया गया है।
वैसे विज्ञान व चिकित्सा क्षेत्र में तरक्की के लिए जानवरों पर प्रयोग को पूरी तरह गलत नहीं ठहराया जा सकता। यदि कुछ गलत है तो वह है- प्रयोग के समय बरती गई असावधानियॉं एवं पशुओं के प्रति किया जाने वाला ाूरतापूर्ण व्यवहार। प्रयोग के दौरान इस नैतिक पक्ष को कभी ऩजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए कि अगर एक जीवन आनंद और दर्द की अनुभूति कर सकता है तो यह हमारा फ़र्ज बनता है कि हम उन्हें बेव़जह दर्द न दें।
– स्वाति शर्मा
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