यदि सामाजिक परम्पराएं एवं आदर्श अपनी ही जड़ें खोदने लगें, तो समाज के पास रह ही क्या जाएगा? पत्तों का अस्तित्व तब तक ही हरा-भरा है, जब तक वे वृक्ष की डालियों से जुड़े रहते हैं, शाख से टूटते ही उनके अस्तित्व पर प्रश्र्न्नचिह्न लग जाता है। आदिकाल से लेकर वर्तमान तक सभी समाज सुधारक बुद्घिजीवी इस विषय पर एकमत हैं।
पारिवारिक विशिष्टताओं में आज भी संयुक्त परिवार के महत्व को नकारा नहीं जा सकता फिर भी आधुनिक स्वच्छंदता की चाह में हो रहे पारिवारिक विखंडन एवं शहर की एकांगी आबोहवा ने आज व्यक्ति को ऐसे दोराहे पर ला खड़ा किया है, जहॉं उसकी सुरक्षा-व्यवस्था पर ही प्रश्र्न्नचिह्न लगने लगे हैं।
कौन नहीं चाहता कि वह भौतिक सुख-सुविधाओं से सम्पन्न हो। समाज में धन के बढ़ते प्रभाव के कारण जनमानस देह के वास्तविक सुख को भूलकर मात्र धनार्जन को ही जीवन का मुख्य उद्देश्य बना बैठा है। अधिकाधिक धन की प्राप्ति के लिए पारिवारिक आत्मीय रिश्ते उसके लिए बेमानी हो चुके हैं। यदि ऐसा न होता तो व्यक्ति अपने दाम्पत्य जीवन को दांव पर लगाकर मात्र धन के लिए भटकने हेतु विवश न होता। अन्तर्राष्टीय सेवा संस्थानों में विदेश यात्राएं करने वाले तथा विदेशों में बसकर अपने माता-पिता को सेवा सुख न देने वाली सन्तानें यह भूलने के लिए विवश न होतीं कि जिन माता-पिताओं ने अपनी त्यागमयी साधना की है, उस त्यागमयी साधना के बदले वे उन्हें एकाकीपन और असुरक्षा सौंप रहे हैं।
देश की राजधानी में एकाकी परिवारों एवं बुजुर्ग दम्पत्तियों की हत्याएं क्या यह सिद्घ नहीं करतीं कि ये अधिकांश घटनाएं अपनी जड़ों से कटने के कारण हो रही हैं। व्यक्ति ने अपने आत्मीय संबंध धन के सम्मुख गिरवीं रख दिए हैं। अपने ही परिवार में ऊँच-नीच का भाव रख कर व्यक्ति अपनों से अलग हो रहा है, वह अपनों को छोड़ कर गैरों को अपनाने का प्रयास करता है, बदले में अपनी मृत्यु का आलिंगन करने हेतु विवश हो जाता है। देश के एकाकी वृद्घों पर मंडराता मौत का खतरा उस घिनौने सच को उजागर करता है, जो सामाजिक परम्पराओं और आदर्शों के टूटने से उपजा है।
निःसंदेह सन्तान होने पर भी सन्तान सुख से वंचित बुजुर्ग दम्पत्तियों की वर्तमान दशा अधिकांशतः दयनीय है। भौतिकता के अंधे युग ने उन्हें भय एवं असुरक्षा के वातावरण में जीवन-यापन हेतु विवश कर दिया है। पुलिस एवं अन्य सुरक्षा बल इस सामाजिक समस्या के निवारण में कितने कारगर होंगे, कहा नहीं जा सकता। समय आ गया है कि जनमानस अपनी जड़ों से जुड़े, मानवीय सरोकारों एवं आत्मीय रिश्तों से उसका नाता हो, तभी जनमानस स्वस्थ, सामाजिक परिवेश में रह सकता है।
घुसपैठियों को आश्रय कब तक…
राष्ट की अपनी ही समस्याएँ कम नहीं हैं। सुरसा के मुँह की तरह आम आदमी को डंसती महंगाई, देश की कानून-व्यवस्था को धता बताते हुए स्थान-स्थान पर आतंकी विस्फोट, क्षेत्रवाद की राजनीति के चलते पूर्वोत्तर प्रान्तों व महाराष्ट में देश के नागरिकों के साथ किया जा रहा दुर्व्यवहार, कृषि क्षेत्रों में कम उपज व अकाल के कारण आत्महत्या हेतु विवश किसान सहित अनेक ऐसी समस्याएँ हैं, जिनसे राष्ट जूझ रहा है। इन समस्याओं के चलते राष्ट की समृद्घि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है, ऐसे में विदेशी घुसपैठियों की देश में उपस्थिति देश की अर्थव्यवस्था एवं कानून-व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव डालने में पीछे नहीं है।
कहना गलत न होगा कि संकीर्ण स्वार्थों के चलते राष्टीय एकता एवं अखंडता की अवधारणा को तिल-तिल खंडित करने का कुचा जारी है, यदि ऐसा न होता तो बांग्लादेशी घुसपैठियों को सरलता से देश में आश्रय नहीं मिल पाता। आज स्थिति यह है कि देश के कुछ शहरों में बांग्लादेशी घुसपैठियों की अलग बस्तियॉं हैं।
कुछेक घुसपैठियों को नागरिकता प्रदान करके खुलकर खेलने का अवसर प्रदान कर दिया गया है। धरपकड़ जैसी कोई स्थिति नहीं है, जिसके परिणामस्वरूप देश के विभिन्न भागों में बांग्लादेशी घुसपैठिए भारतीय अर्थव्यवस्था पर बोझ बनते जा रहे हैं। उन्हें देश से निकालने के लिए कारगर प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। यही स्थिति अन्य घुसपैठियों की भी है। देश की मिली-जुली संस्कृति का लाभ उठाकर घुसपैठिए भारतीय जनमानस में इतने अधिक घुल-मिल गए हैं कि उनकी पहचान करना भी टेढ़ी खीर हो गया है।
देश निर्धारित सीमाओं में बसे नागरिकों को सुख-सुविधाएँ देने हेतु बाध्य हैं। नीतियॉं भी राष्ट के नागरिकों के सर्वांगीण विकास को दृष्टिगत करते हुए बनाई जाती हैं किन्तु निर्धारित एवं वास्तविक नागरिकों से इतर विदेशी घुसपैठिए यदि भारतीय जनमानस में घुसपैठ करेंगे तो अतिरिक्त जनसंख्या का दबाव क्या भारतीय अर्थव्यवस्था को पंगु नहीं करेगा? भारतीय कानून-व्यवस्था को चुनौती देते घुसपैठियों की स्थिति से यह प्रश्र्न्न स्वयं स्फुटित है। निःसंदेह यदि बांग्लादेशी घुसपैठियों सहित अन्य विदेशी घुसपैठियों की पहचान कर उन्हें देश से नहीं खदेड़ा गया तो राष्ट को अपनी अस्मिता की पहचान बनाने के लिए जूझना पड़ सकता है, क्योंकि जो इस देश के नागरिक नहीं हैं, उन्हें राष्टीय अस्मिता एवं गौरव से भला क्यों कर कोई सरोकार होगा?
– डॉ. सुधाकर आशावादी
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