वर्षा का आना एक खबर है। वर्षा का नहीं आना उससे भी बड़ी खबर है। वर्षा नहीं तो अकाल की खबर हो जाती है। कल तक जो अकाल को लेकर चिल्ला रहे थे वे ही आज वर्षा के आगमन पर हर्ष की अभिव्यक्ति कर बाढ़-बाढ़ खेल रहे हैं। जो नेता-अफसर अकाल की सेवा में थे वे ही अब बाढ़ की व्यवस्था कर अपना घर भरने में लग गये हैं। आसमान में उमड़ते-घुमड़ते बादल, चमकती बिजली, मेघ गर्जन और तेज बौछारें मन को गीला कर जाती हैं। उदासी कहीं दूर पीछे छूट जाती है। मन-मयूर नाचने लग जाता है। सरकार में तबादलों की वर्षा है, पहाड़ों पर हरियाली है, प्रियतमा चूरमा खाने पहाड़ों की आड़ में चली गई है। यही तो समय होता है वर्षा के आगमन का। कालिदास मेघदूत लिखते हैं, ऋतु संहार में वर्षा का अलौकिक वर्णन करते हैं, और मन बौरा जाता है। वर्षा कभी स्वयं प्रेमिका बन जाती है, कभी मानिनी पत्नी बन जाती है, कभी स्वयं दूती सा व्यवहार करने लग जाती है, कभी मुग्धा नायिका की तरह हो जाती है तो कभी प्रौढ़ प्रगल्भा की तरह बनने-संवरने लग जाती है। कभी वर्षा सौतन हो जाती है तो कभी कठोर सास या फिर सावन के झूले पर बैठी इठलाती भारतीय परम्परागत नारी बन सबको लुभा लेती है। गीत, सावन की बूंदें, लहरिया, घेवर, चूरमा, आभूषण, वस्त्रालंकार, मेंहदी रचे हाथ, मुंह पर चांदनी की शोभा, मृणाल बाहों में झूलता झूला सब मिलकर वर्ष को वर्षा बनाते हैं।
मगर आज की वर्षा, हे भगवान। जो राज्य पानी के लिए लड़ रहे थे, वर्षा होते ही बिना मांगे पानी दे रहे हैं। कृष्णा-कावेरी से लेकर पंजाब की नदियों से पानी बिना मांगे मिल रहा है। आधी रात को बेला महकती है, वर्षा आती है। “सिया बिन तड़पत मन मोरा..’ रामचरित मानस में राम कहते हैं। और सिया की खोज में वानर सेना को लगा देते हैं।
वर्षा है तो मेंढक हैं, केंचुए हैं, हाथियों की चिंघाड़ है, वर्षा नहीं तो कोयल तक नहीं कूकती। रात को उमस की गरमी से परेशान रहता हूँ। सुबह आषाढ़ का बादल देख कर मन प्रसन्न होना चाहता है मगर अखबार में बाढ़ के समाचार देख कर वर्षा का हर्ष काफूर हो जाता है। मेघों से घिरा मैं स्वयं को बाढ़ से घिरा पाता हूँ। कुछ समझ में नहीं आता कि तन-मन क्यों अलसा रहा है, शायद वर्षा के स्वागत में मन अधीर है।
हवा में खुनक है, वो मन्द-मन्द बादलों को ले जा रही है। जलभरे बादल रंग बदल रहे हैं, गिरगिट की तरह या भारतीय राजनेताओं की तरह वे बहे चले जा रहे हैं। दिशाहीन नहीं हैं बादल। वे प्रिया के देश उड़ कर जा रहे हैं। मन है कि उनके पीछे भागता चला जा रहा है। तेज वर्षा के कारण, बादल फटने के कारण, बिजली गिरने के कारण, बाढ़ में बह जाने के कारण बस, गरीब ही मारा जाता है। चिड़िया दाना ढूँढ रही है, गरीब के आशियाने में पानी भर गया है क्योंकि वर्षा हो रही है। नदी, नाले, झीलें, तालाब, बांध सब में पानी ही पानी है। चारों तरफ से पानी बह कर वर्षा का आनन्द दे रहा है। वर्षा हो तो अच्छा लगता है। बच्चे उछलकूद कर रहे हैं। छत पर, सड़क पर, नालों में नंगे बदन नहा रहे हैं। कम उम्र लड़कियां भी नहा रही हैं। प्रौढ़ाएं उन्हें वरज रही हैं। मगर मन है कि मानता नहीं। वर्षा ऋतु का आना सर्वत्र साक्षी होता है। पेड़ों पर, जंगलो में, घरों में, तालाबों में सर्वत्र वर्षा दिखाई देती है। साक्षी ऋतु सर्वत्र हर्ष को बिखरा देती है। हे वर्षा! तुम मरूधरा की वसुन्धरा पर जमकर बरसो।
वर्षा में राजनीति ठंडी पड़ जाती है। अफसरी दुबक जाती है। छतें टपकने लग जाती हैं। साहित्य में सीलन आ जाती है। चोर-उचक्के नये-नये वितान तान कर अपने धन्धे पर चल पड़ते हैं।
वर्षा आई तो मन हर्षा। अफसर की बेबी बाढ़ में पिकनिक मनाने चल पड़ती है। सरकारी गाड़ी, सरकारी डाइवर, सरकारी पेटोल, सरकारी अरदली, सरकारी खानापीना। उन्हें बाढ़ सुन्दर, ब्यूटीफुल और क्यूट दिखाई पड़ती है। और गरीब की कच्ची बस्ती की मलिका के साथ फोटो खिंचवा कर अखबार में दे आती है। आह वर्षा! तुम्हारा ़जवाब नहीं। बाढ़ पीड़ितों के राहत के नाम पर चूरमा-बाटी की गोठ करो। बाहर मेंढक टर्र-टर्र कर रहे हैं। केंचुए अफसरों की शक्ल में सचिवालय में रेंग रहे हैं। बरसाती मेंढकों की तरह लोग समर्थन की विरुदावलियां गा रहे हैं। वर्षा ऋतु सबसे सुन्दर लगती है लोकगीतों में। इस सुन्दरता का बड़ा मनोहारी वर्णन है। मैं एक लोकगीत के अंश के साथ इस निबन्ध को समाप्त करने की इजाजत चाहता हूँ-
कच्ची नीम की निबौरी,
सावन कब आवेगो?
बाबा दूर मत दीजो हमकूं
कौन बुलावेगो?
हे वर्षा! मैं तुम्हारा फिर आठान करता हूँ। आओ और मुझे भिगो जाओ।
– यशवन्त कोठारी
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