सरकारी नीतियां हैं महंगाई न थमने का कारण

हाल में (17 जुलाई, 2008 को) जारी सरकारी आंकड़ों के अनुसार पिछले सप्ताह से भी आगे बढ़ती हुई महंगाई 11.91 प्रतिशत तक पहुँच चुकी थी। और अभी कुछ ही समय पहले यह 12 का आंकड़ा पार कर चुकी है। महंगाई को रोकने हेतु सरकार द्वारा अपनाये जा रहे सारे प्रयास विफल होते दिखाई दे रहे हैं। हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अपनाये गये मौद्रिक उपायों का रत्तीभर भी असर महंगाई पर दिखाई नहीं दे रहा। इस वर्ष वित्तमंत्री ने संसद में बजट प्रस्तुत किया तो मुद्रास्फीति की दर 6 प्रतिशत से अधिक हो चुकी थी और वित्तमंत्री का यह कहना था कि भारत में हो रही मुद्रास्फीति का मुख्य कारण है वैश्र्विक स्तर पर वस्तुओं की कीमतों में हो रही वृद्घि। अमेरिकी राष्टपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने कहा कि भारतीय अब पहले से ज्यादा खाने लगे हैं जिसके कारण देश में खाद्यान्नों की कमी हो रही है, और खाद्यान्नों की कीमतें बढ़ रही हैं। लेकिन जब सीमेंट, इस्पात और काग़ज की कीमतें बढ़ीं तो यह कहा गया कि कंपनियों ने “कार्टेल’ बना लिए हैं और इस प्रकार कीमतों में वृद्घि को अंजाम दिया जा रहा है। आजकल तो अंतर्राष्टीय बा़जार में कच्चे तेल की बढ़ती कीमतें अखबारों की सुर्खियां बनी हुई हैं, तो सरकार को यह समझाने में आसानी होती है कि कीमतों में वृद्घि कच्चे तेल की कीमतों में वृद्घि के कारण हो रही है।

आवश्यक वस्तुओं की कीमतें निरंतर बढ़ती जा रही हैं। सरकारी परियोजनाओं पर धनाभाव के कारण ग्रहण लगने की पूरी-पूरी आशंकाएं पैदा हो रही हैं। ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि एक ओर तो सरकार अपनी छवि न बिगड़ने देने के लिए महंगाई रोकने हेतु हरसंभव प्रयास कर रही है लेकिन फिर भी महंगाई को रोक पाना उसके लिए भी संभव प्रतीत नहीं हो पा रहा है। शायद यही कारण है कि वित्तमंत्री ने लगभग एक माह पहले राजनीतिक रूप से अपरिपक्व लेकिन सत्य बात कह डाली कि देशवासियों को अब बढ़ती कीमतों के साथ रहने की आदत बनानी होगी। प्रश्र्न्न यह है कि महंगाई आखिर थम क्यों नहीं रही?

महंगाई न थमने का पहला कारण है सरकार द्वारा कृषि की पूर्ण अनदेखी। आज से लगभग 20 वर्ष पहले तक कुल सरकारी खर्च का 27 प्रतिशत कृषि को मिलता था। उससे कृषि के संरचनात्मक ढांचे के विकास के साथ-साथ विभिन्न प्रकार की कृषि आगतों के लिए सरकारी सहायता का भी प्रावधान होता था। इसके साथ ही साथ सरकार किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य दिलाने हेतु स्व़यं कृषि वस्तुओं की भारी खरीदारी किया करती थी। लेकिन आज स्थिति यह है कि सरकार ने कृषि संबंधी समस्त कार्यों से अपने हाथ खींच लिए हैं जिसके चलते आज कृषि पर कुल सरकारी खर्च का मात्र 6 प्रतिशत ही आवंटित होता है। इसका प्रभाव यह होता है कि किसान को खाद, कीटनाशक, बीज इत्यादि तो महंगे खरीदने ही पड़ते हैं, साथ ही साथ उन्हें उनकी उपज के सही मूल्य की प्राप्ति भी नहीं हो पाती। कृषि में निवेश निरंतर घटता जा रहा है और किसान कृषि से बाहर होता जा रहा है। कहीं-कहीं अपनी किस्मत आजमाने के लिए किसान नकद फसलें (कैश ाॉप) भी लगाने की कोशिश में लगा दिखाई देता है। साथ ही कृषि योग्य भूमि पर गैर कृषि कार्यों हेतु विभिन्न परियोजनाएं भी बनाई जा रही हैं। यदि हम खाद्यान्न उत्पादन के आंकड़े उठाकर देखें तो पाते हैं कि प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उत्पादन पिछले 20 वर्ष पूर्व लगभग 460 ग्राम प्रतिदिन से निरंतर घटता हुआ अब तक 400 ग्राम प्रतिदिन से भी नीचे के स्तर तक पहुँच चुका है।

दूसरे, पूर्व में सरकार कृषि वस्तुओं विशेष तौर पर खाद्यान्नों की भरपूर खरीद करते हुए अपने पास बफर स्टाक रखा करती थी। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने अपने इस दायित्व से हाथ खींचना शुरू कर दिया है। बफर स्टाक होने पर सरकार कीमतें बढ़ने की स्थिति में अनाज का स्टाक बेच सकती है और कीमतों में वृद्घि को रोक सकती है। बफर स्टाक न होने की स्थिति में सरकार कीमतों को रोकने में असहाय दिखाई पड़ती है। हालांकि इस वर्ष महंगाई से घबराई सरकार ने सभी रिकॉर्ड तोड़ते हुए लगभग 230 लाख टन गेहूं की खरीद की है, लेकिन सरकार को अपने बफर स्टाक को पूर्व के स्तर पर ले जाने के लिए अभी भरसक प्रयास करने होंगे।

तीसरे, सरकार का भी यह कहना है कि इस्पात, सीमेंट और कागज कंपनियां “कार्टेल’ बनाकर कीमतों में वृद्घि को अंजाम दे रही हैं। सरकार ने इन कंपनियों को यह धमकी भी दी कि वे अपनी इस कार्यवाही से बाज आएं अन्यथा सरकार निर्यात पर रोक लगाने सहित कड़े कदम उठाएगी। लेकिन शायद कंपनियों को इस बात का अंदा़ज है कि सरकार किसी भी प्रकार से उन पर असर नहीं डाल सकती। इसलिए उन्होंने सरकार की बात को लगभग दरकिनार कर दिया। ध्यान रहे कि पूर्व में किसी भी उद्योग द्वारा एकाधिकारिक प्रवृत्तियों को रोकने हेतु एमआरटीपी एक्ट के अंतर्गत कार्यवाही का प्रावधान था। इस कानून को हल्का बनाते हुए एक दूसरा प्रतिस्पर्धी कानून बनाया गया। लेकिन पिछले छह वर्ष से पारित इस कानून को अभी तक लागू तक नहीं किया जा सका। इससे सरकार की एकाधिकारिक प्रवृत्तियों को रोकने के संबंध में इच्छाशक्ति का अभाव प्रत्यक्ष दिखाई देता है।

चौथे, वायदा बाजार केवल भारत में ही नहीं पूरे विश्र्व में महंगाई का एक प्रमुख कारण बन चुका है। लेकिन इस पर किसी भी प्रकार की रोक लगाने की सरकार की कोई नीयत नहीं है। हाल ही में गठित अभिजित सेन कमेटी ने गोलमोल सिफारिश देते हुए वायदा बा़जार को जारी रखने में अपनी भूमिका निभाई है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष तो खुले तौर पर वायदा बा़जार की वकालत करते दिखाई देते हैं। इसलिए वायदा बा़जार के कारण हो रही महंगाई से किसी प्रकार की निजात मिलने की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

पांचवें, मुद्रा के प्रसार में हो रही अभूतपूर्व वृद्घि ने तो सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। ध्यान देने योग्य है कि 31 मार्च, 2005 को देश में जनता के पास कुल करेंसी की मात्रा 3,55,663 करोड़ थी, जो तीन वर्ष 2 माह के बाद 31 मई, 2008 तक बढ़ कर 6,02,706 करोड़ हो गई। यह वृद्घि लगभग 70 प्रतिशत बनती है। मुद्रा की पूर्ति तो इससे भी कहीं अधिक बढ़ चुकी है। मुद्रा के इस अभूतपूर्व प्रसार के मुख्य कारण हैं अंधाधुंध विदेशी (प्रत्यक्ष एवं संस्थागत) निवेश, घाटे की वित्त व्यवस्था और गैर ़जरूरी सरकारी खर्च। यह बात हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री बखूबी जानते हैं कि मुद्रा की कुल पूर्ति और महंगाई में सीधा-सीधा संबंध होता है। शायद इसीलिए उन्होंने कीमतों में वृद्घि को रोकना अपना ध्येय तो बताया है लेकिन उनकी बातों में इसे रोक लेने हेतु किसी भी प्रकार की प्रतिबद्घता दिखाई नहीं देती। महंगाई को अगर रोकना है तो उन सभी बातों पर गौर करना होगा जो महंगाई के वास्तविक कारण हैं। वास्तविक कारणों पर चोट किए बिना केवल बयानबाजी से महंगाई की रफ्तार थमने वाली नहीं, यह बात सरकार को समझ लेनी होगी।

 

– डॉ. अश्र्विनी महाजन

You must be logged in to post a comment Login