पंजाब के वित्तमंत्री मनप्रीत सिंह बादल के अनुसार छठे वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने के लिए राज्य सरकार को 1500 करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ उठाना पड़ेगा। राज्य सरकार पहले से ही 1700 करोड़ रुपये का राजस्व घाटा झेल रही है। ़जाहिर है, वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने का बोझ सरकार की वित्तीय स्थिति को और ना़जुक बना देगा। पंजाब सरकार की इस ना़जुक वित्तीय स्थिति के लिए सरकार द्वारा किसानों को मुफ्त बिजली-पानी की आपूर्ति, आटा-दाल योजना आदि मुख्य रूप से ़िजम्मेदार हैं। वित्तमंत्री राज्य में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा ढांचे को बेहतर बनाने पर 3000 करोड़ रुपये का निवेश करने के हक में हैं। उन्हें राज्य में औद्योगिक क्षेत्र में निवेश लगभग ठप होने पर गहरी चिंता है। जहॉं पंजाब की औद्योगिक इकाइयां हिमाचल प्रदेश या हरियाणा की तरफ पलायन कर गयी हैं वहीं पंजाब में लम्बे समय से नये उद्योगों में कोई उल्लेखनीय निवेश नहीं हुआ है। वित्तमंत्री पंजाब का राजस्व घाटा कम करके निकट भविष्य में इसे 1000 करोड़ तक पहुँचाना चाहते हैं और सकल बजट घाटा 2.88 प्रतिशत तक लाना चाहते हैं। इसके लिए वह सब्सिडियों में कटौती करने और कुछ नये कर लगाए जाने के पक्ष में हैं परंतु मंत्रिपरिषद के ज्यादातर सदस्य इसके हक में नहीं हैं।
हाल ही में राज्यों के वित्त मंत्रियों ने 13वें वित्त आयोग के अध्यक्ष डॉ. विजय केलकर से मिलकर केन्द्रीय करों में राज्यों का हिस्सा बढ़ाने की मांग की है। लगभग सभी राज्यों की राय है कि केन्द्रीय करों में राज्यों का हिस्सा बढ़ाया जाना चाहिए। वर्तमान में केन्द्रीय करों-उत्पादन कर, आयकर, तटकर आदि में राज्यों का हिस्सा 30 प्रतिशत तथा केन्द्र का हिस्सा 70 प्रतिशत रहता है और राज्य सरकारें चाहती हैं कि राज्यों का हिस्सा बढ़ा कर 50 प्रतिशत कर दिया जाए। राज्य सरकारों के राजस्व में बिाीकर या मूल्य संवर्धित कर (वैट), आबकारी, यात्री कर, आबियाना (सिंचाई कर), भू-राजस्व, चुंगी तथा बिजली शुल्क आदि का योगदान होता है। कृषि आय पर कर लगाने का केन्द्र सरकार को अधिकार नहीं है और देश की लगभग 60 प्रतिशत ग्रामीण आबादी कृषि पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्भर होने के चलते केन्द्रीय करों के दायरे से बाहर है। पंजाब के वित्तमंत्री ने याद दिलाया है कि बिजली, सिंचाई, स्वास्थ्य, शिक्षा, कानून व्यवस्था राज्य सरकार की ़िजम्मेदारियां हैं और इसी आधार पर उन्होंने केन्द्रीय राजस्व में राज्य सरकारों का हिस्सा बढ़ाने की पैरवी की है।
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बार-बार इसी तरह की मांग की है। देश के राज्यों में केन्द्रीय करों में सबसे ज्यादा योगदान के बावजूद केन्द्र द्वारा गुजरात से सौतेले व्यवहार के उनके तर्क से सहमत होना उसी तरह मुश्किल है जैसे पंजाब के वित्तमंत्री के तर्क से। गुजरात, हरियाणा या हिमाचल की राज्य सरकारों की आर्थिक स्थिति पंजाब की सरकार से बेहतर है, यह मानने के बाद राज्य सरकारों द्वारा राजस्व संग्रह के रिकॉर्ड की समीक्षा करें तो कुछ आश्चर्यजनक निष्कर्ष सामने आएंगे। जहॉं पंजाब सहित ज्यादातर राज्य सरकारें कर राजस्व की उगाही के अपने अधिकार का इस्तेमाल करने में संकोच करती हैं वहीं राज्य सरकार के ख़जाने में आए राजस्व तथा केन्द्रीय करों में हिस्से के रूप में मिली धनराशि का इस्तेमाल करने के मामले में भी ज्यादातर राज्य सरकारें जवाबदेही और ़िजम्मेदारी का प्रदर्शन नहीं करतीं। हाल ही में हरियाणा सरकार द्वारा मंत्रियों के परिवारों के लिए सरकारी खर्च पर महंगी कारें सुलभ कराने का फैसला हो या मंत्रियों व जनप्रतिनिधियों के वेतन-भत्तों में उदारतापूर्वक वृद्घि-ऐसे फैसलों से यह लगना स्वाभाविक है कि सरकारें करदाता से मिले धन को खुद पर खर्च करने में विशेष रूप से उदार हैं।
ज्यादातर राज्य सरकारें स्थानीय स्तर पर अपना राजस्व ब़ढ़ाने से परहे़ज करती दिखायी पड़ती हैं। भू-राजस्व, सिंचाई कर, गृहकर आदि की मद में राज्य सरकारों को मिलने वाले राजस्व के आंकड़े देखें तो यह आसानी से समझा जा सकता है कि राज्य सरकारों को केन्द्रीय करों में अपना हिस्सा बढ़ाने की मांग करने की ़जरूरत क्यों महसूस होती है। अपने ग्रामीण वोट बैंक को नारा़ज नहीं करने के लिए राज्य सरकारों द्वारा जहॉं कृषि आय पर कर लगाने के अधिकार का देश में शायद कहीं भी इस्तेमाल नहीं किया जा रहा वहीं ज्यादातर राज्यों में खेती के लिए सस्ती बिजली या मुफ्त बिजली का चलन भी इसी सोच के हिस्से के रूप में देखा जाए तो गलत नहीं होगा। राज्य सरकारों द्वारा सार्वजनिक स्वास्थ्य, स्कूली शिक्षा, कानून व्यवस्था के प्रबंधन की बदहाली देखें तो यह निष्कर्ष भी लगभग सर्वसम्मत होगा कि प्रायः अपनी सुविधाओं के प्रति सजग सत्ताधारी जनप्रतिनिधि अपने कर्त्तव्यों को ज्यादा गंभीरता से नहीं लेते। इसलिए केन्द्रीय करों में राज्य सरकारों का हिस्सा बढ़ाने का तर्क स्वीकार कर लिए जाने की स्थिति में भी सरकारी संस्थानों की कुशलता बढ़ने की उम्मीद लगाना ज्यादा सही नहीं होगा।
अंग्रे़जी शासन से पहले के दौर में कराधान तथा करदाता के पैसे के इस्तेमाल की व्यवस्था को देखें तो राज्यों तथा केन्द्र के बीच राजस्व की हिस्सेदारी और सरकारों की जवाबदेही की एक वैकल्पिक पद्घति पर गंभीरता से विचार की गुंजाइश सामने आती है। कर के रूप में गांव के पूरे उत्पाद के मूल्य में से 10 प्रतिशत स्थानीय स्तर पर पंचायतों द्वारा इकट्ठा किया जाता था। इस राशि का 90 प्रतिशत पंचायत द्वारा ग्रामसभा की सार्वजनिक तथा सामूहिक निगरानी में तयशुदा कामकाज पर खर्च किया जाता था। शेष 10 प्रतिशत 24 या 31 गांवों की (चौबीसी या बत्तीसी) पंचायत के पास जाता था और इस राशि में से 90 प्रतिशत चौबीसी या बत्तीसी के इलाके के अंदर सर्वसम्मत फैसले के अनुरूप पंचायत की निगरानी में खर्च किया जाता था। चौबीसी या बत्तीसी के पास आए राजस्व में से 10 प्रतिशत मंडल स्तर पर इकट्ठा होता था तथा इसका 90 प्रतिशत मंडल की परिधि में पूर्व निर्धारित सेवाओं पर खर्च होता था। ऐसी व्यवस्था में शासक या अधिकारी द्वारा कर राजस्व के दुरुपयोग या करदाता द्वारा कर चोरी की गुंजाइश बेहतर तथा प्रत्यक्ष निगरानी के चलते बहुत थोड़ी ही रह जाती है।
राजशाही को अपेक्षाकृत निरंकुश शासन व्यवस्था के रूप में देखा जाता है, पर यदि आज की लोकशाही व्यवस्था में उस दौर की अपेक्षा ज्यादा मनमानी, कर चोरी, कर राजस्व की फ़िजूलखर्ची तथा भ्रष्टाचार दिखायी देता है। अतः स्थिति सुधारने के लिए शासनतंत्र में सुधार की ़जरूरत स्पष्ट है। सूचना के अधिकार संबंधी कानून तथा वित्तीय अनुशासन की कानूनी व्यवस्था जैसे प्रावधानों के बावजूद आम आदमी द्वारा शासन चलाने के लिए दिए गए करों के बदले में उसे सुशासन नहीं मिलता तो लोकतंत्र में जवाबदेही की व्यवस्था और म़जबूत करने तथा जनप्रतिनिधियों से जवाब मांगने के मतदाता के अधिकार का इस्तेमाल और असरदार बनाना ़जरूरी है। हाल में लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के लिए मतदाता को अधिकार देने की बात दुहरायी है। इसे लागू करना तकनीकी अड़चनों से भरा होने तथा मुश्किल होने की बात भी पहले से कही जाती रही है। जनप्रतिनिधि अपना काम ईमानदारी से करें इसके लिए समुचित व्यवस्था मुश्किल हो तो भी हर हाल में इसे लागू किया जाना चाहिए। यह लोकतंत्र को सुशासन बनाने के लिए निहायत ़जरूरी है।
– अशोक मलिक
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