टाटा समूह के चेयरमैन रतन टाटा की एक विज्ञप्ति प.बंगाल के कुछ अखबारों में प्रकाशित हुई है। विज्ञप्ति में उन्होंने जनता, खासकर युवाओं से सुनिश्र्चित करने को कहा है कि वे अपने भविष्य के लिए किस तरह का बंगाल चाहते हैं। टाटा ने इंगित किया है कि उनके सामने दो ही विकल्प हैं। एक तो यह कि वे मुख्यमंत्री बुद्घदेव भट्टाचार्य की विकासवादी सोच को समर्थन देकर राज्य का अधिकाधिक औद्योगिक विकास करें और दूसरा यह कि वे विपक्ष की नेता ममता बनर्जी की विध्वंसक राजनीति को समर्थन देकर राज्य को पिछड़ेपन की सूची में बनाये रखें। अपने इस पत्र में टाटा ने उन सारी परिस्थितियों का खुलासा किया है, जिनकी वजह से उन्हें सिंगूर स्थित अपना नैनो कारखाना स्थानांतरित करना पड़ा है। बकौल टाटा, इस परियोजना के खिलाफ तृणमूल कांग्रेस की नेत्री ममता बनर्जी ने जिस हिंसात्मक वातावरण का निर्माण किया उसके चलते इसके अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प शेष नहीं था।
टाटा की प. बंगाल की जनता के नाम लिखी गई यह चिट्ठी सिर्फ दो कोणों पर टिकी है। एक कोण पर तो उन्होंने उन कारणों को गिनाया है जिनके चलते उनकी “नैनो’ को विस्थापित होना पड़ा है और दूसरे कोण पर मुख्यमंत्री की प्रशंसा तथा ममता बनर्जी की निन्दा रेखांकित होती है। अपने दूसरे कोण पर उन्होंने बुद्घदेव भट्टाचार्य के प्रति जितनी अधिक सदाशयता का परिचय दिया है, उसके समांतर और उससे भी कुछ ज्यादा कटुता ममता बनर्जी तथा उनके सहयोगियों के प्रति उजागर हुई है। इस संदर्भ में अगर तृणमूल कांग्रेस के लोग टाटा की इस चिट्ठी को राजनीति-प्रेरित बता रहे हैं तो उनके इस कथन को गलत सिद्घ नहीं किया जा सकता। सही अर्थों में यह चिट्ठी अपनी भाषा और कथ्य के कलेवर में एक चुनावी अपील से ज्यादा कुछ नहीं लगती। उनकी इस अपील पर तृणमूल कांग्रेस की ओर से बड़ी तीखी प्रतििाया व्यक्त की गई है। उसका कहना है कि टाटा का यह आरोप कि ममता बनर्जी विध्वंस की राजनीति कर रही हैं, स्वयं राजनीति से प्रेरित है और एक खास व्यक्ति तथा उसकी पार्टी को राजनीतिक फायदा पहुँचाने के लिए प्रायोजित किया गया है।
यह माना जा सकता है कि टाटा और उनकी महत्वाकांक्षी लखटकिया कार के साथ प. बंगाल में जो कुछ हुआ वह अनुचित भी है और पीड़ादायक भी। टाटा समूह को इस विस्थापन से जो आर्थिक नुकसान हुआ है, वह तो हुआ ही है, इसके अलावा आटोमोबाइल की दुनिया में जिस ाांतिकारी उपलब्धि के प्रति वे अत्यधिक आशान्वित और आश्र्वस्त थे, उसे समय से पूरा न कर सकने का दुख भी उनके मन को जरूर साल रहा होगा। सही यह भी है कि इतने बड़े उद्योग समूह के विस्थापन से प.बंगाल के औद्योगिक विकास को भी मामूली धक्का नहीं लगा होगा। लेकिन यह भी सच है कि इन सबकी एकमात्र जवाबदेही सिर्फ ममता बनर्जी पर ही नहीं डाली जा सकती। समस्या को उलझाने में और उसका ऐसा समाधान खोजने में जो सबके हित में हो तथा सबको स्वीकार हो, लगभग हर पक्ष ने कम या ज्यादा अपनी नकारात्मक भूमिका निभाई है। इसलिए किसी एक को दोषी बताकर दूसरे को “क्लीन चिट’ देना न उचित होगा और न ही तर्कसंगत। बुद्घदेव भट्टाचार्य और ममता बनर्जी के राजनीतिक अहम् ने जितना इस समस्या को उलझाने में अपनी भूमिका निभाई है, उतनी ही भूमिका टाटा की व्यावसायिक चालाकी ने अपनी जिम्मेदारी को दूसरे के हिस्से में डालकर निभाई है। सिंगूर में क्या होने वाला है इसका संकेत उसी समय मिल गया था जब किसानों की जमीन राज्य सरकार का सहारा लेकर औने-पौने दाम पर हड़पी गई थी। टाटा को यह नहीं भूलना चाहिए कि तब किसानों पर बुद्घदेव भट्टाचार्य की जनवादी पुलिस को गोलियां भी चलानी पड़ी थीं और इसके चलते कई किसानों की जानें भी गई थीं। लेकिन रतन टाटा ने बखुद किसानों की इस पीड़ा को राज्य सरकार के हवाले कर अपना दामन साफ बचा ले जाने की नीति अपनाई थी।
टाटा को औद्योगिक विकास की चिन्ता है। उन्हीं के नक्शे-कदम पर बुद्घदेव भट्टाचार्य को भी यही चिन्ता सता रही है। अगर ऐसा है तो इसे गलत भी नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन सोचने की बात यह भी है कि क्या सिर्फ औद्योगिक विकास को ही विकास की अंतिम गारंटी मान लिया जाये? क्या सिर्फ नैनो कार पर सवारी करके ही आदमी संतुष्ट हो जाएगा? क्या उसे पेट की आग बुझाने के लिए रोटी की दरकार नहीं होगी? अगर होगी तो जवाब इस बात का भी देना होगा कि यह रोटी किस कारखाने में पकेगी? क्या टाटा के कारखाने अनाज पैदा करने की कूबत रखते हैं? यह सवाल आज हमारे देश की अर्थव्यवस्था के सलीब पर टंगा है। औद्योगिक विकास की उपेक्षा नहीं की जा सकती लेकिन उसे कृषि विकास की कीमत पर स्थापित करना देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ होगा। यह मुद्दा चुनावी मुद्दा नहीं है। यह मुद्दा आदमी की भूख से जुड़ा मुद्दा है। जिस तरह देश खाद्यान्न संकट से गुजर रहा है, उसे देखते हुए कृषि और औद्योगिक विकास को संतुलन में खड़ा करना होगा। सिर्फ ममता बनर्जी को कोसने से काम नहीं चलेगा।
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