आज घर-घर में यह देखने को मिल रहा है कि एक छोटे बच्चे के हाथ में टी.वी. का रिमोट पकड़ा दिया जाता है। बच्चा टी.वी. सीन पर छोटी से लेकर बड़ी-बड़ी बातें देखने और सुनने का अभ्यस्त हो जाता है। यह स्थिति नगरों और महानगरों में कुछ ज्यादा ही देखने को मिल रही है। शुरू में तो माता-पिता या घर के सदस्य खेल-खेल में रिमोट पकड़ाते हैं कि वह पड़ोसी से सीना तानकर कह सकें कि उनका इतना छोटा बच्चा टी.वी. हेंडिल करना सीख गया है, लेकिन जब वह धीरे-धीरे मास्टर बनने लगता है अर्थात हर समय टी.वी. खोलना उसे सुहाने लगता है, तब मना करने या नियंत्रण करने पर अभिभावक रोना-पीटना शुरू कर देते हैं। छोटे-छोटे बच्चों की आंखों पर चश्मा लगने का एक कारण उसके हाथ में रिमोट पकड़ाना भी है। यदि माताएं, दादियां, ताइयां, चाचियां या घर के अन्य सदस्य उसे ज्ञानवर्धक कहानियां, कविताएं आदि सुनाते, तो उसका ध्यान टी.वी. की ओर इतना जाता ही नहीं। जब घर के बड़े सदस्यों का ही टी.वी. पहली पसंद बन गया है तथा उन्हें पत्र-पत्रिकाओं और सत्साहित्य पढ़ने से एलर्जी हो गई है, तब बच्चों से सत्साहित्य पढ़ने की अपेक्षा कैसे रख सकते हैं।
पहले बड़े सुधरें, तभी भावी पीढ़ी को भी सुधारा जा सकता है। हम तात्कालिक सुविधाभोगिता में अपने आज और कल को नष्ट करने में तुल गए हैं। यदि इसमें सुधार लाना है तो घर में पढ़ने-पढ़ाने का शौक अवश्य डालना चाहिए। यह बंगाल आदि राज्यों में आज भी चल रहा है। वहां के लेखक गरीबी में नहीं मरते हैं और समाज के लिए अपनी उपयोगिता सिद्घ करते हैं। बच्चों के मनोविज्ञान से संबंधित कुछ उदाहरणों के माध्यम से यह बात और समझ में आ जाएगी।
पहला उदाहरण- एक बच्चा चौथी कक्षा में एक अंग्रेजी पब्लिक स्कूल में पढ़ता था। उसने एक दिन अपनी कक्षा की सहपाठिनी को कक्षा में ही मौका देखकर पकड़ लिया। वह चिल्लाई। कक्षा-अध्यापिका और सारे बच्चे इकट्ठे हो गए। चूंकि अपराध करने वाला बच्चा छोटा ही था, उसे यह नहीं मालूम था कि ऐसा करने से क्या बखेड़ा हो जाएगा। उस बच्चे को धमकाने या मारने-पीटने के बजाय प्यार से पूछताछ की गई तो उसने कहा, “”ऐसा तो रोज मेरी मम्मी से अंकल करते रहते हैं।” पता चला कि उसकी मां के कई पुरुषों से नाजायज संबंध हैं। बच्चे का पिता विदेश में रहता है। बच्चे ने जो देखा, वही उसने अपनी सहपाठिनी से करने का प्रयास किया। यही है बच्चों का मनोवैज्ञानिक सत्य, जिसे हम नहीं समझना चाहते हैं।
दूसरा उदाहरण- एक अंग्रेजी विद्यालय की छठवीं कक्षा में कुल चौदह बच्चे पढ़ रहे थे। संयोग से उनमें सात लड़कियां और सात लड़के थे। जिस समय कक्षा में कोई शिक्षक नहीं रहता था, उस समय लड़के व लड़कियॉं आपस में हंसी-मजाक किया करते थे। ये हंसी-मजाक एक दिन सच में बदल गया। उन्होंने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया। वे कपड़े उतार कर एक-दूसरे से लिपट गए। कुछ देर पश्र्चात ही कक्षा-अध्यापक आया। उसने दरवाजा पीटा। लड़के-लड़कियां हड़बड़ा गए।
दरवाजा भड़भड़ाने के कारण चिटकनी संयोग से खुल गई और शिक्षक हतप्रभ रह गया। सब बच्चों से अलग-अलग प्राचार्य ने डांट-फटकार और प्यार से पूछताछ की तो पता चला कि अधिकतर बच्चों ने टी.वी. से ऐसा सीखा और घर में मां-पिता को भी आपत्तिजनक स्थिति में कई बार देखा। बच्चा जो देखता है, चाहे वह टी.वी. से, अपने घर से या अपने संगी-साथियों से, वह उसे वैसा ही करने का प्रयास करता है।
तीसरा उदाहरण- एक साहब अपने बच्चे को कक्षा तीन में एक स्कूल में प्रवेश दिलाने के लिए गए। वहां उन्हें चपरासी मिला। उसने प्रधानाचार्य के कमरे की ओर इशारा किया। संयोग से वह वहां मौजूद नहीं थे। वे साहब एक कक्षा की तरफ आए। वहां बहुत शोर हो रहा था। तब तक चपरासी ने प्रधानाचार्य को ढूंढ़कर बताया कि आपसे कोई मिलने आए हैं। प्रधानाचार्य उस ओर आए, जिधर वे साहब खड़े थे। जब उन्होंने कक्षा में शोर देखा तो पहले वे कक्षा के अन्दर गए। बच्चों को अच्छी-अच्छी गालियां परोसते हुए, उन्होंने शोर बंद करा दिया। अब उन साहब से पूछने लगे कि आपको क्या काम है? तो उन साहब ने कह दिया कि मैं गलती से यहां चला आया था। उन्होंने बच्चे के प्रवेश के बारे में फिर पूछा ही नहीं। जब शिक्षक गालियों से बात करेगा तो बच्चे तो सीखेंगे ही।
-राकेश “चा’
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