इस बड़े शहर में टांसफर हुआ तो मन में एक उत्साह-सा जागा, चलो पहली बार किसी बड़े शहर में रहने को मिलेगा। रुकी-सी जिंदगी और इच्छाओं को शायद कोई नयी दिशा मिल जाये। सोशल वर्क में मास्टर डिग्री यूं ही अलमारी में बंद पड़ी है। बचपन से एक इच्छा थी कि दूसरों के दुःख-दर्द बांटूं। उनकी पीड़ा में सहानुभूति के शब्दों का मलहम लगा सकूं। मां को अक्सर अपने आसपास की दुनिया में ही चुपचाप समाज-सेवा करते देखा था। कभी वह महरी के बच्चे के बीमार होने पर साड़ी की तह में छुपाकर रखे रक्षाबंधन के पैसे उसे पकड़ा देती, “”ले दवाई में कसर मत करना” कहते हुए। तो कभी आंगन बुहारने वाली नुसरत बी के साल के साल होने वाले बच्चों के लिये जापे-जचगी के सामान दे देतीं।
बाबूजी मां के इन तर्कों के आगे निरुत्तर हो जाते। अकेले में कहते, “”कैसी भोली है। अरे! अपने लिये कभी कुछ नहीं मांगती, मांगती है तो बस इन लोगों के लिये।” मां का तर्क होता, “”उनके पास क्या है, हमें जो देंगे? बीमारी-तिमारी में थोड़ा उन्हें दे दिया तो क्या?”
पिता जी जानते थे, बस यूं ही इन औरतों के हाथ से कुछ निकल जाता है, जो आड़े वक्त पुण्य बनकर सामने आ जाता है। मां का कहना होता था कि मुसीबत में दिया -लिया ही आड़े आता है।
समाज-सेवा का यह मां से मिला संस्कार ही था, जिसको मैं भी आंगन में पंछी के लिये बाजरा डालकर या अपने डाइवर, महरी, चौकीदार, आदि के कहे किस्सों पर द्रवित हो थोड़ा-बहुत बांटकर पुण्य बटोरती। सोचती, मां के पुण्य हमारे ऊपर फले हैं। कल हमारे बच्चे भी सुखी रहें … बस और क्या चाहिए।
महानगर में आयी तो समाचार-पत्रों में तरह-तरह के समाज-सेवी संगठनों के कार्यों का बढ़-चढ़कर वर्णन और सजी-धजी समाज-सेविका की फोटो मुझे भी आकर्षित करने लगी। एक दिन इनको लेने व छोड़ने आने वाली सरकारी गाड़ी का डाइवर दोपहर में आया। उसकी बीमार पत्नी के एक्स-रे के लिए मैंने बिजली के बिल के सात सौ रुपये उसको उधार दे दिये। चार दिन बाद लाइनमैन आया और हमारे घर का कनेक्शन काटकर चला गया। अब याद आया कि बिजली का बिल नहीं भरवा पायी। शाम घर में अंधेरा देख पति ने सवाल किया, “”बिजली के बिल के पैसे तुमने अलग रखे थे न, बिल भरवाया या नहीं – ये कनेक्शन क्यों कट गया? क्या हुआ पैसों का?” पति की आवाज में तरेरी थी। “”कुछ नहीं, वह अपना डाइवर है न भंवरीलाल उसे जरूरत थी बेचारे की बीवी को टीबी है छोटे-छोटे बच्चे हैं, उसके एक्स-रे के लिए उधार दिये हैं, पगार मिलते ही दे देगा।” “”ओह! तो इस बार उसने तुम्हें बेवकूफ बनाया है।”
“”कैसी बातें करते हो? बेचारा परेशान था। रो दिया था बताते हुए।”
“”और तुम उसके आंसुओं में पिघल गयीं !” “”सात सौ रुपये दिये हैं, कोई घर नहीं लुटा दिया है। सुख-दुःख तो सब पर पड़ता है। दे देगा।”
“”घर में अंधेरा कर तीर्थ करना छोड़ो। यह शहर है।”
“”अपनी मर्जी से तो कुछ कर ही नहीं सकती। लोगों को देखो कितना कुछ करते हैं। यहां तो एमएसडब्ल्यू की डिग्री लेकर भी..! कल ही तो अखबार में खबर छपी थी कितने बच्चों का इलाज करवा रही हैं, वह क्या नाम है उसका….” “”कौन मदर टेरेसा?” “”अरे नहीं, हेल्थ एण्ड चाइल्ड एजूकेशन टस्ट की संचालिका पद्मा भारती। रोज ही उनकी फोटो छपती है। वह भी तो पैसों की व्यवस्था करती होंगी… उनके पति अगर आपत्ति करें, तो काम कैसे करेंगी?”
“”भाग्यवान वो अपने या अपने पति की जेब से नहीं करतीं समाज-सेवा। समाज-सेवा की दुकान चलाती हैं वह। दूसरों के पैसों से सेवा करती हैं। उसका पति तो एक साधारण-सा सेल्सटेक्स इंस्पेक्टर है।”
पति की बात से बिजली कटने का पछतावा भी हुआ और समाज – सेवा के इस नये तरीके ने अपना प्रभाव भी छोड़ा। बात आयी-गयी हो गयी। वेतन मिलते ही भंवरीलाल आधे पैसे लौटा गया। एक दिन बबली के स्कूल से निमंत्रण-पत्र मिला, पेरेंट्स मीट है। मुख्य अतिथि के रूप में सुप्रसिद्घ समाज-सेविका पद्मा भारती का नाम फिर उत्साह जगा गया।
मन ही मन पद्माजी की जगह स्वयं को देखने की इच्छा जागने लगी। मीटिंग में पद्मा जी की गतिविधियों की जानकारी के बाद काफी सराहना होती रही। पद्माजी शहर की स्थितियों पर जबरदस्त पकड़ रखती हैं। धारा प्रवाह बोलती हैं, क्या हिन्दी क्या अंग्रेजी? देखने लायक होता है उनका वागप्रवाह। मंत्रमुग्ध कर देती हैं, लोगों की नब्ज जानती हैं। कमजोर नब्ज पर ही वार करती हैं और बच्चों को लेकर बड़े से बड़ा पत्थर-दिल इनसान भी भावुक हो जाता है। वे कड़क कलफ लगी सिल्क की रोल्ड साड़ी ही पहनती हैं। कार्याम समाप्त हुआ तो मैं अति उत्साही हो उनसे मिलने गयी। उन्होंने अपनी विशिष्ट क्लोजअपी मुस्कान के साथ मेरा अभिवादन स्वीकारा। “”आपको अखबारों और न्यूज चैनलों पर देखती हूं। आपसे मिलने का बड़ा मन था।”
“”अच्छा-अच्छा तो आइए हमारे अगले प्रोग्राम में।” उन्होंने एक पेम्पलेट पकड़ा दिया और साथ में अपना कार्ड भी। उनके अगले कार्याम का मुझे बेसब्री से इंतजार था। मैं पहुंच गयी कार्याम में। एक इच्छा बलवती होने लगी कि इसी संस्था से जुड़कर शायद मैं कुछ पुण्य कमा लूं। वे मंजे हुए अभिनेता-सी हर भाव चेहरे पर लाती हैं। कहीं भी उनसे चूक नहीं होती। दस-बारह उनकी अनुयायी महिलाएं हैं। एक ही डेस कोड में हर कार्य के लिये उनके निर्देशों का पालन कर रही होती हैं। वे अपनी समाज-सेवा पर सधा हुआ भाषण देतीं। लोगों से अपील करतीं कि “”आपको तो इतना दिया है ईश्र्वर ने, आप थोड़ा उनके लिये दीजिए, जो दर्द को ओढ़ते और पीड़ा को बिछाते हैं। उन बच्चों के लिए जो हमारे भावी कर्णधार हैं। कुपोषण के शिकार इन बच्चों को क्या आप देश का भविष्य सौंपना चाहेंगे? देश को पहले स्वस्थ बच्चे दीजिए। ज्यादा नहीं देना है आपको बस अपने बच्चे के साथ एक और बच्चे के लिए थोड़ा-सा सोचना है। आपको और कुछ नहीं करना है, करने के लिए तो हम हैं न। आप हमारे सहयोगी बनें। हम विद्यावती कान्वेंट स्कूल में गये तो दिल खोलकर लोगों ने हमारी मदद की। उन पैसों से हमने पचास बीमार बच्चों का इलाज करवाया और 40 को स्कूल की सामग्री दिलवाई। इस बार कुछ और बच्चे आपकी ओर अपेक्षा भरी नजरों से देख रहे हैं। आगे आइए।”
भीड़ में से एक पत्रकार ने प्रश्र्न्न किया, “”आप बच्चों के लिये ही समाज-सेवा क्यों करती हैं? इसकी प्रेरणा कहां से मिली।”
– स्वाति तिवारी
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