भारतीय संसद के 272 ऐसे सांसद होंगे जो 22 जुलाई, 2008 को देश की लुटिया डुबोयेंगे। चाहे सरकार बचे या जाये, दोनो ही परिस्थितियों में देश का ही नुकसान होगा। यह नुकसान परमाणु करार के पक्ष या विपक्ष का नहीं है। यह नुकसान तो देश की लोकतांत्रिक गरिमा पर आधारित है कि आगे देश की संवैधानिक व्यवस्था, नैतिकता, राष्टीयता तथा सामाजिकता में कैसा बदलाव आयेगा।
आज राजनीति महज मौकापरस्ती, शुद्घ व्यापार तथा अपराधीकरण की दुनिया बनकर रह गयी है। हमारे सांसदों में राष्ट के प्रति नैतिकता तो बिल्कुल ही खत्म हो गयी है। सरकार को बनाना या हटाना मात्र ही राष्टीय विषय बन गया है। आज किसी भी पार्टी के कोई सिद्घांत नहीं रह गये हैं। मात्र राजनैतिक लाभ, व्यक्तिगत फायदों के आधार पर ही देश के भाग्य का निर्णय करेंगे। सांसदों की खरीद-फरोख्त, मंत्री पद का लालच तथा आगे का चुनावी समीकरण ही लोकतंत्र बन कर रह गया है। ऐसे में राष्टहित कहीं नजर नहीं आता दिखायी दे रहा है।
सन् 1993-94 में जहॉं नरसिंहा राव सरकार को बचाने झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों पर 25-25 लाख रुपये घूस लेने का आरोप था, वहीं आज यूपीए सरकार को हटाने या बचाने हेतु प्रति सांसद 25-30 करोड़ की खरीद-फरोख्त हो रही है। आज ऐसी स्थिति देश के सामने आ गयी है कि मात्र 12-15 सांसदों के हाथों में ही 105 करोड़ आबादी वाले देश के भाग्य का फैसला होगा। एक तरह से इस प्रकार के लोकतंत्र में सामंतवाद ही पनप रहा है। इनमें से बुद्घिजीवी कम और अपराधी छवि वाले, माफिया, सजायाफ्ता सांसदों के हाथों में ही 22 जुलाई, 2008 का निर्णय होना है।
यह देश का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि ऐसा फैसला राष्टहित में सर्वोपरि होना चाहिये था जबकि यह सरकार को बचाने या हटाने का सर्वोपरि प्रश्र्न्न बन कर रह गया है। 60 साल के लोकतांत्रिक इतिहास में आज सांसदों की यह घोड़ामंडी यही साबित करती है कि हमारा लोकतंत्र राष्टहित में कदापि नहीं है। परमाणु करार की प्रासंगिकता से अधिक तो सरकार को बचाने या गिराने का मुद्दा सर्वोपरि हो गया है।
– पूनम जोधपुरी (हैदराबाद)
करार पर तकरार
इन दिनों “अमेरिका के साथ आणविक करार’ पर पूरे देश में जो कोहराम मचा हुआ है, वस्तुतः वह देश की चिन्ता में कम और सत्ता जाने की चिन्ताओं में अधिक लगता है। वर्ना इतनी हाय-तौबा न मची होती। कांग्रेस व साथी दलों मुलायम, लालू, पासवान आदि को दरअसल धर्मनिरपेक्ष गठबन्धन के टूटने का गम जितना साल रहा है उससे कहीं ज्यादा दुःख सत्ता की मलाई से महरूम होने का है। कमोबेश यही दुःख हमारे वामपंथी कामरेडों का भी है। उन्हें भी सत्ता के करीबी होने के नाते अनगिनत फायदों, सुखों के फिसल जाने की पीड़ा साल रही है। अब मायावती भी मुलायम, अमर सिंह आदि से हिसाब चुकता करने के लिए वामदलों और चोरी-छिपे भाजपाइयों से हाल मिला रही हैं। सब के अपने-अपने सुख-दुःख, नफे-नुकसान हैं, पर स्यापा सभी का एकसार है। करार पर इकरार या तकरार। किसी को करार देशहित में लगता है तो किसी को करार से देश की स्वतंत्रता, अस्मिता के खतरे में पड़ जाने का भय है। पर नाटक का “सूत्र वाक्य-मूल संदेश’ एक ही है- वोट बैंक की राजनीति और सत्ता प्राप्ति। करार-वरार तो बेकार की बाते हैं। किसको देश की पड़ी है? सब अपनी कुर्सी के लिए चिन्तित हैं।
– भगवानदास जोपट (सिकन्दराबाद)
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