कांग्रेस, सपा और वामपंथियों के बीच जो आंखमिचौनी विगत दिनों में चली है, उसने भारतीय राजनीति को निर्वसन कर दिया है। भारत की जनता ने हमारे नेताओं और दलों का घिनौना रूप खुल कर देखा। विचारधारा, सिद्घांत, निष्ठा, शिष्टता- जैसे मूल्य कचरे की टोकरी में चले गए। अपने-अपने स्वार्थ और अहंकार के पोषण को राष्टहित का चोला पहनाया गया।
परमाणु सौदे को राष्टहित की कसौटी बताकर कांग्रेस अपने पांव पर कुल्हाड़ी चला रही है। उसे पता है कि विदेश नीति का यह उलझा हुआ प्रश्न चुनावी मुद्दा नहीं बन सकता। यह न तो चीन का हमला है, न गोवा की आ़जादी है और न ही बांग्लादेश का निर्माण है। इस मुद्दे पर वोट बटोरना लगभग असंभव है। आम मतदाता तो बहुत दूर का लक्ष्य है, कांग्रेस पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को ही नहीं पता कि प्रधानमंत्री उनकी पार्टी को सूली पर लटकाने को क्यों आमादा हुए? इस मुद्दे पर यदि वे चुनाव लड़ेंगे तो जनता को क्या समझाएंगे? वामपंथियों को झटक देने और सपाइयों को लपक लेने का खतरा आखिर मनमोहन सिंह क्यों मोल ले रहे हैं? बड़े मियां तो बड़े मियां छोटे मियां सुभानअल्ला! अभी सपाइयों ने टेका देना शुरू भी नहीं किया है और चोटी खींचनी शुरू कर दी है। चिदंबरम को हटाओ! देवड़ा को हटाओ!! रिजर्व बैंक के गवर्नर को हटाओ!! यह तो वे खुलेआम कह रहे हैं। जो नहीं कह रहे हैं, वह यह है कि सुप्रीम कोर्ट में हमें मुकदमा जितवाओ, सीबीआई के चंगुल से छुड़वाओ, मायावती को सबक सिखाओ, कैबिनेट में हमारे मंत्री घुसाओ! इतनी कीमत तो वामपंथियों ने भी कभी नहीं मांगी। प्रधानमंत्री जी छोटे “ब्लैकमेल’ से इतने बिलबिलाए हुए हैं। अब वे बड़े “ब्लैकमेल’ के जबड़े में समाने को तैयार हो गए हैं। सच्चाई तो यह है कि अब वे छोटी सौदेबा़जी से निपटने के लिए बड़ी सौदेबा़जी में उलझ रहे हैं। कितने चतुर हैं हमारे प्रिय प्रधानमंत्री जी?
परमाणु सौदे के नफे-नुकसान का मूल्यांकन करने वाले निष्पक्ष लोग पहले यह मानकर चल रहे थे कि अर्थशास्त्र के प्रोफेसर को विदेश नीति और ऊर्जा की गहरी समझ नहीं है, इसीलिए यह गलती हो रही है लेकिन अब उनका मानना है कि डॉ. मनमोहन सिंह की ओढ़ी हुई विनम्रता में अहंकार का विस्फोट हो गया है। आखिर प्रधानमंत्री हैं, कितने दिन तक दबकर चलते रहेंगे? इसीलिए धनु-मुद्रा अब सिंह मुद्रा में बदल गई है। अब तक जो मनमोहन थे, अब “सिंह’ बन गए हैं। यदि सौदा रहेगा तो मनमोहन सिंह रहेंगे। बुश अपना बिस्तर गोल करें, उसके पहले ही सौदा करना होगा। कितने गर्व की बात है कि अमेरिकी राष्टपति को बचाने के लिए भारत के प्रधानमंत्री ने अपनी इज़्जत दांव पर लगा दी। हमारी कांग्रेस दुविधा में फंस गई है। ऐन किनारे पहुँचकर अब घोड़ा कैसे बदला जाए? इसीलिए कांग्रेस का रवैया यह है कि जो होगा, सो होगा। सौदा न हो तो भी नहीं लौटना है और हो जाए तो भी नहीं लौटना है। तो हो ही क्यों न जाए! भूखे रहकर मरना है तो खाकर ही क्यों न मरें?
इस आत्महत्या की खूबसूरती यह है कि कुछ नये मरजीवाड़े पैदा हो गए हैं। वे साथ में मरने को तैयार हैं लेकिन वे कह रहे हैं कि हम प्रमाण-पत्र पहले ही ले आते हैं। डॉ. अब्दुल कलाम से लिखा लाए हैं और अब कुछ और विशेषज्ञों की तलाश कर रहे हैं। उनसे कोई पूछे कि तुम पिछले तीन साल से क्या कर रहे थे? दलालों और नचैयों से ही घिरे रहे? परमाणु-सौदे का विरोध और ईरान का समर्थन क्या खुमारी में कर रहे थे? अपने चेलों को अजीबो-गरीब गुलाटियां खाते देख डॉ. लोहिया स्वर्ग में अपना माथा ठोक रहे होंगे। शायद इसीलिए कांग्रेस के सामने निर्वसन होने के पहले सपाइयों ने झीना-सा पर्दा तान लिया है। यह पर्दा है, राष्टहित का और धर्मनिरपेक्षता का! कैसा अद्भुत खेल चल रहा है कि कम्युनिस्ट और “कम्युनलिस्ट’ (भाजपाई) फिलहाल एक तंबू के नीचे हैं और कांग्रेसी और उनके जन्मजात विरोधी “समाजवादी’ दूसरे तंबू के नीचे हैं। अरे भाई, उस तीसरे तंबू का क्या हुआ, जिसे जयललिता और मुलायम सिंह खड़ा कर रहे थे? सारे क्षेत्रीय नेता पस्तहिम्मत हो गए हैं। सब अपने-अपने लिए तंबू की तलाश में हैं। मार्क्सवादी अब बेतंबू हो जाएंगे। अकेले रह जाएंगे वे। अकेले ही कांग्रेस और भाजपा को कोसते रहेंगे। वे तीसरा मोर्चा नहीं, तीसरे दर्जे का मोर्चा बन जाएंगे।
भुस में आग लगाकर मायावती आगे खड़ी हो गई हैं। उन्होंने मुसलमानों को उचका दिया है। परमाणु सौदे से मुसलमानों का क्या लेना-देना? विदेश नीति के मुद्दों का सांप्रदायीकरण घोर निंदनीय कृत्य है लेकिन भोले मुसलमानों को पहले भी कई दलों ने निचोड़ा है। मायावती के इस पैंतरे की काट कलाम के कलमे से नहीं हो सकती। भाजपा के नियुक्त किए हुए राष्टपति कलाम को मुसलमानों ने अपना नेता कब माना था? जैसे नौकरशाह मनमोहन, वैसे नौकरशाह कलाम! दोनों बहुत सज्जन, दोनों बहुत आदरणीय लेकिन उनके राजनीतिक अभिमत की कीमत क्या है? कांग्रेस और सपा अगर अभी साथ-साथ तैरेंगे तो वे साथ-साथ ही डूबेंगे भी! सपा के लिए एक चोर-गली ़जरूर है। वह कह दे कि हम भाजपा और सौदे, दोनों का विरोध करते हैं लेकिन अधबीच में सरकार गिराने का भी उतना ही विरोध करते हैं। हम संकटमोचक हैं। हम कांग्रेस की पालकी ढोने वाले कहार नहीं हैं।
उत्तर प्रदेश के चुनाव में कांग्रेस और सपा का गठबंधन फायदेमंद हो सकता है और शायद अब इन दोनों दलों के पास कोई और विकल्प भी नहीं है लेकिन असम, आंध्र, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और झारखंड के स्थानीय दलों की कॉंग्रेस के साथ सीधी टक्कर है। अगर मुलायम सिंह अपना रास्ता पकड़ेंगे तो ये दूसरे दल क्या चुप बैठे रहेंगे? दूसरे शब्दों में, धन्य है, मनमोहनजी का परमाणु सौदा! इसके कारण कम से कम राष्टीय राजनीति का ध्रवीकरण तो शुरू हो गया है।
इस सौदे की मेहरबानी से जनता को यह भी पता चल रहा है कि विचारधारा और सिद्घांत की बात करना कितना बड़ा ढोंग है। जिन सांप्रदायिक तत्वों को हमारे कामरेड और सपाई आज अछूत बता रहे हैं, उनके साथ वे 1967, 1977 और 1989 में हमप्याला और हमनिवाला रह चुके हैं। कांग्रेस और कामरेडों के बीच स्तालिन-युग में और कांग्रेस और समाजवादियों के बीच लोहिया-युग में जो जूतम-पैजार हुई है, उसे अगर आज याद किया जाए तो हमारी नई पीढ़ी उस पर विश्र्वास नहीं करेगी। भारतीय राजनीति पर अंतर्राष्टीय राजनीति का यह सिद्घांत लागू हो रहा है कि कोई देश किसी देश का न स्थायी मित्र होता है न स्थायी शत्रु। हर देश अपने स्वार्थ से संचालित होता है। इसी प्रकार राजनीति के व्यापार में भी स्वर्ग-नरक का विचार क्या करना? अच्छे-बुरे, शुभ-अशुभ, उचित-अनुचित का विचार क्या करना? सभी नेता यमदूतों को कह रहे हैं कि उधर ही ले चलो, जिधर दो कौड़ी का फायदा हो! दो कौड़ी का फायदा और राष्टहित एक-दूसरे के पर्याय बन गए हैं। यही है, दो कौड़ी की राजनीति।
इस राजनीति का नतीजा है कि हमारा कोई भी नेता महंगाई पर ध्यान नहीं दे रहा। सब के सब ठन-ठन गोपाल हैं। सब वैश्र्विक अर्थ-व्यवस्था के गुलाम बन गए हैं। उन्हें वे 80 करोड़ लोग दिखाई ही नहीं पड़ रहे जो 20 रुपये रो़ज पर गुजारा कर रहे हैं। हमारे किसी भी नेता ने आज तक देश के नाम कोई ऐसा आठान नहीं किया कि 100 करोड़ लोग इस भारत-भूमि में एक बड़े परिवार की अनुभूति करें। एक नकली सौदे ने सौ करोड़ के देश पर दो कौड़ी की राजनीति को लाद दिया है।
– डॉ. वेदप्रताप वैदिक
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