अपने पूर्वजों से हमें शिक्षा, संस्कार, संस्कृति, सभ्यता, आचरण, संवेदनाएं, भंगिमाएं और जीवन जीने का ढंग प्राप्त हुआ है। आज जो कुछ भी हमारे पास है, वह स्वतः हमारा नहीं है। इसके लिए हम अपनी साधना, श्रम, ज्ञान, विवेक, चातुर्य पर ही निर्भर नहीं रह सकते। हमारे अभ्यास, आदतें, दृष्टि भंगिमाएं, नैपुण्यता, दक्षता, श्रेष्ठ जीवन-शैली यह सब कुछ हमें परंपरा से प्राप्त हुआ है। इसके लिए अकेले हम उत्तरदायी नहीं हैं। आज हमारे पास जो दिव्य, मधुर, ऊर्जा, ओज, स्फूर्ति, अनुभूति, अनुभव आदि है, वह सब कुछ एक परंपरा से मिला है। श्राद्ध भी इसी परंपरा के प्रति सम्मान को प्रकट करना है। श्राद्ध के मूल में है, उस स्रोत के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन, जिससे हमें श्रेष्ठता और पावनता प्राप्त हुई है। श्रेष्ठता का अनुसरण ही श्राद्ध है। श्राद्ध का प्रयोजन केवल ब्राह्मण-भोजन नहीं है। हम ब्राह्मण के माध्यम से उस परंपरा को श्राद्घपर्व में नमन करते हैं, क्योंकि ब्राह्मण ज्ञान की परंपरा का प्रतीक है। वह विचार का संवाहक है।
ब्राह्मण को हम श्रेष्ठता, ज्ञान, अनुभव का पर्याय मानते हैं। उन्हें भोजन कराते हुए हमारी कामना यह रहती है कि विज्ञपुरुष, हे शास्त्रज्ञ पुरुष, हे शास्त्रनिष्ठपुरुष हम आपको निमित्त बनाकर अपने पितरों को स्मरण कर रहे हैं, उनका ध्यान कर रहे हैं। श्राद्ध यानी श्रेष्ठता का अनुसरण कर रहे हैं। हम ब्राह्मण को भोजन कराते हुए यह भाव रखते हैं कि आपके स्मरण करने से हमें पवित्रता प्राप्त होती है। हम ब्राह्मण के माध्यम से अपने पितरों से लुप्त वार्तालाप करते हैं और कहते हैं कि मुझे जो पवित्रता, शिष्टता, दिव्यता, उच्चता तथा जीवन के उत्कर्ष के लिए जो एक उत्सुकता प्राप्त हो रही है, वह सब मैं आपकी परंपरा से पा रहा हूं। अतः श्राद्ध का प्रयोजन यह है कि श्रद्घापूर्वक नमन उन परंपराओं को, मूल्यों को, संतों को ऋषियों को, उन माता-पिता को, जिनसे हमें शिष्टता और दिव्यता प्राप्त हुई है, सकारात्मक सोच प्राप्त हुई है। इसलिए मेरा तो मत है कि इस पितृपर्व पर जो भी किया जाए, वह तो श्रेष्ठ है, लेकिन हमें श्राद्घ पर्व प्रतिदिन जीवनभर इसी मनोभाव से मनाना चाहिए।
श्राद्धपक्ष 16 दिन ही क्यों
पितृपक्ष पूर्णिमा से अमावस्या तक 16 दिन का होता है। धर्मशास्त्रों के अनुसार हमारी मान्यता है कि प्रत्येक की मृत्यु इन 16 तिथियों को छोड़कर अन्य किसी दिन नहीं होती है। इसीलिए इस पक्ष में 16 दिन होते हैं। एक मनोवैज्ञानिक पहलू यह भी है कि इस अवधि में हम अपने पितरों तक अपने भाव पहुंचाते हैं। चूंकि यह पक्ष वर्षाकाल के बाद आता है। अतः ऐसा माना जाता है कि आकाश पूरी तरह से साफ हो गया है और हमारी संवेदनाओं और प्रार्थनाओं के आवागमन के लिए मार्ग सुलभ है। ज्योतिष और धर्मशास्त्र कहते हैं कि पितरों के निमित्त यह काल इसलिए भी श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि इसमें सूर्य कन्या राशि में रहता है और यह ज्योतिष गणना पितरों के अनुकूल होती है।
15 दिन शुभकार्य क्यों नहीं
श्राद्घपक्ष का संबंध मृत्यु से है। इस कारण यह अशुभ काल माना जाता है। जैसे अपने परिजन की मृत्यु के पश्र्चात हम शोकाकुल अवधि में रहते हैं और अपने अन्य शुभ, नियमित, मंगल, व्यावसायिक कार्यों को विराम दे देते हैं, वही भाव पितृपक्ष में भी जुड़ा है। इस अवधि में हम पितरों से और पितर हमसे जुड़े रहते हैं। अतः अन्य शुभ मांगलिक एवं शुभारंभ जैसे कार्यों को वंचित रखकर हम पितरों के प्रति पूरी तन्मयता बनाए रखते हैं।
कौए ही क्यों
श्राद्घ पक्ष में पितर, ब्राह्मण और परिजनों के अलावा पितरों के निमित्त गाय, श्र्वान और कौए के लिए ग्रास निकालने की परंपरा है। गाय में देवताओं का वास माना गया है तथा श्र्वान और कौए पितरों के वाहक हैं। पितृपक्ष अशुभ होने से अवशिष्ट खाने वाले को ग्रास देने का विधान है। दोनों में एक भूमिचर है, दूसरा आकाशचर यानी चलने वाला। दोनों गृहस्थों के निकट और सभी जगह पाये जाने वाले हैं। श्र्वान निकट रहकर सुरक्षा करता है और निष्ठावान माना जाता है, इसलिए पितृ का प्रतीक है। कौए गृहस्थ और पितृ के बीच श्राद्घ में दिए पिंड और जल के वाहक माने गए हैं।
– रीमा राय
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