परिवार परंपरा को प्रोत्साहित करने में ऋषियों का मंतव्य केवल इतना ही नहीं रहा कि व्यक्ति एक से अधिक होकर रहे, दुःख-तकलीफ पड़ने पर उसका हाथ बांटने वाला उसके साथ हो, व्यक्ति व्यवस्थित रूप में स्थायी होकर रहे और परिजनों के साथ अधिक उल्लासपूर्ण जीवन-यापन करे। इस मंतव्य के साथ उनका इससे कहीं एक ऊंचा मंतव्य भी रहा है, वह यह कि परिवार के माध्यम से मनुष्य आत्म-कल्याण की ओर भी अग्रसर हो। उसमें सामाजिकता, नागरिकता और सबसे बड़ी बात विश्र्व मानवता का कल्याणकारी भाव जागे। वह अपने जैसे मनुष्यों के लिए त्याग, सहानुभूति रख सके, उसकी सेवा-सुश्रूषा तथा सहायता करने को तत्पर रहे, यही आत्म-उन्नति के लक्षण हैं। पारिवारिक जीवन में इन आध्यात्मिक गुणों के विकास का पूरा-पूरा अवसर रहता है।
आज जब कोई अनेक बच्चों का पिता बन जाता है तो उसका सारा जीवन ही उसके परिवार का हो जाता है। उसका अपना कुछ नहीं रहता। कहने के लिए उसका अपना कुछ नहीं है, सब कुछ उसके बच्चों का है। आज न वह पूर्ववत स्वार्थी है, न संकीर्ण और अनुदार। यदि उसने पारिवारिक जीवन न अपनाया होता और उत्तरदायित्व न समझा होता न तो उसकी आत्मा का विस्तार पत्नी तक होता और न बच्चों तक फैलता है। वह स्वार्थी एवं संकीर्ण बना हुआ पशुओं की तरह जड़ एवं अविकसित जीवन बिता रहा होता। त्याग, सहानुभूति, संवेदना, स्नेह तथा अन्यों से आत्मीयता का क्या सुख होता है, इस अनुभव से वह सदा अनभिज्ञ रहता। यह पवित्र पारिवारिक जीवन का ही प्रभाव है कि उसकी आत्मा के संकीर्ण बंधन शिथिल हुए और विस्तार हो सका। इसी प्रकार पत्नी से परिवार और परिजनों से पार्श्र्वजनों और पार्श्र्वजनों से पुरजनों में फैलती हुई उसकी आत्मीयता विश्र्व तक जा पहुंचे तो सहज ही कड़ी-कड़ी करके उसकी आत्मा के बंधन ढीले हो जायेंगे और वह मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य मुक्ति अथवा मोक्ष की उपलब्धि प्राप्त कर लेगा।
पारिवारिक जीवन एवं गृहस्थ आश्रम की व्यवस्था देने में ऋषियों का मुख्य उद्देश्य यही था, सांसारिक सुख-सुविधा तो स्वाभाविक एवं मौन थी। किन्तु खेद है कि पारिवारिक जीवन के इस महत्त्वपूर्ण एवं कल्याणकारी अनुपम उद्देश्य की ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता। यही नहीं, पारिवारिक व्यवस्था के सामान्य एवं स्वाभाविक सुख-शांति के उद्देश्य से भी हाथ धो डाले गये हैं। आज का गृहस्थ जीवन तो निरूद्देश्य की खींचतान एवं तनातनी से भरकर रह गया है। जिस व्यवस्था से इतने बड़े श्रेयपूर्ण आत्मोद्घार के उद्देश्य की पूर्ति की जा सकती है, वह आज पाप जैसे अभिशाप से भरा हुआ वर्तमान में तो नारकीय यातना ही दे रहा है, भविष्य के लिए भी नरक के द्वार खोल रहा है। यह कुछ कम दुर्भाग्य की बात नहीं है।
अनेक लोग परिवार को आत्मोन्नति के मार्ग में बाधक मानते हैं। उनका कहना होता है- परिवार पालन के दायित्व के कारण मनुष्य को दिन-रात सांसारिक उलझनों में फंसा रहना पड़ता है। उसे बाल-बच्चों की चिंता से ही अवकाश नहीं मिलता, फिर भला वह आत्मोद्घार के लिए किस प्रकार प्रयत्न कर सकता है। इस प्रकार सोचने वाले गलत रूप से सोचते हैं। उलझनों का कारण परिवार नहीं, बल्कि वह गलत व्यवस्था है जिसकी ओर लोग प्रमादवश ध्यान नहीं देते और परिवार की गाड़ी उल्टी-सीधी खींचते चले जा रहे हैं। किसी भी वस्तु का गलत प्रयोग ही उसे हानिकारक बना देता है।
जो परिवार त्याग, उदारता, सहयोग एवं स्नेह के आधार पर मतैक्य की डोरी से मजबूती के साथ बंधे रहते हैं और जिनमें अनुशासन, शिष्टाचार, सदाचार, नियम एवं मर्यादाओं का यथोचित पालन किया जाता है, उनमें सभी सदस्य लौकिक सुख-शांति के साथ आत्म-विकास अथवा आत्मोद्घार का आध्यात्मिक उद्देश्य भी पूरा कर सकने का अवसर पा सकते हैं। जिन परिवारों में दिन-रात कलह-क्लेश और स्वार्थपूर्ण हाय-तौबा मची रहती है, वे स्वभावतः आत्म-पतन एवं आत्म-बंधन के हेतु बनेंगे ही।
कौटुम्बिक जीवन आत्म-विकास का एक सुअवसर है, किन्तु तब, जब इसका उपयोग उस दिशा में किया जाए। विस्तार करते हुए सार्वभौमिक आत्मीयता की अनुभूति प्राप्त की जाए। किन्तु होता यह है कि लोग अपने प्रिय एवं परिजनों तक ही आत्मा का विस्तार करके रुक जाया करते हैं। परिवार के प्रति उनकी सारी आत्मीयता के पीछे “यह सब मेरे हैं’, का भाव ही सिाय रहा करता है। इसलिए उनके प्रति किया हुआ उनका सारा उपकार आध्यात्मिक दिशा में निष्फल चला जाता है। ममत्व के भाव के साथ किया हुआ शुभ-कार्य भी परमार्थ की सूची में अंकित नहीं हो सकता, फिर चाहे वह निःस्वार्थ अथवा निर्लोभ ही क्यों न हो? मेरे अपने के भाव से किसी के प्रति भी किया हुआ कोई भी उपकार घूम-फिर कर अपने लिए ही किया हुआ माना जाएगा। अपने लिए अथवा अपने आत्म-संतोष के लिए किया हुआ बड़े से बड़ा परमार्थ भी स्वार्थ ही है।
पारिवारिक जीवन को आत्मोद्घार में सहायक बनाने के लिए मनुष्य को आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ही परिवार बसाना चाहिए। बहुधा परिवार बसाने में लोगों का दृष्टिकोण महत्वपूर्ण नहीं होता है। उनके मस्तिष्क में एक यही बात रहती है कि समाज में वे एक घर-बार वाले व्यक्ति समझे जाएंगे। लोग उन पर विश्र्वास करेंगे और वे समाज में एक उत्तरदायी गौरव पाएंगे। पत्नी में उनके प्रणय और बच्चों में स्नेह को आश्रय मिलेगा।
अपने पेट को गौण मानकर बेटे के लिए आजीवन अनवरत श्रम करने का साहस कोई बाप ही कर सकता है। पाल-पोस कर बड़ा कर दिया। शिक्षा-दीक्षा पूरी कराई, विवाह-शादी करा दी, धंधा लग गया। पिता से पुत्र की कमाई बढ़ गई। उसके अपने बेटे हो गए। उसके अपने शौक हो गए, स्त्री की आकांक्षाएं बढ़ीं, बेटे ने बाप के सारे उपकारों पर पानी फेर दिया। कोई न कोई बहाना बनाकर बाप से अलग हो गया। हाय री तृष्णा। तेरे लिए इतना सब कुछ किया और तू उसकी वृद्घावस्था की बैसाखी भी न बन सका। इससे बढ़कर इस संसार में कौन-सा पाप हो सकता है। अपने स्वार्थ, भोग-लिप्सा, स्वेच्छाचारिता के लिए बाप को ठुकरा देने वालों को पामर न कहा जाए तो और कौन-सा संबोधन उचित हो सकता है? परिवार में पिता को सम्मान मिलता है तो उनके दीर्घकालीन अनुभव योग्य संचालन, पथ-प्रदर्शन, भावी योजनाओं को नियंत्रित करने का लाभ भी परिवार को मिलता है। अपने प्रेम, वात्सल्य, करूणा, उदारता, संगठनात्मक बुद्घि से वह सब पर छाया किये रहता है। वह परिवार का पालन करता है। माता-पिता की उचित सेवा-टहल एवं देख-रेख करना परमात्मा की उपासना से कम फलदायक नहीं होता। इस युग में पिता और पुत्र के संबंधों में जो कड़वाहट आ गई है, वह मनुष्य के संकुचित दृष्टिकोण और स्वार्थपूर्ण प्रवृत्ति के परिणाम-स्वरूप ही है। पिता, पुत्र के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर दे और पुत्र व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए अनुशासन की अवज्ञा करे, तो उस बेटे को निंदनीय ही समझा जाना चाहिए।
मनुष्य का सबसे शुभचिंतक मित्र, हितैषी, पथ-प्रदर्शक, उदार, जीवन-रक्षक पिता ही होता है। वह चाहता है कि पुत्र को किस रास्ते लगाया जाए कि सुखी हो, समुन्नत हो, क्योंकि उसकी त्रुटियों का ज्ञान पिता को ही होता है। जो इन विशेषताओं का लाभ नहीं उठाते, उन्हें अंत में दुःख और दैन्यताओं का ही मुंह देखना पड़ता है। पिता और पुत्र, पिता और पुत्री के संबंध बड़े कोमल, मधुर और सात्विक होते हैं। इस आध्यात्मिक संबंध का सहृदयतापूर्वक पालन करने वाले व्यक्ति देव श्रेणी में आते हैं। उनकी मान -प्रतिष्ठा होनी चाहिए।
परिवार में माता का स्थान पिता के समतुल्य ही होता है। एक-दूसरे को बड़ा-छोटा नहीं कहा जा सकता। पिता कर्म है तो माता भावना, कर्म और भावना के सम्मिश्रण से जीवन की पूर्णता आती है। गृहस्थी की पूर्णता तब है, जब उसमें पिता और माता दोनों को समान रूप से सम्मान मिले। माता का महत्व किसी भी अवस्था में कम नहीं हो सकता। व्यक्ति का भावनात्मक प्रशिक्षण माता करती है। उसी के रक्त, मांस और ओजस से बालक का निर्माण होता है। कितने कष्ट सहती है, वह बेटे के लिए। स्वयं गीले बिस्तर में सोकर बच्चे को सूखे में सुलाते रहने की कष्टदायक िाया पूरी करने की हिम्मत भला है किसी में? माता का हृदय दया और पवित्रता से ओत-प्रोत होता है, उसे जलाओ तो भी दया की सुगंध निकलती है, पीसो तो दया का ही रस निकलता है। ऐसी दया और ममत्व की मूर्ति माता को जिसने पूज्यभाव से नहीं देखा, उसका सम्मान नहीं किया, आदर की भावनाएं व्यक्त नहीं कीं, वह मनुष्य नर-पिशाच ही कहलाने योग्य हो सकता है।
इस विकृति को सुधारना है। राम और भरत, गोरा और बादल के आदर्श भ्रातृ-प्रेम को फिर से पुनरुजीवित करना है। इससे हमारी शक्ति और सद्भावनाएं जाग्रत होंगी। हमारा साहस बढ़ेगा और पुरुषार्थ पनपेगा। स्नेहमयी बहन को भाइयों के प्रति भी उसकी तरह का स्नेह आदर प्रदर्शित करना चाहिए, जिस तरह माता के प्रति अपनी आत्मीयता पूर्ण भावनाएं होती हैं।
घर का वातावरण कुछ इस तरह का शालीनतायुक्त, हंसमुख और उदार बने, जिससे सारा परिवार हरा-भरा नजर आए। इसके लिए धन आदि उपकरणों की उतनी आवश्यकता नहीं है जितनी अपने संबंधियों के प्रति कर्तव्य और सेवा-भावना की। परिवार में सौमनस्य हो तो वहां न तो सुख की कमी रहेगी, न शांति की। जिस घर में सबके दिल मिले होंगे, वहां का वातावरण प्रसन्नता से भरा होगा। हमारा घर भी ऐसा ही हो, तो हम समझें कि पारिवारिक जीवन के प्रति अपने उत्तरदायित्व भली प्रकार पूरे किए हैं। यही परमात्मा की सच्ची पूजा है, इसे तिरस्कृत नहीं किया जाना चाहिए।
– पं. लीलापत शर्मा
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