चरित्र के बल पर राष्ट्र का भाग्य बनता है

अभिनव बिंद्रा अपना स्वर्ण पदक लेकर स्वदेश लौट आया है। इस नौजवान ने देश को उत्साह और आत्मविश्र्वास से भर दिया है कि “हम भी कर सकते हैं’। लेकिन अगर चीन से अपनी तुलना करें तो मालूम होता है कि खेलों में भी हम कितने पिछड़े हैं। जैसा ओलम्पिक का आयोजन चीन ने किया वैसे की तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते। कड़वा सच है कि आ़जादी के छः दशक के बाद भी भारत ठोकरें खा रहा है, लुढ़क रहा है। जम्मू-कश्मीर में जो हो रहा है, वह उसका एक संकेत मात्र है। यहॉं तो नक्सलवादी टेन लूट ले जाते हैं। स्थिति बेकाबू है और कोई संभालने वाला नहीं। सरकार के पास गोली चलाने के सिवाय कुछ नहीं रहा। हर जगह गोली चल रही है। नोएडा में किसानों तथा पुलिस के बीच जम कर फायरिंग हुई। किसानों ने भी बराबर जवाब दिया। सरकार, प्रशासन, व्यवस्था से इस हद तक लोगों का विश्र्वास उठ गया है कि हर कोई कानून हाथ में लेने को तैयार है। मुहल्ले में कत्ल हो जाता है तो भी मुख्य सड़क रोक दी जाती है। पुलिस पर पथराव तो आम घटना हो गई है। लोग अब किसी से डरते नहीं। भीड़ इकट्ठा होकर हमला करती है और प्रशासन में उन्हें खदेड़ने की हिम्मत नहीं रही। राजस्थान में गुज्जरों ने आरक्षण के लिए आंदोलन किया और कई दिन दिल्ली-मुंबई रेल यातायात ठप्प रखा। रेल की पटरी ही उखाड़ दी गई। कोई शर्म नहीं, कोई अपराध-बोध नहीं। अंग्रे़जों, जिनसे हमने आ़जादी पाई थी, के समय किसी की ऐसा करने की जुर्रत नहीं थी। जब से देश आ़जाद हुआ है, हम समझने लगे हैं कि आ़जादी का मतलब अनियंत्रित मनमानी है, कुछ भी करने का हमारे पास लाइसेंस है। हम इत्मिनान से कानून की अवहेलना और उसका विरोध कर सकते हैं।

इस देश में जरूरत से अधिक आ़जादी है, ़जरूरत से अधिक लोकतंत्र है। सबको अपने अधिकारों की चिंता है, दायित्व की नहीं। इसीलिए अच्छे वेतन और “ऊपर’ से मोटी कमाई के बावजूद सरकारी कार्यालय में कामकाज का स्तर इतना निम्न है। अपने दायित्व की किसी को परवाह नहीं। अनियंत्रित पूंजीवाद को अपनाने के बाद हालात और बिगड़े हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तथा उनकी टीम ने विशेष तौर पर निराश किया है। मनमोहन सिंह- पी. चिदम्बरम- मॉनटेक सिंह अहलुवालिया को अर्थशास्त्रियों की “डीम टीम’ कहा गया। पर यह टीम तो बुरे सपने दे रही है! सिर्फ इसलिए ही नहीं कि महंगाई बढ़ गई, इसलिए भी कि इनके इन चार साल के शासनकाल में देश के संसाधन मुट्ठी भर लोगों के हाथ आ गए हैं। असमानता बहुत बढ़ गई है। ऐसा आभास मिलता है कि सरकारी नीतियां एक विशेष वर्ग के लिए बनती हैं। दक्षिण मुंबई में एक वर्गफुट जगह 120,000 रुपये में बिक रही है, जबकि दुबई के सबसे पॉश इलाके दुबई मैरीना में ़जमीन का रेट 18,000 रुपये वर्ग फुट है। अर्थात् मुंबई में दर सबसे अधिक है और खरीदने वालों की भी कमी नहीं है।

सरकार ने एक वर्ग के पास इतना पैसा दे दिया कि वह कुछ भी खरीद सकते, कुछ भी खर्च कर सकते हैं और सरकार समाज में कुछ संतुलन बनाने की कोशिश तक नहीं कर रही। जिसे दिखावे वाला उपभोग और फिजूलखर्ची कहा जाता है, उस पर अुंकश लगाने का कोई प्रयास नहीं हो रहा। प्रधानमंत्री ने उद्योग-व्यापार जगत से अपील की है कि वे सादगी का जीवन व्यतीत करें, वेतन-भत्ते कम लें, जीवनशैली में संयम बनाएं, तिजोरियां भरनी छोड़ें, विलासिता से दूर रहें। प्रधामंत्री एक शरीफ इनसान हैं लेकिन क्या वह देखते नहीं कि यह सब उनकी नीतियों का ही परिणाम है? आज के भारत की यह भी त्रासदी है कि इस प्रधानमंत्री की बात कोई नहीं सुनता। आ़जादी के बासठवें वर्ष में ते़जी से तरक्की कर रहा भारत असंतोष, तनाव तथा टकराव में धंसता नजर आता है। 10 प्रतिशत लोगों के हाथ में 40 प्रतिशत साधन आ गए हैं। इसके दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं। लोग टीवी पर विज्ञापन देखते हैं और जानने लगे हैं कि वे कितने पिछड़ चुके हैं। इसलिए गुस्सा सड़कों पर फूट रहा है।

देश का दुर्भाग्य है कि इस नाजुक मौके पर नेतृत्व नहीं है। कोई दिशा दिखाने वाला या दिशा सही करने वाला नहीं। कड़वी बात कहने की हिम्मत किसी में नहीं, सबको अपने वोट की चिंता है। वोट बैंक हौवा बन गया है। परिणाम है कि जम्मू-कश्मीर जल रहा है, हमारे बड़े शहरों में बम फूट रहे हैं, आपसी टकराव बढ़ रहा है और हमारे सांसद संसद में नोट लहरा रहे हैं। इस प्रकरण में सच क्या है, यह मालूम नहीं लेकिन 22 जुलाई को लोकसभा में जो कुछ हुआ वह लोकतंत्र के लिए शर्म से डूबने के समान है। पूरी दुनिया ने हमारे सांसदों को नोट लहराते देखा और इस दौरान प्रधानमंत्री खामोश बैठे रहे। विचलित नहीं हुए। चेहरे पर कोई भाव नहीं था। वह परमाणु करार पर संसद की मोहर लगवाने में सफल रहे लेकिन उन्हें भी अहसास तो होगा ही कि जिस तरह विश्र्वास हासिल किया गया उससे उनके नेतृत्व पर दाग लग गया है, उनकी सरकार भी नरसिंह राव की सरकार की कतार में आ गई है।

आज देश का संकट बहुआयामी है। एक तरफ हम आर्थिक महाशक्ति बन रहे हैं तो दूसरी तरफ अपना घर संभालने में नाकाम हो रहे हैं। वह चरित्र नहीं रहा। चर्चिल ने भारतीय नेताओं को “तिनकों से बने लोग’ कहा था। हम उसे सही सिद्घ करने में जोर-शोर से लगे हैं। देश का चरित्र खत्म हो गया। डॉ. राधाकृष्णन ने कहा था कि “चरित्र के बल पर राष्ट का भाग्य बनता है। तुच्छ चरित्र के लोगों के बल पर महान राष्ट नहीं बन सकता।’ लेकिन हम छोटे लोगों के बल पर महान राष्ट बनाने की कोशिश कर रहे हैं, और असफल हो रहे हैं। हमारी एक मुख्यमंत्री ठोंक कर कह रही हैं कि उसकी अरबों रुपये की नाजाय़ज दौलत उसके प्रशंसकों की “गिफ्ट’ है। किसी और देश में ऐसा दावा किया जाता तो लोग राष्टीय अवमानना के दोष में एक मिनट में इस व्यक्ति को बाहर निकाल देते। लेकिन भारत महान् में वह एक दिन प्रधानमंत्री बनने का सपना ले रही है।

भारत शायद एकमात्र देश होगा जहॉं आतंकवाद के साथ भी राजनीति की जाती है। सोचा जाता है कि अगर कार्रवाई की तो अमुक समुदाय नारा़ज हो जाएगा। नेतृत्व में हिम्मत ही नहीं है, अफसोस है कि एक ऐसा नेता भी नहीं जिसकी बात सारा देश सुनने को तैयार हो। अटलजी शायद आखिरी ऐसे नेता थे। प्रधानमंत्री तो खुद कहीं और से निर्देश लेते हैं, उनकी बात कौन सुनेगा? इसीलिए केन्द्र में अनिश्र्चय और अनियंत्रण का वातावरण है, जैसे घर का मालिक कोई न हो। हालत कुछ ऐसे बयान की जा सकती है- किस रहनुमा से पूछिए मंजिल का कुछ पता? हम जिनसे पूछते हैं उन्हें खुद पता नहीं! घबराहट यह है कि अगर केन्द्र कम़जोर हो गया तो भारत का बिखराव हो जाएगा। इतिहास इसका गवाह है।

आ़जादी के बासठवें वर्ष में उन शहीदों को याद करने का समय है जिन्होंने आ़जादी के लिए कुर्बानी दी थी लेकिन साथ ही यह सोचने की ़जरूरत भी है कि अपने देश के लिए उनके जो सपने थे हमने उन्हें कितना साकार किया? यह भी सोचने की ़जरूरत है कि देश का यह कैसा विकास है कि आ़जादी के छः दशकों के बाद भी कई ग्रामीण इलाकों में हमारे लोग पशुओं जैसी जिंदगी व्यतीत करते हैं? 9 प्रतिशत विकास की दर उनके किस काम की है? ये सपने केवल ऊँचे “रेट ऑफ ग्रोथ’ से ही साकार नहीं होंगे। ये सपने तब साकार होंगे जब हर भारतीय खुश होगा, संतुष्ट होगा, शांत होगा। जब वह महसूस करेगा कि देश के नवनिर्माण में उसका भी हिस्सा है और इस नवनिर्माण में उसे भी हिस्सा मिल रहा है।

 

– चन्द्रमोहन

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