भक्त की पीड़ा से उपजा काव्य हनुमान बाहुक

गोस्वामी तुलसीदास जी ने पाप को रोगों की जड़ माना है। कृतघ्नता को सबसे बड़ा पाप कहा है। यही पाप रोग के रूप में प्रकट होते हैं। “हनुमान बाहुक’ में बाहुपीड़ा से ग्रसित गोसाई जी 41 वें पद्य में कहते हैं – “”अनाथ तुलसी को दयासागर स्वामी रघुनाथ जी ने सनाथ करके अपने स्वभाव से उत्तम फल दिया। इस बीच यह नीच, प्रतिष्ठा पाकर फूल उठा, अपने को बड़ा समझने लगा। तन-मन-वचन से श्रीराम जी का भजन छोड़ दिया। इसी से शरीर से भयंकर बरतोर (बालतोड़) के बहाने श्रीरामचंद्र जी का नाम फूट-फूट कर निकलता दिखाई पड़ रहा है।” “हनुमान बाहुक’ वस्तुतः एक भक्त की पीड़ा से निकला काव्य है। इसमें साहित्यिक लालित्य तो है ही, भक्त की व्यथा का वर्णन व समर्पण भाव का जो निवेदन है, वह अद्भुत है।

 

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