देश के अलग-अलग हिस्सों में बढ़ती आतंकवादी गतिविधियों के परिप्रेक्ष्य में खुफिया-तंत्र की नाकामी को एक प्रमुख कारण बताया जा रहा है। इस नाकामी के चलते केन्द्र और राज्य सरकारें एक-दूसरे पर अक्सर आरोप-प्रत्यारोप भी मढ़ती रहती हैं। इसी के चलते केन्द्र सरकार फेडरल एजेंसी गठित करने पर भी बल दे रही है। लेकिन राजनीतिक कारणों से भाजपा शासित और राजग शासित राज्य सरकारें इसे यह कह कर ़खारिज कर रही हैं कि यह केन्द्र द्वारा राज्यों के अधिकार-क्षेत्र में अतिामण होगा। इस बाबत पूर्व राष्टीय सुरक्षा सलाहकार-ब्रजेश मिश्र का कहना है कि आतंकवाद के खिलाफ सख्त कानून तो होना ही चाहिए और एक संघीय जॉंच एजेंसी भी होनी चाहिए। लेकिन ़जरूरत इस बात की भी है कि खुफिया जॉंच एजेंसियों का सियासी इस्तेमाल करना सत्ताधारी राजनीतिक दलों के लोग बंद करें। ब्रजेश मिश्र ने इस बात को भी रेखांकित किया है कि मौजूदा पुलिस-तंत्र में व्यापक रूप से सुधार की ़जरूरत है। उनके अनुसार इन दोनों ही तंत्रों को राजनीतिक दबावों में रह कर काम करना पड़ता है। जिसकी वजह से ये आतंकवाद जैसी सर्वथा नई परिघटना का मुकाबला करने में नाकारा सिद्घ हो रहे हैं।
पूर्व राष्टीय सुरक्षा सलाहकार ने एक हकीकत की दुखती रग पर उंगली रख दी है। लेकिन उन्होंने जो कहा है उस ओर कदम बढ़ाना और उसे जल्द से जल्द पूरा करना मौजूदा वक्त की सबसे बड़ी ़जरूरत है। किसी एक राज्य की नहीं बल्कि देश के प्रत्येक राज्य की पुलिस भ्रष्टाचार के दलदल में तो डूब ही रही है, इसके अलावा सत्ताधारी राजनीतिक दलों ने उसे अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति का जरिया भी बना लिया है। पिछले दिनों पुलिस तंत्र में सुधार के लिए गठित प्रकाश सिंह की अध्यक्षता वाले आयोग ने अपने प्रतिवेदन में कहा था कि प्राथमिक स्तर पर पुलिस को राजनीतिक इस्तेमाल से बचाना बहुत ़जरूरी है। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी इस आयोग की सिफारिशों को लागू करने का आदेश पारित किया। लेकिन देश की बहुतायत राज्य सरकारों ने पुलिस संगठन के ढॉंचे में तब्दीली करने से मुक्कमल तौर पर इन्कार कर दिया। तत्संबंधी सुधारों के प्रति उनकी यह धारणा बनने लगी कि ऐसा करने पर उनका राजनीतिक वर्चस्व कम़जोर होगा। इसके अलावा उनकी समझ से इसके जरिये केन्द्र को हस्तक्षेप करने का बहाना भी मिल जाएगा। गऱज यह कि अंग्रेजों के जमाने का गठित पुलिस-बल और आई.पी.सी. बिना किसी फेर-बदल के आज तक बदस्तूर चली आ रही है।
जितनी खराब हालत में राज्यों का पुलिस बल है, उससे तनिक भी बेहतर हालत उनकी ़खुफिया एजेंसियों की भी नहीं है। बहुत से राज्यों में इनका गठन अलग इकाई के रूप में नहीं होता बल्कि पुलिस बल के आऩुसंगिक संगठन के रूप में ही इनका गठन होता है। कहा तो यहां तक जाता है कि पुलिस बल के जिन लोगों को सजा दी जानी होती है उन्हें सी.आई.डी. में भेज दिया जाता है। इनका इस्तेमाल ज्यादातर शासक दल के लोग अपने विरोधियों की गुप्त-सूचनायें इकट्ठा करने में करते हैं। चूँकि आन्तरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी प्रांतीय सरकारों की होती है और तत्संबंधी पूरा तंत्र उन्हीं के अधीन होता है, इस कारण केन्द्रीय खुफिया एजेंसियॉं प्रांतीय एजेंसियों से अपना तालमेल नहीं बना पाती हैं। अगर केन्द्र में किसी दूसरे दल और प्रांत में उसके विरोधी दल की सरकार होती है तो यह काम और कठिन हो जाता है। आतंकवादी इस आपसी तालमेल के अभाव का भरपूर फायदा उठाते हैं। इस बीच ऐसी कई आतंकवादी घटनायें घटित हुई हैं जिनकी पूर्व सूचना केन्द्रीय एजेंसियों ने प्रांतीय एजेंसियों को संप्रेषित की, लेकिन प्रांतीय एजेंसियॉं और राज्य सरकारें अपनी सुरक्षा व्यवस्था को सही तौर पर अंाजम नहीं दे सकीं। इसे रोकने के लिए जिस एकीकृत खुफ़िया एजेंसी की बात ब्रजेश मिश्र कर रहे हैं, उसकी संप्रेषण क्षमता तालमेल के साथ अत्यधिक विकसित होगी और वह सिर्फ यह नहीं बताएगी कि अमुक शहर में बम-ब्लास्ट होने को है, अपितु वह यह बताएगी कि अमुक शहर में इस दिन, इस तारी़ख को, इस समय, इस स्थान पर आतंकवादी अपनी योजना को अंजाम देने वाले हैं।
ब्रजेश मिश्र के दिये गये सुझाव शत प्रतिशत सही हैं। यह भी मान कर चलना होगा कि इन पर अमल किये बिना आतंकी घटनाओं को रोक पाना सर्वथा असंभव है। लेकिन इसके पीछे एक “लेकिन’ भी लगा हुआ है। क्या एक संकल्पवान राजनीतिक इच्छा शक्ति के बिना इस लक्ष्य को पाया जा सकता है? कहने को हर दल के लोग कह रहे हैं कि आतंकवाद जैसे संवेदनशील मुद्दे पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। लेकिन इसे राजनीति में घसीटने से परहेज कोई नहीं कर रहा। आतंकवाद के मुद्दे पर भाजपा कांग्रेस को घसीट रही है और कांग्रेस भाजपा को। बहुत सी राज्य सरकारें पुलिस महकमें में सुधार की बाबत सुप्रीम कोर्ट के भी आदेश को मानने को तैयार नहीं हैं। जब कहीं आतंकी घटना घटित हो जाती है तो केन्द्र सरकार का अमला इसे राज्य सरकार की नाकामी बताता है और राज्य सरकार संबंधित सूचना समय पर न मुहैया कराने का आरोप केन्द्रीय खुफिया एजेंसियों पर लगाती है। ऐसी हालत में ब्रजेश मिश्र के इन उपयोगी सुझावों का अनुपालन आ़िखर करेगा कौन? फिर भी इतना तो मानकर चलना ही होगा कि इन सुझावों को अमल में लाये बिना आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई जीत पाना मुश्किल है। कठोर से कठोर कानून बनाने के बाद भी हमें यह तो सोचना ही पड़ेगा कि इसके िायान्वयन के लायक तंत्र हमारे पास है या नहीं।
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