हमेशा की तरह इस बार भी जैन सेवा संघ द्वारा सामूहिक क्षमापना सम्मेलन का आयोजन किया गया, परन्तु दिलचस्प बात यह रही कि इसी दिन एक अन्य सम्प्रदाय द्वारा तपोभिनन्दन कार्याम भी रखा गया। एक ही दिन दो अलग-अलग कार्याम एक साथ रखकर जैन सम्प्रदायों की दूरियां घटाने की बात हमें हास्यास्पद लगती है। तपोभिनन्दन के नाम पर पण्डाल निर्माण पर लाखों रुपए बर्बाद करना, खाने-पीने पर अनाप-शनाप खर्च, विज्ञापनों के माध्यम से अपनी वैभव-लक्ष्मी का प्रदर्शन और लक्की डा जैसे आडम्बरपूर्ण कार्य क्या वास्तव में तपोभिनन्दन कहलाने के लायक हैं?
कोई भी तपस्वी अपनी आत्मा के कल्याण के लिए तप करता है न कि भोगोपभोग की सामग्री प्राप्त करने हेतु। भगवान महावीर ने तो सदैव ही कर्मकाण्ड और आडम्बर का विरोध किया था, फिर अपने आपको भगवान के अनुयायी मानने वाले जैन धर्म के झंडाबरदारों को इस बात का ज्ञान तो होना ही चाहिए कि जैन धर्म त्याग प्रधान धर्म है न कि भोग प्रधान। टी.वी. जैसी तुच्छ वस्तु का लालच देकर भीड़ इकट्ठी करना निम्न कोटि का कार्य है। क्या जैन श्रावक-श्राविका अपना श्रावकाचार भूल गए हैं। क्या अन्य समाजों के सामने अपने लक्ष्मीपति होने का अभिमान दिखाकर वे सम्यक् दर्शी श्रावक कहलाने के योग्य हैं? कितना अच्छा होता अगर यही धन बिहार के बाढ़-पीड़ितों की जनसेवा में लगाया जाता।
अगर तपस्वियों का सम्मान ही करना था तो आगम साहित्य एवं सत्साहित्य की कमी नहीं है। साहित्य पठन से स्वाध्याय तो होता ही, कर्म-निर्जरा भी होती।
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