राजस्थान का इतिहास राजपूत बहादुरों के अभूतपूर्व एवं अद्भुत शौर्य-गाथाओं से भरा पड़ा है। उन असंख्य गाथाओं में से एक अत्यंत मार्मिक, अविश्र्वसनीय और अद्वितीय गाथा मैं आपके समक्ष प्रस्तुत करने जा रहा हूं। जिस प्रत्यक्षदर्शी ने इस लोमहर्षक घटना को देखा है, उसने बड़े भरोसे से इसका वर्णन एक प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथ में किया है। इस घटना का उल्लेख “आइन-ए-अकबरी’ में भी उपलब्ध है।
प्रिय पाठकों, मुगलों के शासनकाल में मुर्गों की भिड़न्त को मनोरंजन का बहुत बड़ा साधन माना जाता था। सम्राट अकबर तो इस उत्तेजना भरे खेल का प्रत्येक वर्ष आयोजन करते थे और अपने अधीनस्थ राज्यों के राजाओं को इस खेल में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित करते थे। हष्ट-पुष्ट मुर्गों को धातु अथवा तीखी हड्डियों से बने हथियारों से सजाया जाता था और उन्हें परस्पर लड़ने के लिए प्रेरित किया जाता था। मुर्गे उत्तेजित होकर एक-दूसरे पर घातक प्रहार करते थे और मरते दम तक लड़ते रहते थे।
एक बार मुर्गों की इस शक्ति-प्रदर्शन प्रतियोगिता में सम्राट अकबर का मुर्गा और बीकानेर के महाराजा राजसिंह का मुर्गा परस्पर लड़ रहे थे। दोनों शाही मुर्गे अत्यंत तगड़े थे। यह लड़ाई लगभग आधा घंटा चलती रही और अन्ततः सम्राट अकबर के मुर्गे ने महाराजा राजसिंह के मुर्गे को बुरी तरह से घायल करके उसका सिर काट दिया। लोग हर्षोल्लास से चिल्ला-चिल्ला कर तालियां पीटने लगे। महाराजा राजसिंह अपमानित से होकर आाोश से भर उठे। उन्होंने एकदम खड़े होकर दर्शकों का चीखना-चिल्लाना बन्द करवाया और धरती पर खून से लथपथ पड़ेे अपने मृत मुर्गे को संबोधित करके कहा, “बाहकार-बाहकार!”
जिसका अर्थ है- शीघ्र हमला करो।
उनके मुख से यह शब्द सुनकर सभी हतप्रभ रह गए। सम्राट अकबर के माथे पर बल पड़ गए। उन्होंने तनिक ाोध से महाराजा राजसिंह से कहा, “”इसका क्या मतलब है? आपके मुर्गे का सिर कट चुका है, फिर भी आप उसे लड़ने के लिए कह रहे हैं?”
“”यदि युद्घ में एक सिरविहीन राजपूत सैनिक लड़ सकता है तो मुर्गा क्यों नहीं लड़ सकता?” महाराजा राजसिंह ने जोश में भर कर मुंहतोड़ जवाब दिया।
सम्राट अकबर क्षण भर के लिए किंकर्त्तव्यविमूढ़ से रह गए। उन्होंने उपहास भरे स्वर में कहा, “”लगता है, अपने मुर्गे की पराजय से आप पगला गए हैं। हम आपके कथन से तनिक भी सहमत नहीं हैं।”
फिर उन्होंने आदेशात्मक स्वर में कहा, “”हम भी ऐसा राजपूत योद्घा देखने के इच्छुक हैं, जो सिर कट जाने के बाद भी युद्घ में लड़ता रहे।”
तब अपने कथन को सत्य प्रभावित करने के लिए बीकानेर के राजा ने उनसे तीन माह का समय मांगा और अपने राज्य लौट आए। अब उन्हें यह चिंता लग गई कि वह कैसे अपनी बात सिद्घ करें? यदि वह सम्राट अकबर के समक्ष किसी राजपूत योद्घा का ऐसा अद्भुत प्रदर्शन नहीं करते तो एक झूठे व्यक्ति के रूप में उनका अपमान होगा। ऐसा तभी संभव था कि या तो वह स्वयं अपने जीवन का बलिदान करें अथवा कोई बहादुर नौजवान स्वेच्छा से अपने प्राणों का त्याग कर सम्राट अकबर के सम्मुख उनके कथन को सार्थक कर दिखाए अन्यथा राजपूतों की बहादुरी को कलंक भरा प्रश्न चिह्न लग जाएगा।
तीन माह की अवधि निरन्तर कम होती जा रही थी और साथ ही महाराजा राजसिंह की चिंता और उदासी भी बढ़ती जा रही थी। सहसा, एक दिन उनके एक वफादार राजपूत सेवक ने प्रस्तुत होकर उनसे कहा, “”अन्नदाता! अपनी निराशा दूर कीजिए और मुझे अकबर के दरबार में ले चलिए। मैंने आज ही लक्ष्मी नारायण के मन्दिर में जाकर यह प्रण लिया है कि मैं आपके कथन का अकबर के सामने प्रदर्शन करूंगा और आपकी तथा राजपूतों की बहादुरी को कलंकित नहीं होने दूंगा।”
अपने प्रिय सेवक के मुख से उसकी दृढ़- प्रतिज्ञा की बात सुनकर महाराजा राजसिंह चिंतारहित हो गए। निश्र्चित समय पर वह अपने सेवक सहित सम्राट अकबर के दरबार में उपस्थित हुये। उन्होंने सेवक को अपनी तलवार पकड़ाई और दरबार में मौजूद लोगों को चेतावनी दी, “”जो कोई इस बहादुर राजपूत का सिर धड़ से अलग करेगा, वह इस बात का ध्यान रखे कि इसका सिर विहीन धड़ उससे अपनी मृत्यु का प्रतिशेध अवश्य ही लेगा।”
सम्राट अकबर सहित सभी दरबारी खिलखिला कर हंस पड़े, क्योंकि सभी को पूर्णतया विश्र्वास था कि ऐसा चमत्कार होना सर्वथा असंभव ही है। अंततः सम्राट अकबर ने अपने एक सैनिक को चौकड़ी मार कर धरती पर बैठे नौजवान का सिर काटने का आदेश दिया। आदेश होते ही तुरन्त सैनिक की म्यान से चमचमाती हुई तलवार निकली। अगले ही क्षण, जैसे ही उस राजपूत का सिर कट कर धरती पर गिरा, उसने बिजली की-सी तेजी से अपनी हाथ में पकड़ी तलवार से उस सैनिक की गर्दन काट दी और सम्राट अकबर के सिंहासन की ओर बढ़ने लगा। चारों ओर खून के फव्वारे फूट रहे थे। लोग स्तब्ध खड़े इस अविश्र्वसनीय दृश्य को देख रहे थे।
सिर विहीन राजपूत नौजवान तलवार लहराता हुआ तेजी से सम्राट अकबर के सिंहासन की ओर बढ़ रहा था। सहसा दरबारियों को जैसे होश आया, उन्होंने तीव्रता से लपक कर उस राजपूत योद्घा को पकड़ लिया और तब तक गिरफ्त में रखा जब तक कि उसका शव निर्जीव नहीं हो गया।
महाराजा राजसिंह के नेत्र सजल हो उठे। उनके राजपूत सेवक ने अपने प्राणों की आहुति देकर उनके कथन को सत्य प्रमाणित किया। सम्राट अकबर ने प्रसन्न होकर महाराजा राजसिंह को सम्मानित किया और इस बात को सच्चे हृदय से स्वीकार भी किया कि वास्तव में ही राजपूत अपनी आन-बान और शान के लिए अपने प्राणों तक को न्योछावर करने के लिए तनिक भी नहीं हिचकिचाते। स्वर्ण अक्षरों में लिखे राजस्थान के इतिहास के पन्ने सदैव इस बात के साक्षी रहेंगे।
– गुरिंदर भरतग़ढिया
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