जम्मू-कश्मीर में जारी हिंसा एवं अशांति पर पाकिस्तान ने जैसा रवैया अपनाया है वह हर हाल में आपत्तिजनक है। आखिर पाकिस्तान ऐसा करके कौन-सा उद्देश्य सिद्घ करना चाहता है? पहले पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने 12 अगस्त को कहा कि जम्मू-कश्मीर में पुलिस कार्रवाई लोगों के विरुद्घ ताकत का ज्यादतीपूर्ण और गलत इस्तेमाल है। उन्होंने सुरक्षाबलों की कार्रवाई शीघ्र रोकने की मॉंग की। किसी दूसरे देश का विदेशमंत्री हमारे आंतरिक मामलों में टिप्पणी करे, यह बिल्कुल असह्य है। इस नाते विदेश मंत्रालय ने इसका कड़ा प्रतिवाद करते हुए इसे आतंरिक मामलों में सीधा हस्तक्षेप करार दिया। इसमें यह चेतावनी भी शामिल थी कि अगर पाकिस्तान इससे बाज नहीं आया तो समग्र बातचीत की प्रिाया प्रभावित होगी। इतने कड़े प्रतिवाद के बाद यह उम्मीद की जा रही थी कि पाकिस्तान अब शायद खामोश हो जाएगा। किंतु उसके एक दिन बाद ही पाकिस्तानी संसद के निचले सदन नेशनल असेम्बली में बाजाब्ता प्रस्ताव पारित कर कश्मीर में सुरक्षाबलों पर अतिशय बल प्रयोग करने का आरोप लगाया गया एवं मारे गए लोगों को शहीद का दर्जा देते हुए शोक प्रकट किया गया। इसमें यह भी कहा गया कि मानवाधिकार उल्लंघन पर तत्काल रोक लगाई जाए। दोनों देशों के बीच शांति प्रिाया जारी रहने के दौर में पाकिस्तान से ऐसे अमर्यादित व्यवहार की कतई उम्मीद नहीं थी। इससे पाकिस्तान की कश्मीर नीति पुराने दौर में लौटती दिख रही है। इसका प्रमाण पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता मुहम्मद सादिक के बयान से मिल जाता है। उन्होंने 13 अगस्त के बयान में कहा कि पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर में बिगड़ती स्थिति का मामला संयुक्त राष्ट जैसे अंतर्राष्टीय संगठनों में उठाने की कोशिश कर रहा है। उनके अनुसार पाकिस्तान एक प्रस्ताव आगे बढ़ा रहा है, जिसके तहत अंतर्राष्टीय समुदाय खासतौर पर संयुक्त राष्ट, ऑर्गेनाइजेशन ऑफ द इस्लामिक कॉनेंस और मानवाधिकार संगठनों से इस मामले में संज्ञान लेने की अपील की गई है। यह कश्मीर मुद्दे के अंतर्राष्टीयकरण की खुली कोशिश है। चूंकि भारत द्वारा 12 अगस्त को विरोध दर्ज कराने के बाद असेम्बली में प्रस्ताव पारित हुआ एवं यह बयान आया, इसलिए स्वाभाविक था कि अगले प्रतिवाद या विरोध की भाषा ज्यादा कड़ी हो। महाभियोग के खतरे का सामना कर रहे राष्टपति परवेज मुशर्रफ तक ने कश्मीर राग अलापा। सात-आठ साल पहले पाकिस्तान के ऐसे बयानों एवं गतिविधियों को स्वाभाविक माना जा सकता था। लेकिन शांति प्रिाया के कारण यह माना जा रहा है कि दोनों के संबंधों के बीच जमी बर्फ काफी पिघली है एवं परस्पर विश्र्वास की नींव पड़ गई है। वास्तव में संबंधों की चिंता करने वाले एक-एक बयान सोच-समझकर देते हैं। यह तो सीधा भारत विरोधी बयान है। इसमें परिस्थितियों का लाभ उठाकर अंदर से विद्रोह भड़काने, अंतर्राष्टीय समुदाय के बीच भारत को कटघरे में खड़ा करने तथा खासकर इस्लामी देशों में इसकी छवि खराब करने का रवैया है। आखिर विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता किसे कट्टरपंथी कह रहे हैं? क्या वे यह बताना चाहते हैं कश्मीर के मुस्लिम समुदाय के खिलाफ हिन्दू सरकार की शह पर हिंसा व आर्थिक नाकेबंदी का सहारा ले रहे हैं?
ऐसे बयानों एवं गतिविधियों के पीछे कैसी मानसिकता काम कर रही है, इसे समझना बिल्कुल आसान है। पाकिस्तान का यह पुराना इतिहास है कि जब-जब वह आंतरिक संकट में फंसा है, कश्मीर राग के सहारे नेतागण उससे उबरने की कोशिश करते रहे हैं। बढ़ती महंगाई, आतंकवाद एवं अन्य समस्याओं से जूझ रही पाकिस्तान की सरकार शायद इसे जनता का ध्यान बंटाने का अवसर मान रही है। मुशर्रफ के सामने तो अपने अस्तित्व का संकट था ही। लेकिन पाकिस्तान के नेतागण कुछ बातें भूल रहे हैं। उन्हें कश्मीर मुद्दे पर पहले जिन पश्र्चिमी देशों का थोड़ा-बहुत साथ मिल जाता था उनके साथ भारत के अब ज्यादा बेहतर संबंध हैं। भारत के प्रति उनके अंदर सम्मान का भाव है एवं वे इसे समान मित्र का दर्जा देते हैं। इसके समानातंर पाकिस्तान की छवि आंतकवाद को पैदा करने वाले बंद एवं कट्टरपंथी बहुमत वाले समाज की है। उसके साथ संबंधों में दया का भाव अधिक है। वास्तव में अंतर्राष्टीय जगत में उसकी कोई औकात नहीं है। वह यह क्यों भूल रहा है कि जिस दौर में वह अमेरिका एवं उसके साथी देशों का दुलारा था उसमें भी वह भारत को दबाव में नहीं ला सका तो अब तो झेलम एवं चेनाब से काफी पानी बह चुका है। उसे भारत की, कश्मीर मामले पर बाज आने की चेतावनी याद रखनी चाहिए। भारतीय विदेश मंत्रालय का यह कहना बिल्कुल सही है कि ऐसे रवैये का वह अतीत में खामियाजा भुगत चुका है। जम्मू-कश्मीर में हुई हिंसा से पूरे देश में चिंता है और इसे लेकर हमारे बीच राजनीतिक मतभेद भी हैं। लेकिन इसके पीछे उन्हीं अलगाववादियों एवं कट्टरपंथियों का हाथ है जिन्हें पाकिस्तान शह देता है। पाकिस्तान या कोई देश यदि यह सोचता है कि इसका वह बेजा लाभ उठा लेगा तो यह उसकी भूल है। भारत में पाकिस्तान से ज्यादा मुसलमान हैं और वे यहां किसी भी इस्लामी देश से कम सुरक्षित नहीं हैं। आतंकवादियों, अलगाववादियों एवं मजहबी कट्टरपंथियों ने अवश्य हिन्दू-मुसलमान की समस्या खड़ी करने की कोशिश की। पंडितों को घाटी से पलायन कराकर उन्होंने अपने उद्देश्य में थोड़ी सफलता भी पाई, पर भारत का आम मुसलमान कश्मीर को हिन्दू-मुस्लिम समस्या के रूप में आज भी नहीं देखता है।
अगर पाकिस्तान को कश्मीरियों की इतनी ही चिंता है और कश्मीर उनके रग-रग में है तो यहां के फल व्यापारियों के लिए वह मुजफ्फराबाद का रास्ता खोल क्यों नहीं देता? क्यों नहीं इनके फलों की खरीद के लिए वह विशेष घोषणा करता है? साफ है कि उसका ध्यान केवल परिस्थिति का लाभ उठाकर कई प्रकार से अपना उल्लू सीधा करने पर है। यह बात अलग है कि उसके किसी उद्देश्य की इससे सिद्घि नहीं होने वाली। आखिर वह क्यों नहीं सोचता कि भारत ने आज तक उसकी समस्याओं की आग में कभी घी डालने का काम नहीं किया। अनेक संगठन ऐसे हैं जो भारत से सहयोग मांगते भी हैं, पर भारत इसे पाकिस्तान का आंतरिक मामला करार देता है। पश्र्चिमोत्तर के एक वर्ग का भारत प्रेम आज भी उसी प्रकार है जैसा 1947 में था। लेकिन भारत इनका कभी लाभ उठाने की कोशिश नहीं करता। आतंकवाद को छोड़कर ऐसा कोई मसला नहीं है जिस पर भारत पाकिस्तान की वैश्र्विक खिलाफत करता है और यह पाकिस्तान के हुक्मरान भी जानते हैं कि भारत केन्द्रित आतंकवाद की जड़ पाकिस्तान में निहित है। इसे एक त्रासदी ही कहना होगा कि पाकिस्तान दोनों देशों के गहरे संबंधों के दूरगामी लाभों की अनदेखी करते हुए तनाव एवं अविश्र्वास बढ़ाने वाले कार्य करने की ओर अग्रसर हो रहा है। पाकिस्तान के गठबंधन सरकार के दोनों प्रमुख दलों के नेताओं आसिफ अली जरदारी एवं नवाज शरीफ के बयानों से द्विपक्षीय संबंधों के संदर्भ में जो उम्मीद की किरण जागी थी उस पर कश्मीर राग का पानी पड़ रहा है और यह अत्यंत ही चिंताजनक है।
– अवधेश कुमार
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