रिक्शे की प्रतीक्षा करती हुई उसे प्रियंवदा आंटी खड़ी दिखाई दीं। उसने प्रणाम किया और अपने आने का कारण बता कर पूछा, “”आंटी, आशा कैसी है, अब तो उसने बी.ए. कर लिया होगा।”
“”नहीं धरम, इसी वर्ष उसने इंटरमीडिएट पास किया है। तुम्हें बहुत याद करती है। चलो, उससे मिलकर चले जाना।”
“”आज नहीं आंटी, मैं चार-पांच दिन में गांव से लौटूंगा तब मिल लूंगा। हां, आपसे एक बात कहना तो भूल ही गया कि मेरे लिये एक कमरा देखकर रखना। आप लोगों के पास-पड़ोस में रहूंगा तो अच्छा रहेगा।” प्रियंवदा ने उसकी सहायता करने की हामी भरी। वह रिक्शा लेकर स्टेशन की ओर चल पड़ा।
निरी बालिका थी आशा, जब वह उसे पढ़ाने जाता था। दसवीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी उसने। फिर ऐसा क्या हुआ कि वह इंटरमीडिएट में छः वर्ष तक झूलती रही। पुरानी स्मृतियां एक-एक कर सिनेमा के पर्दे की भांति उसके सामने आने लगीं। सुन्दरता और भोलापन, सादगी और सहृदयता से ओत-प्रोत आशा। धर्मेश प्यार से उसे “बुलबुल’ कहा करता था। उसकी आवाज भी कुछ ऐसी ही थी। धर्मेश को पहुंचने में थोड़ी-सी भी देर हो जाती थी तो वह रूठ जाती थी। बड़ी-बड़ी तीखी आंखों से मोती झरने लगते थे। इतनी सुन्दर और दिलकश आंखें उसने पायी हैं कि कोई एक बार उनमें देख ले तो उन्हीं में खो जाए। इन्हीं विचारों में गोते लगाता वह गांव पहुंच गया।
बूढ़े मां-बाप को जमीन बेचने के लिये तैयार करने में उसे काफी मशक्कत करनी पड़ी। चार बीघा जमीन गांव से बहुत दूर थी, जो खाली पड़ी रहती थी। उसे बेच दिया धर्मेश ने। पैसे लेकर शहर आया और अपना नियुक्ति-पत्र ाय कर लिया। वह खुश था, नौकरी पाकर या आशा से मिलने का अवसर पाकर, यह कहना कठिन है।
आशा ने जबसे सुना कि धर्मेश को इसी शहर में नौकरी मिलने वाली है, तो उसकी भी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। सबेरे से ही वह घर की सफाई और सजावट में लगी थी। उसका दिल कह रहा था कि धर्मेश आज अवश्य आयेगा। “”क्या बात है आशा, अब तक तुमने नाश्ता भी नहीं किया?” कहती हुई उसकी मम्मी ने कमरे में प्रवेश किया। उन्हें पता था कि आशा इतने मन से सफाई करने में क्यों तल्लीन है।
आशा ने मनुहार करते हुए कहा, “”मम्मी, आपने कोई कमरा देखा या नहीं? आज धर्मेश जी आयेंगे तो कहां रहेंगेे?”
मम्मी तो जैसे इस प्रश्न के लिये तैयार होकर आयी थीं। बोलीं, “”हां आशा, मैं सोच रही हूं सामने वाला मकान दो-तीन महीने में खाली होने वाला है। वर्मा जी अपने नये मकान में जाने वाले हैं। एलाटमेंट का मकान है। अगर धर्मेश इसे एलाट करवा ले तो उसके लिये बहुत अच्छा रहेगा। तब तक वह अपने साथ रह लेगा। ऊपर वाला कमरा हम लोगों के इस्तेमाल में आता ही नहीं है। वही हम उसे दे देंगे।”
मम्मी के इस प्रस्ताव से आशा को बहुत खुशी हुई। वह ऊपर वाले कमरे को व्यवस्थित करने में लग गई।
धर्मेश कॉलेज से सीधा आंटी के पास आया। उनके सुझाव से उसे बेहद खुशी हुई। वह प्रियंवदा आंटी के सद्व्यवहार से बहुत प्रभावित हुआ। उसने सोचा, आजकल इतना सब कौन करता है। वह भाग्यशाली है, जो ऐसे अच्छे लोगों के संपर्क में है। आशा ने बड़े ही मनोयोग से धर्मेश का कमरा सजा दिया।
धर्मेश और आशा बहुत खुश थे। उन्हें मुंहमांगी मुराद मिल गई। कभी-कभी आदमी का भाग्य उसकी आकांक्षाओं को इस कदर पूर्ण कर देता है कि उसे अपने भाग्य पर विश्र्वास ही नहीं होता है। इन दोनों को भी ऐसा ही अनुभव हो रहा था।
बचपन की चाहत जब यौवन की देहलीज पर कदम रखती है तो उसका रंग बहुत गहरा और लुभावना होता है। वहां जन्म-जन्म तक साथ निभाने के वादे नहीं होते। एक अनकहा संकल्प होता है, जो दो सहृदय प्रेमियों की भावना की डोर को अनजाने में ही जोड़ देता है।
धर्मेश और आशा आज उसी मजबूत डोर से बंध गये हैं। एक-दूसरे की कमजोरी बन गये हैं। आशा को अपनी परीक्षा की चिंता नहीं है, बल्कि धरम को इसकी फिा रहती है। नोट्स बनाने से लेकर परीक्षा की तैयारी करवाना सब धरम के ही जिम्मे है और धर्मेश की जरूरतों की चिंता आशा करती है। चाय-नाश्ते से लेकर कपड़ों की सफाई आदि उसी के जिम्मे है।
प्रेम सदा पराश्रयी होता है। वह दूसरे पक्ष के अधीन रहता ही है। दोनों को यह अनुभूति तब हुई, जब सत्र का अंत हो गया और धरम अपने गांव जाने के लिये तैयार होने लगा। उसकी तैयारी देखकर आशा की आंखें नम हो आईं। उसके लिए इस बात की कल्पना भी असहज थी कि धरम कुछ ही दिनों के लिए ही सही, उससे दूर चला जाएगा। उसके जाने की तैयारी में वह कोई सहायता नहीं कर रही थी। सोफे पर इस तरह मौन और शान्त बैठी थी, जैसे कोई अपरिचित और मेहमान हो।
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