लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनकी पार्टी माकपा उनके अस्सीवें जन्मदिन पर इतना नायाब तोहफा उनके हु़जूर में पेश करेगी। लेकिन हुआ ऐसा ही है। 25 जुलाई को उनका जन्मदिन था और इसके ठीक दो दिन पहले यानी कि 23 जुलाई को महासचिव प्रकाश करात की उपस्थिति में माकपा से उनके निष्कासन का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया। विडम्बना यह कि उनसे न कोई स्पष्टीकरण मांगा गया और न ही इस संबंध में उन्हें कोई नोटिस दी गई। उनका गुनाह बस इतना है कि पार्टी के दबावों को दरकिनार करते वे अध्यक्ष के आसन पर बने रहे। यह भी एक विडम्बना ही है कि खुले तौर पर पार्टी के महासचिव यह बयान प्रसारित करते रहे कि पद छोड़ने या न छोड़ने का निर्णय पार्टी ने सोमनाथ के विवेक पर छोड़ दिया है। लेकिन भीतर-भीतर पार्टी के वरिष्ठ और जिम्मेदार लोग उन पर यह दबाव बनाते रहे कि उन्हें पार्टी लाइन का अनुसरण करते हुए इस्तीफा दे देना चाहिए। लेकिन संप्रग सरकार से वामपंथियों द्वारा समर्थन वापस लेने के बावजूद सोम दा ने अपने विचार पार्टी लाइन से अलग ही रखे। समर्थन वापसी की सूची में माकपा द्वारा उनका भी नाम डालना उन्हें बहुत नागरवार गुजरा था। इसके अलावा उन्होंने बहुत स्पष्ट शब्दों में माकपा के उस कदम की भी आलोचना की थी, जिसके तहत संप्रग सरकार को गिराने के लिए वह भाजपा के साथ मतदान करने को राजी थी। कयास यही लगाया जा रहा था कि सोमनाथ विश्र्वास-मत की कार्यवाही शुरू होने के ठीक पहले इस्तीफा ़जरूर दे देंगे।
लेकिन सारे कयासों को झुठलाते हुए वे लोकसभाध्यक्ष के पद पर बने रहे और सदन की कार्यवाही को भी बहुत निष्पक्ष ढंग से चलाया। उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि इस कुर्सी पर बैठने के बाद व्यक्ति अपनी दलीय सीमाओं से बाहर आ जाता है। उनकी पार्टी और उसके महासचिव प्रकाश करात सरकार गिराने के संबंध में इस कदर अहं-पीड़ित हो गये थे कि उन्हें इस बात का भी खयाल न रहा कि वे पार्टी के श्रेष्ठ और वरिष्ठ लोगों में एक सोमनाथ के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार कर रहे हैं। सोमनाथ चटर्जी ने चार दशकों तक पार्टी की सेवा की है और वे इस दरम्यान 10 बार सांसद रहे हैं। उन्हें सर्वश्रेष्ठ सांसद होने का भी सम्मान मिल चुका है। संसद के भीतर व्यवस्था स्थापन के संबंध में उनके प्रयास सराहे जाते हैं। संसद और सांसदों की गरिमा की रक्षा के लिए वे न्यायपालिका और राष्टपति की सत्ता से टकराने का माद्दा भी दिखाते रहे हैं। यही कारण है कि विश्र्वास मत की कार्यवाही शुरू होने के पहले उन्होंने जो सर्वदलीय बैठक बुलाई थी, उसमें सभी दलों के प्रतिनिधियों ने उनके प्रति विश्र्वास जताया था। ़खूबी तो यह कि उस बैठक में माकपा का भी प्रतिनिधि शामिल था।
सोमनाथ चटर्जी का व्यक्तित्व एक प्रखर और बेलाग वक्ता का रहा है। पार्टी स्तर पर भी वे इसके पूर्व अपने विचार बड़ी साफगोई के साथ रखते रहे हैं। इस निष्कासन के पहले 1992 में उन्हें और उनके एक अन्य साथी चौधरी सैफुद्दीन को पार्टी ने कारण बताओ नोटिस दिया था। उन पर आरोप यह था कि वे पार्टी लाइन से अलग हट कर कांग्रेस से सांठ-गांठ कर रहे हैं। बाद में हालात ने ऐसी करवट बदली कि चटर्जी का ही पक्ष सही निकला और कालांतर में माकपा कांग्रेस के समर्थन में आ गई। पार्टी अनुशासन के मामले में माकपा ने हमेशा दोहरी नीति का अनुसरण किया है। केरल का उदाहरण लिया जा सकता है। वहॉं बुजुर्ग नेता मुख्यमंत्री अच्युतानंदन से माकपा के प्रदेश सचिव पिनारयी विजयन का टकराव तथा विरोध छिपा नहीं है। पार्टी ने करीब एक साल पहले दोनों को पार्टी से निकाल दिया था। लेकिन वे लगातार अपने-अपने पदों पर बने रहे और आज भी बने हैं। थक-हार कर पार्टी ने दोनों नेताओं का निलंबन वापस ले लिया। प्रदेश महासचिव विजयन पर खुद मुख्यमंत्री अच्युतानंदन ने करोड़ों रुपये के लवलीन सौदे में लिप्त रहने का आरोप लगाया है। लेकिन सोमनाथ जैसे श्रेष्ठ विचारक को जिस पार्टी ने एक झटके में बाहर का दरवाजा दिखा दिया उसने अपने मुख्यमंत्री द्वारा लगाये गये इतने गंभीर आरोप पर आज तक किसी तरह की कार्यवाही करने की चेष्टा नहीं की।
बिना किसी जवाब-तलबी के सोमनाथ को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से वंचित किये जाने की कार्यवाही को महासचिव करात जायज बताते हुए कहते हैं कि पार्टी संविधान में समरी एक्सपल्शन का प्रावधान है जिसमें न नोटिस दी जाती है और न कारण सुने जाते हैं। उस प्रावधान का इतिहास यह है कि 1930 के दशक में तानाशाह स्टालिन ने अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने के लिए इसे पार्टी संविधान में घुसेड़ा था। सही तो यह भी है कि जनतांत्रिक निष्ठा रखने वाली किसी भी राजनीतिक पार्टी में ऐसा तानशाही प्रावधान हो ही नहीं सकता। अगर माकपा के संविधान में यह मौजूद है, तो यह स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है कि उसका वास्तविक चरित्र तानाशाह का ही है, उसकी लोकतंत्र के प्रति व्यक्त की जा रही निष्ठायें सिर्फ औरों को गुमराह करने के लिए हैं। माकपा की इस कार्यवाही से सोमनाथ चटर्जी का तो कुछ बनने-बिगड़ने वाला नहीं है, क्योंकि संप्रग सहित बहुत सारे दल उनके अध्यक्ष पद की गरिमा को सम्मानित कर रहे हैं। लेकिन माकपा नेतृत्व को यह ़जरूर सोचना होगा कि अब क्या कोई उस पार्टी में सोमनाथ चटर्जी होने की हैसियत रखता है।
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