यदि आपने लोकसभा में हुई विश्र्वास-प्रस्ताव की बहस को देखा (सुनने का तो मौका ही कहॉं दिया था हमारे सांसदों ने!) है, तो शायद कांग्रेस के युवराज सांसद राहुल गांधी को भी एक अच्छा-सा भाषण करते देखा होगा। जिन कुछ सांसदों को श्रोता ढंग से सुन पाये, संयोग से उनमें राहुल गांधी भी एक हैं। अपने उस भाषण में राहुल गांधी ने विदर्भ की एक ग्रामीण महिला का नाम भी लिया था जिसके किसान पति ने हालात से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी। महिला का नाम कलावती है। कुछ सांसदों को इस नाम से कुछ और समझ आ रहा था शायद, इसलिए राहुल ने दुहराया श्रीमती कलावती…। उन्होंने यह नाम भले ही ग्रामीण इलाकों में जीवन बेहतर बनाने के संदर्भ में लिया हो, लेकिन कुछ लोगों को लगा, इस महिला की मदद करनी चाहिए। बिहार के एक संगठन ने कलावती को 25 ह़जार रुपये महीना देने की घोषणा कर दी है। ़जरूरतमंदों की सहायता का भाव यदि किसी के मन में जागता है तो यह एक अच्छी बात है। लेकिन इस घटना पर टिप्पणी करते हुए एक विद्यार्थी ने जब यह सवाल उठाया कि यदि कलावती का नाम किसी और सांसद ने लिया होता तब भी क्या उसे इसी तरह सहायता मिलती, तो वहॉं खड़े किसी व्यक्ति को तत्काल कोई उत्तर नहीं सूझा था। लेकिन यह सवाल महत्वपूर्ण है और इसका उत्तर दिया जाना भी। यह सवाल किसी एक विद्यार्थी का नहीं है और न ही वह किसी एक सांसद विशेष के संदर्भ में उछाला गया है। यह सवाल वह पूरी पीढ़ी हमसे पूछ रही है जिसे हमने एक भ्रष्ट राजनीतिक वातावरण में जीने के लिए बाध्य कर दिया है। बात भले ही एक सांसद के संदर्भ में हो रही थी, लेकिन यहॉं राहुल गांधी उस व्यवस्था के प्रतीक बन जाते हैं, जो चाटुकारिता को संरक्षण देती है।
राहुल गांधी के इस भाषण को सबने सराहा है। भाषण था भी अच्छा। यह एक अच्छी बात है कि बिहार की किसी संस्था को उस भाषण से प्रेरणा मिली और कम से कम एक दुःखी ग्रामीण महिला को मौका मिला है अपने परिवार को ढंग से पालने का। लेकिन सवाल यह है कि क्या ऐसा मौका किसी राहुल के संसद में भाषण देने से ही पैदा होना चाहिए? सरकार के सारे दावों और वादों के बावजूद आज भी देश में प्रतिदिन औसतन तीन किसान आत्महत्या कर रहे हैं। इन दुःखी परिवारों का ध्यान किसी को क्यों नहीं आ रहा?
इसमें कोई शक नहीं कि किसानों की वर्तमान दुर्दशा के लिए दोषी वह व्यवस्था ही है जिसमें किसी किसान को अनुचित ब्याज दरों पर ऋण लेना पड़ता है। सिंचाई के लिए बड़ी हद तक वर्षा पर निर्भर रहने वाले देश में किसानों की फसलें नष्ट होना कोई कल्पनातीत बात नहीं है और इसीलिए यह ़जरूरी है कि खेती और खेतिहरों के प्रति व्यवस्था अपना दृष्टिकोण बदले, अपने दायित्व निभाए। नीतियां ऐसी बनें कि सारे किसानों का हित सध सके। नीतियों का िायान्वयन ऐसे हो कि किसानों का शोषण न हो सके। सारी घोषणाओं के बावजूद पिछले चार दशकों की कहानी कुल मिलाकर गलत वरीयताओं और गलत सोच की ही कहानी रही है। यह सही है कि इस बीच “हरित ाांति’ भी देश में हुई, लेकिन उस ाांति के लाभों को हम स्थायित्व नहीं दे पाये। यह सारी बातें कई बार दोहरायी जा चुकी हैं। जो भी राजनीतिक दल जब सत्ता में नहीं होता, सत्ता पर ऐसे ही आरोप लगाता है।
बहरहाल, बात सिर्फ सरकारी नीतियों तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए। कलावती के मामले में जो कुछ अब बिहार के एक संगठन ने किया है वह काम किसी राहुल गांधी के भाषण से पहले क्यों नहीं हुआ? किसानों की दुर्दशा के संदर्भ में कलावती एक नाम नहीं रह जाता, यह अकेला नाम उस सारी ग्रामीण महिलाओं का प्रतीक है जो खेती की बदहाली के चलते आत्महत्या के बाद होने वाले किसानों के परिवारों को पाल रही हैं। उचित तो यही था कि विश्र्वास मत के बाद हमारे राजनेता, राजनीतिक दल कलावतियों (पढ़िए जनता) के सवालों की तरफ मुड़ते। लेकिन हमारे कर्णधार तो आरोपों-प्रत्यारोपों से उबरना ही नहीं चाहते। अब स्ंिटग ऑपरेशनों की राजनीति चल रही है। यह सिद्घ करने की कोशिश हो रही है कि किसने किसको खरीदा। सांसदों की खरीद-फरोख्त के किस्से अब यदि किसी को नहीं चौंकाते तो इसका सीधा मतलब यही है कि अब जनता राजनीति और राजनेताओं की करतूतों को अच्छी तरह समझती है। अपराधी को स़जा मिले, यह बात तो समझ आती है, लेकिन मेरे अपराधी और तेरे अपराधी में जिस तरह हमारे राजनेता अंतर करते हैं उसे समझना भी ़जरूरी है।
यह दुर्भाग्य ही है कि हमारी समूची राजनीति चुनाव से चुनाव तक की राजनीति बनकर रह गयी है। विश्र्वास मत की प्रिाया के दौरान हुई सारी बहस का मुद्दा भी देश और समाज की चिंता नहीं थी, कोई प्रधानमंत्री को निकम्मा बता रहा था और कोई विपक्ष को अनुत्तरदायी। किसी कलावती की बेहतरी के बजाए कुर्सी बचाए रखना या कुर्सी पाना ही हमारी राजनीति का मूलमंत्र बन गया है। कुछ अरसा पहले जब देश की कृषि नीति के औचित्य पर सवाल उठे थे, तो हमारे कृषि मंत्री हमारे किसानों को सलाह दे रहे थे कि वे वैकल्पिक रोजगार खोजें। क्या यह सरकार का दायित्व नहीं है कि वह वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था करे? उद्योगों को गांवों तक पहुँचाए? नये उद्योग-धंधों के लिए स्थितियां बनाये? बेहतर कृषि की संभावनाओं को साकार करे? ऐसी व्यवस्था करे कि किसान को फसल का उचित मूल्य मिल सके?
नहीं, हमारे राजनेता यह सब सोचना नहीं चाहते। वे क्या और कैसा सोचते हैं, का एक उदाहरण शिवसेना के कार्याध्यक्ष उद्घव ठाकरे ने हाल ही में दिया है। राहुल गांधी की कांग्रेस कलावती के मुद्दे का लाभ न उठा ले, इसके लिए शिवसेना नेता ने विदर्भ के किसानों को मुंबई आने का निमंत्रण दिया है। उन्हें रोजगार देने का आश्र्वासन दिया है। उद्घव सही कहते हैं कि एक कलावती को 25 हजार रुपये महीना देने से क्षेत्र के किसानों की समस्याओं का समाधान नहीं होगा। लेकिन कितने किसानों को मुंबई बुलाकर रोजगार देंगे उद्घव ठाकरे? कलावती को पैसा मिले या किसी किसान को रोजगार, दोनों ही अच्छी बातें हैं। ़जरूरी भी हैं, लेकिन ऐसा करने के पीछे यदि उद्देश्य राजनीतिक हितों को साधना हो तो बात बनती नहीं, बिगड़ती है।
हमारे राजनेताओं में कुल मिलाकर बुनियादी ईमानदारी का अभाव है। जब चुनाव जीतना ही राजनीति का उद्देश्य बन जाता है तो अंततः कलावती ठगी ही जाती है। 25 हजार रुपये प्रतिमाह से उस कलावती का पेट तो भर जाएगा जिसे राहुल गांधी मिले थे, लेकिन सवाल उन लाखों कलावतियों का है जो भूखे पेट सोने के लिए मजबूर हैं। इस विवशता से उबरने के लिए सही और सच्ची राजनीति के साथ-साथ एक सामाजिक संवेदनशीलता की आवश्यकता है,ताकि किसी राहुल गांधी के कहने के बाद ही मदद के लिए हाथ न उठे।
– विश्वनाथ सचदेव
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