प्रसिद्ध आर्थिक सलाहकार कंपनी मैकेंजी ने कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए ऊर्जा कुशलता में सुधार करने पर जोर दिया है। आर्थिक विकास की प्रिाया में ऊर्जा का अधिकाधिक प्रयोग होता है, जैसे-स्टील के निर्माण में लोहा गलाने के लिए ऊर्जा के प्रमुख स्रोत कोयला एवं तेल हैं। इन पदार्थों को जलाने से कार्बन डाईआक्साड का उत्सर्जन होता है, जिससे धरती का तापमान बढ़ रहा है। तापमान में यह वृद्घि अनिष्टकारी हो सकती है, जैसे-ग्लेशियरों के गलने से समुद्र के जल स्तर में वृद्घि से मुम्बई एवं न्यूयार्क जैसे शहर डूब सकते हैं, सूर्य की हानिकारक किरणें प्रवेश करने से रोग बढ़ सकते हैं; अथवा तापमान में वृद्घि के कारण फसलों की उपज कम हो सकती है। इन दुष्प्रभावों से बचने के लिए मैकेंजी ने सुझाव दिया है कि ऊर्जा के उपयोग की कुशलता में सुधार करना चाहिए। वर्तमान में एक टन कार्बन उत्सर्जन से हम 740 डॉलर की आय हासिल कर रहे हैं। मैकेंजी ने अनुमान लगाया है कि यदि उतने ही टन कार्बन से 7300 डॉलर की आय हासिल कर ली जाए, तो कुल कार्बन उत्सर्जन को 2050 में 85 गीगा टन से घटाकर 20 गीगा टन के स्तर पर लाया जा सकता है। इस कुशलता को हासिल करने के लिए मकानों एवं उद्योगों में इंसुलेशन में सुधार, ज्यादा एवरेज देने वाली गाड़ियों का उपयोग, गन्ने से बने एथनाल का उत्पादन, सौर ऊर्जा से पानी गर्म करना एवं जंगलों को बचाने जैसे उपायों को शीघ्र लागू करना होगा। मैकेंजी का यह सुझाव सही दिशा में है।
मैकेंजी ने यह भी बताया है कि कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण करने में विकासशील देशों की विशेष भूमिका रहेगी। ऊर्जा की मांग में कटौती का 26 प्रतिशत हिस्सा अमेरिका, यूरोप एवं जापान का होगा। शेष 75 प्रतिशत कटौती का हिस्सा चीन, रूस, अरब देशों एवं भारत समेत दूसरे विकासशील देशों का होगा। इस आकलन के प्रति मुझे गंभीर संदेह है। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुुसार गरीब देशों द्वारा 1990 में कार्बन उत्सर्जन 10.6 अरब टन था, जो 2003 में 12.6 अरब टन हो गया। इसी अवधि में अमीर देशों द्वारा कार्बन उत्सर्जन 10.6 से बढ़ कर 12.7 अरब टन हो गया। ़जाहिर है कि गरीब और अमीर देशों का कार्बन उत्सर्जन में हिस्सा बराबर है और समानान्तर गति से बढ़ रहा है, तथापि प्रति व्यक्ति के हिसाब से गरीब देश पिछड़ रहे हैं, चूंकि उनकी जनसंख्या बढ़ रही है। इस अवधि में गरीब देशों में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन 2.8 टन के स्तर पर बना हुआ है, जबकि अमीर देशों में यह प्रति व्यक्ति 11.8 टन से बढ़ कर 12.8 टन हो गया है। इस परिस्थिति में कार्बन उत्सर्जन कम करने का ज्यादा दायित्व अमीर देशों का होना चाहिए, जैसे-घर में आटे की किल्लत हो तो दस रोटी खाने वाले बालक पर ज्यादा दबाव बनाना चाहिए न कि दो रोटी खाने वाले पर। परंतु मैकेंजी का मूल उद्देश्य पश्र्चिमी अमीर देशों के हितों को बढ़ाना है, इसलिए कंपनी कहती है कि दो रोटी खाने वाले बालक की डायट में 74 प्रतिशत की कमी करो और दस रोटी खाने वाले तन्दुरुस्त बालक की डायट में केवल 24 प्रतिशत की कटौती करो।
मैकेंजी ने अनुमान लगाया है कि उपयोग की कुशलता को हासिल करने के लिए किए गए खर्च से विश्र्व की कुल आय में मात्र एक प्रतिशत की गिरावट आएगी। निश्र्चित रूप से पृथ्वी को ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए यह बहुत छोटी रकम है। परन्तु प्रतिस्पर्धा के इस युग में गरीब देशों के लिए एक फीसदी कटौती भी भारी पड़ सकती है, जैसे-घर के बजट में कटौती होने पर गृहिणी का विटामिन पहले बंद होता है। भारत जैसे विकासशील देशों पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को मैकेंजी चतुराई से छुपा जाता है। “कार्बन उत्पादकता की चुनौती’ शीर्षक की रपट में कहा गया है कि “विकासशील देशों को यह निवेश करने में ज्यादा कठिनाई होगी। उन्हें अपनी वर्तमान खपत में कटौती करनी होगी। फिर भी चीन तथा तेल निर्यातक देशों के लिए खपत में कटौती करना जरूरी नहीं होगा। इसलिए वैश्र्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन में कटौती करना संभव है।’ उद्घरण को ध्यान से देखें। कहा गया है कि चीन और तेल निर्यातक देशों द्वारा यह निवेश सरलता से किया जाएगा। इससे यह निष्कर्ष कदापि नहीं निकलता है कि भारत द्वारा इस निवेश को किया जा सकता है। इन विकासशील देशों का कार्बन में कटौती का हिस्सा 40 प्रतिशत बताया गया है। यानी विकासशील देशों की समस्याओं को अनदेखा करके मैकेंजी कंपनी ऐसा जता रही है कि वैश्र्विक स्तर पर यह संभव है। जैसे- कहा जाए कि गांव के लिए कपड़े की खपत में 50 प्रतिशत कटौती संभव है और यह न देखा जाए कि एक साड़ी पर जीवित रहने वाली महिला क्या करेगी?
मैकेंजी कंपनी एक और भ्रम पैदा करती है। रपट में कहा गया है कि ऊर्जा की उत्पादकता में वृद्घि उसी तरह है, जैसे औद्योगिक ाांति के समय श्रम उत्पादकता में हुई थी, अथवा जैसे- अमेरिका ने हाईवे, विद्युतीकरण आदि में निवेश किया था। परन्तु विषय में मौलिक भिन्नता है। श्रम की उत्पादकता में सुधार होने एवं हाईवे बनने से लोगों की आय में वृद्घि होती है, जबकि कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण करने पर आय में गिरावट आती है। मैकेंजी कम्प्यूटर में निवेश की बराबरी फाइव स्टार होटल में पार्टी से कर रहे हैं। एक और समस्या है। माना गया है कि ऊर्जा के उपयोग में कुशलता आने से ऊर्जा का कुल उपयोग कम होगा। जैसे- उन्नत चूल्हे पर खाना बनाने से लकड़ी का उपयोग कम होता है, अथवा हाइब्रिड कार से ऑफिस जाने में तेल कम लगता है। परन्तु यह ़जरूरी नहीं है कि इन सुधारों से ऊर्जा की कुल खपत में कमी आए। देखा जाता है कि जिन घरों में माइाोवेव ओवन में भोजन बनाया जाता है, उनके द्वारा कुल ऊर्जा की खपत ज्यादा होती है। चूँकि माइाोवेव के साथ एयर कंडीशनर, गीजर आदि का भी उपयोग होता है। माइाोवेव से जितनी ऊर्जा की बचत होती है, उससे ज्यादा वृद्घि दूसरे उपकरणों द्वारा हो जाती है। ऑस्टेलिया की यूनिवर्सिटी ऑफ न्यू साउथ वेल्स के प्रोफेसर माइकेल मालिटर कहते हैं, “कुल खपत का सीधा फार्मूला है- जनसंख्या 7 खपत 7 तकनीक। तकनीक में सुधार से जो बचत होती है, वह खपत में वृद्घि से दब जाती है।
प्रश्र्न्न है कि प्राथमिक क्या है- ऊर्जा की कुशलता या खपत की संस्कृति? मेरी समझ से खपत की संस्कृति प्राथमिक है। यदि लोग एयरकंडीशनर के स्थान पर पंखे से काम चलाने लगें तो पंखे की अकुशलता के बावजूद कुल कार्बन उत्सर्जन में कमी आएगी। खपत की संस्कृति अकेली ही प्रभावी होगी। चूंकि खपत कम हो जाएगी। इसके विपरीत ऊर्जा की कुशलता अकेले निष्प्रभावी होगी, चूंकि खपत बढ़ती जाएगी। मानवता को ग्लोबल वार्मिंग से बचाने के लिए ऊर्जा कुशलता को प्राथमिकता देकर एवं भोगवादी संस्कृति पर चुप्पी साधकर ये कंपनियां धरती के पर्यावरण का विध्वंस करने का रास्ता प्रशस्त कर रही हैं।
– डॉ. भरत झुनझुनवाला
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