मनुष्य हमेशा यह जानने के लिए उत्सुक रहता है कि हम कौन हैं, हम कहां से आये हैं, हमारा आरंभिक जीवन कैसा था, हमारा विकास कैसे हुआ, क्या हम पहले बेहतर थे? इस तरह के सवालों की एक अंतहीन श्रृंखला है, जो हमेशा लोगों के दिलोदिमाग में मौजूद रहती है। पुरातत्व इसी तरह के सवालों से सम्बंधित हमारे अतीत का अध्ययन है। इतिहासपूर्व से लेकर हाल के गुजरे सालों तक का अध्ययन।
लेकिन यह किताबी अध्ययन नहीं है। अतीत का यह अध्ययन हमारे पूर्वजों द्वारा इस्तेमाल में लायी गयी चीजें, बनाये गये आवास, लड़े गये युद्घ, किए गये विकास आदि के अवशेषों के जरिए किया जाता है। हमारे पूर्वज अपने पीछे अपने जीवन और रहन-सहन से सम्बंधित जो भी चीजें छोड़ गये हैं, उन्हीं के जरिए हम उस गुजरे हुए अतीत का मूल्यांकन करते हैं, अध्ययन करते हैं और यह समझ विकसित करने की कोशिश करते हैं कि हमारे मुकाबले हमारे पूर्वज कैसे थे, कहां थे। पुरातत्व हजारों साल के अतीत का अध्ययन है और यह अध्ययन मनुष्य के जीवनाम में उसकी गतिविधियों और उसकी जीवन-शैली के बचे हुए अवशेषों पर निर्भर रहता है। पुरातत्वशास्त्रियों का दल ऐसी जगहें खोजता है, जहां इस तरह के अवशेषों और साक्ष्यों के मौजूद होने की संभावना रहती है। फिर बहुत सावधानी से ऐसी जगहों की खुदाई होती है। वहां जो चीजें पायी जाती हैं, उनका वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है, उनका काल निर्धारित किया जाता है और इस सबसे बनी तस्वीर के जरिए सैकड़ों-हजारों साल पहले की दुनिया का सही-सही और व्यवस्थित अनुमान लगाया जाता है।
पुरातत्व के इतिहास को अगर खंगालें तो 1748 में इंसान ने पहली बार पोम्पई नामक एक विलुप्त नगर की खोज की। 1799 में नेपोलियन की सेना के एक अधिकारी ने एक ऐसा रोसेटा पत्थर खोज निकाला था, जो ईसापूर्व छठीं शताब्दी का एक चित्रलेख था। सन् 1822 में पुरातत्वशास्त्रियों ने लुप्त मिस्री चित्रलिपि की खोज ऐसे ही की। 1861 में इवांश और प्रेस्टविच ने आदमी की प्राचीनता और उसके विलुप्त जानवरों के साथ अंतर्सम्बंधों की पुष्टि की। 1891 में पुरातत्वशास्त्रियों को होमो इरेक्टेस तत्व मिले, जिससे इंसान की प्राचीनता की वैज्ञानिक पुष्टि हुई। 1922 में हार्वर्ड कार्टर ने तूतेनखामेन के मकबरे की और मकबरे में रखी उसकी ममी की खोज की। पुरातत्व से सम्बंधित यह वो तमाम खोजें हैं, जिन्होंने इतिहास के पारंपरिक समझ की धाराएँ बदल दी हैं।
सन् 1940 में पुरातत्वशास्त्रियों ने इतिहासपूर्व लैसकॉक्स केव पेंटिंग्स की खोज की और 1949 में एक ऐसा वैज्ञानिक तरीका ईजाद किया, जिससे किसी भी ची़ज की सही-सही प्राचीनता जानी जा सकती है। यह संभव हुआ रेडियो कार्बन डेटिंग की खोज से। खोजों का यह सिलसिला बताता है कि इंसान किस तरह प्राचीन काल से ही अपने अतीत को वैज्ञानिक तरीके से जानने के लिए उत्सुक रहा है। पुरातत्व के तहत इस खोजबीन के कई तरीके और साधन होते हैं। सबसे महत्वपूर्ण खोज ाम का पहला पायदान है- उन क्षेत्रों का पता लगाना, जहां पुरातत्व सम्बंधी खोज की जा सके। इन जगहों या साइट्स का पता कई माध्यमों से लगता है। मसलन, लिखित इतिहास में उस जगह विशेष के बारे में दर्ज ब्यौरे, किसी वजह से की गयी खुदाई के दौरान अचानक कुछ खास चीजों का मिल जाना, जैसे किसी इमारत के अवशेष, मिट्टी की संरचना के अध्ययन के दौरान हासिल होने वाले कुछ महत्वपूर्ण संकेत और पुरातत्वशास्त्रियों द्वारा निरीक्षण करते समय खोज ली गयी कुछ खास चीजें।
इस मामले में एरियल फोटोग्राफी का भी सहारा लिया जाता है, जो भू-सतह के अंदर की तमाम चीजों का एक्सरे के मुआफिक ब्यौरे प्रस्तुत कर देती है। पुरातत्व के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण काम है चित्रित जगह की सावधानीपूर्वक खुदाई करना। वास्तव में इन जगहों की खुदाई परत-दर-परत करनी होती है, बेहद धीरे मगर सावधानी से। कामगार पहले जमीन की ऊपरी सतह को अलग करते हैं और इसके बाद पुरातत्वशास्त्री अपने गहन ऐतिहासिक खोज सम्बंधी अध्ययन का सिलसिला शुरू करते हैं, जो काफी गहरे तक खुदाई करते रहते हैं ताकि उन्हें ज्यादा से ज्यादा जानकारी हासिल हो सके। इस जमीन की परत-दर-परत की गयी खुदाई और यहां से मिली विभिन्न चीजों के अध्ययन को स्टेटीग्राफी कहते हैं। मिट्टी की परत-दर-परत का रूप-रंग, उसकी बनावट, उसके गुण ये सब बहुत कुछ लिखित इतिहास की माफिक ब्यौरा देती है। स्टेटीग्राफी दरअसल किसी खास जगह पर खुदाई के जरिए उस जगह के रहन-सहन के पूर्व इतिहास की जानकारी मुहैया कराती है। चूंकि मिट्टी की ये परतें एक तार्किक ाम विन्यास प्रदर्शित करती हैं। इस वजह से जब तक रेडियो कार्बन का आविष्कार नहीं हुआ था, तब तक इतिहास जानने का यह सटीक माध्यम हुआ करता था।
पुरातत्वशास्त्री अपने इस अध्ययन के लिए तमाम औजारों, उपकरणों का भी इस्तेमाल करते हैं। सब्बल, कन्नी, फीता (नाप का), डेंटल पिक्स, टी स्पून्स जैसी चीजें भी पुरातत्वशास्त्रियों के खोज-अभियान में इस्तेमाल होने वाले औजारों में आती हैं। दरअसल यह खुदाई इतनी नाजुक होती है कि इसके लिए ये तमाम औजार अलग-अलग स्तरों पर कोई साक्ष्य नष्ट न हो जाएं, इस सावधानी के चलते इस्तेमाल किए जाते हैं। आमतौर पर पुरातत्वशास्त्री पाई गयी चीजों की फोटोग्राफी करते हैं या सावधानी से उसका चित्रांकन कर लेते हैं। उसे नापते हैं, उसके आकार का रिकॉर्ड बनाते हैं, उसके रंगों, उसकी सजावट के तौर-तरीकों, उसकी उम्र पर बारीक नजर रखना और इन तमाम स्तरों पर उस चीज का मूल्यांकन करना यह भी पुरातत्वशास्त्रियों का ही काम होता है। वास्तव में ये तमाम गतिविधियां पुरातत्वशास्त्रियों को एक ही स्थान पर पायी गयी विभिन्न चीजों के काल निर्धारण में मदद करती हैं।
चूंकि धरती में दबी हुई चीजें बहुत ही जीर्ण-शीर्ण स्थिति में होती हैं। इसलिए जैसे ही किसी क्षेत्र विशेष की खुदाई करते हैं तो पुरातत्वशास्त्रियों द्वारा वहां से हासिल चीजों को तुरंत मरम्मत करने या उन्हें मजबूती प्रदान करने की कोशिश की जाती है। उन्हें बाहर निकाल कर उनके आकार को पहले स्थिर करने की कोशिश की जाती है, फिर उन्हें साफ किया जाता है और इसके बाद उन चीजों को सम्बंधित विशेषज्ञों के पास विभिन्न पहलुओं से गंभीर अध्ययन के लिए भेज दिया जाता है। ये विशेषज्ञ पता लगाते हैं कि वह चीज किस चीज से बनी है। वह कैसे काम करती है और यह कितनी पुरानी है। इन चीजों की बाकायदा फिल्म बनती है और इनकी तस्वीरों के साथ ही इन्हें संग्रहालयों में प्रदर्शित किया जाता है।
सिर्फ जमीन के नीचे ही पुरातात्विक महत्व की चीजें नहीं छिपी हैं बल्कि बड़े पैमाने पर पानी के नीचे भी ऐसी चीजों का भंडार है। लेकिन पानी के नीचे खुदाई करना बहुत ही मुश्किल है, खासतौर पर जमीन के मुकाबले। क्योंकि पानी के नीचे बालू और दलदल के कारण देख पाना और सही तरह से खुदाई कर पाना बहुत मुश्किल होता है। लेकिन समुद्र के अंदर की गयी ऐसी तमाम खुदाइयों से पता चला है कि यहां भी ऐसे ही पुरातात्विक संदर्भ के भंडार छिपे हैं, जैसे धरती के भीतर। खासकर पानी के जहाज जो 15वीं, 16वीं शताब्दी में बड़े पैमाने पर चलते थे और वैश्र्विक व्यापार का सबसे बड़ा जरिया थे। ऐसे सैकड़ों जहाज पानी में डूबे पड़े हैं जिनकी खोजबीन हमें उस जमाने के तमाम ऐतिहासिक तथ्यों की जानकारी देती है।
पुरातत्व के क्षेत्र में पुरातत्वशास्त्री मोरटाइमर व्हीलर (1890-1976) का नाम बेहद सम्मान के साथ लिया जाता है। उन्होंने ही पुरातत्व की खोज की आधुनिक विधि विकसित की। लंदन में उन्होंने इंस्टीट्यूट ऑफ आर्कियोलॉजी की स्थापना की और पुरातत्व को टी.वी. और दूसरे संचार माध्यमों के जरिए लोकप्रिय बनाया। 1944 में वह भारत के डायरेक्टर जनरल ऑफ आर्कियोलॉजी बनाये गये और तब उन्होंने सिंधु घाटी सभ्यता की ऐतिहासिक खोज की।
– देवेश प्रकाश
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