मनोज सिंह को मैं वर्षों से जानता हूं। जब वो पढ़ रहा था, तब सोचता था कि पढ़ने के बाद उसे कोई अच्छी नौकरी मिल जाएगी तो उसका और परिवार का जीवन सुखद हो जाएगा। अगर नौकरी नहीं मिली तो बैंक से कर्ज लेकर कोई धंधा शुरू कर देगा। बेचारा मनोज पढ़ाई पूर्ण होने के बाद से ही लगातार नौकरी की तलाश में घूमता रहा। परीक्षायें दीं, साक्षात्कार दिये वर्षों तक रिजल्ट का इंतजार किया, पर नौकरी नहीं मिली। उसने अपनी उम्र 35 वर्ष होने तक काफी प्रयास किये। किंतु अब वो हताश है। मुझे पिछले वर्ष मिला था, तब बता रहा था कि अब वह ओवरएज हो चुका है और कहीं किसी प्राइवेट काम की तलाश में है। इसके बाद पिछले दिनों मिला था तब वो काफी कमजोर लग रहा था। बता रहा था कि उसे ब्लड-प्रेशर और हृदय संबंधी बीमारियों ने घेर लिया है। वह इन बीमारियों के इलाज को लेकर परेशान है।
नौकरी की बात तो हवा हो गई, अब उस पर अवसाद का घेरा है। यह स्थिति सिर्फ मनोज सिंह की ही नहीं है वरन् सारे देश में उन लाखों युवाओं की है, जो नौकरी की तलाश करते-करते सरकार द्वारा निर्धारित अधिकतम आयु-सीमा को पार कर चुके हैं और अब उन्हें सरकारी क्षेत्र में काम नहीं मिल सकता है। यह बड़ी विचित्र विडंबना है कि एक निर्धारित आयु-सीमा के बाद पढ़ा-लिखा योग्य आदमी सरकारी काम के लिए अनुपयोगी मान लिया जाता है और वह अवसादग्रस्त होकर बेरोजगारों की भीड़ में शामिल होने को मजबूर हो जाता है। हालांकि इनमें से कुछ विरले जरूर अपनी अलग राह बनाने में कामयाब हो जाते हैं। यह सच है कि इस नयी सदी की नव उदारवादी वेला में आज बेरोजगारों की फौज बढ़ती जा रही है, साथ ही अपराध और अपराधियों की जमात भी। उल्लेखनीय है कि वर्तमान समय में देश के आर्थिक-विकास की रफ्तार तेजी से बढ़ रही है, जिससे देश में नव-अरबपतियों की फेहरिस्त लंबी हो रही है, परन्तु बेरोजगारों की संख्या भी कई गुना रफ्तार से बढ़ रही है। एक अनुमान के मुताबिक सन् 2020 तक बेरोजगारों की संख्या बढ़कर करीब 20 करोड़ हो जायेगी। इनमें से कम से कम 85 फीसदी बेरोजगार अवसाद से घिरे होंगे। इस स्थिति में देश की अर्थव्यवस्था और भविष्य की तस्वीर बड़ी भयानक होगी और बेरोजगारों की इस फौज को संभालना किसी भी व्यवस्था के लिए दुष्कर कार्य होगा। ऐसी विकट स्थिति का सामना करने और युवाओं की शक्ति का सदुपयोग करने के लिए देश के योजनाकारों को सोचना होगा।
आज शासकीय सेवकों की सेवा शर्तों में व्यापक परिवर्तन की जरूरत है। यह सही है कि शासकीय सेवाओं में रोजगार के अवसर लगातार घट रहे हैं और देश के सभी रोजगार इच्छुक युवाओं को सरकारी नौकरी से नवाजा नहीं जा सकता। परंतु वर्तमान में जारी प्रशासनिक व्यवस्था में परिवर्तन करके अधिक संख्या में युवाओं की भागीदारी सरकारी क्षेत्र के कार्यों में बढ़ाई जा सकती है। उनकी सृजनात्मकता का लाभ लिया जा सकता है। जहां तक सरकारी नौकरियों में प्रवेश की अधिकतम आयु-सीमा की बात है तो इसे खत्म ही कर देना चाहिए, क्योंकि यह व्यवस्था कहीं से भी न्याय-संगत और तर्क-संगत प्रतीत नहीं होती। वास्तव में यह व्यवस्था अंग्रेजी शासन की ही देन है, जो भारत में प्रशासनिक पदों पर भारतीयों के प्रवेश को रोकने के लिए न्यूनतम व अधिकतम आयु-सीमा का बंधन लगाती थी। दुर्भाग्यवश जिसे हमारी व्यवस्था ने भी स्वीकार कर लिया है। अब कई बार यह तर्क दिया जाता है कि उम्मीदवारों की छंटनी के लिए यह अस्त्र अपनाया जाता है। वास्तव में नियोजनकर्ताओं का यह तर्क बेईमानी पूर्ण है। हालांकि अब कभी-कभी राजनीतिक दल इस प्रतिबंध का इस्तेमाल अपने लिए वोट के लिए जरूर करते हैं और वह युवाओं के लिए नौकरी में प्रवेश की अधिकतम आयु- सीमा में वृद्घि करके वाहवाही लूटते हैं।
अगर हम सरकारी सेवा में प्रवेश के दशकों पुराने प्रतिबंध के औचित्य की बात करें तो मानव विकास के संदर्भ में भी वर्तमान और आजादी के समय की स्थितियों से काफी अंतर है। उस समय मनुष्य की औसत आयु 42 वर्ष थी, जो बढ़कर अब 62 वर्ष हो गई है। मनुष्य की स्वास्थ्य और शिक्षा की स्थितियों में काफी सुधार हुआ है, जिससे उसकी कार्यक्षमता भी बढ़ी है। आज अधिकांश युवा सामान्यतः 25 से 28 वर्ष की उम्र तक का समय शिक्षा प्राप्त करने में गुजार देता है, फिर नौकरी की खोज में लगता है। तब उसके लिए सरकारी नौकरी में आयु-सीमा का बंधन कहां तक जायज है? निश्र्चित रूप से कम से कम 50 साल की उम्र तक व्यक्ति की कार्यक्षमता का लाभ उठाने के लिए सरकारी क्षेत्र को तैयार रहना चाहिए। सरकारी व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि आदमी सेवा में आये और अपनी योग्यताओं का लाभ व्यवस्था को दे। वास्तव में नियोजनकर्ताओं को इस बात पर विमर्श करना चाहिए कि नियोजन व्यवस्था उम्मीदवारों की छंटनी के लिए ना हो वरन् योग्य प्रत्याशी के चयन के लिए होनी चाहिए।
आज सरकारी सेवाओं की वर्तमान प्रणाली में भी काफी परिवर्तन की जरूरत है। आज अधिकतर सरकारी कार्यालयों की कार्यप्रणाली से महसूस होता है कि सरकारी व्यवस्था में आदमी आराम के लिहाज से ज्यादा आना चाहता है, शायद उसे इस बात की गारंटी महसूस होती है कि उसका 60 साल तक कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है और वह काफी हद तक अपनी मनमर्जी से काम करने के लिए स्वतंत्र रहता है। वास्तव में सरकारी सेवाओं की इस स्थिति में भी परिवर्तन की जरूरत है। प्रशासनिक और विशिष्ट सेवाओं के अतिरिक्त सभी प्रकार की शासकीय सेवा के लिए अधिकतम 5 से 10 वर्ष कार्यकाल निर्धारित कर देना चाहिए। इसके बाद कर्मचारी को सेवा वृद्घि उसके कार्य निष्पादन के आधार पर ही देनी चाहिए। इस तरह की व्यवस्था से सरकारी सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार होगा और कर्मचारी अपनी जवाबदेही समझेगा तथा ज्यादा से ज्यादा युवाओं की भागीदारी सरकारी सेवाओं में होगी। युवा ओवर एज के मानसिक आघात से भी बच सकेंगे। उन्हें यह उम्मीद रहेगी कि वो कभी भी अपनी योग्यता का प्रदर्शन सरकारी क्षेत्र में कर सकेंगे।
– डॉ. सुनील शर्मा
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