नेपाल अति प्राचीन काल से धार्मिक महिमा और सांस्कृतिक गरिमा से सुसम्पन्न रहा है। नेपाल की राजधानी “काष्ठ मंडप’ (एक ही काष्ठ से बना हुआ विशाल नक्काशीदार मंडप) कालांतर में काठमांडू हो गया। काठमांडू महाराजगंज जनपद के सुनौली से बस द्वारा पहुँचा जा सकता है। सुनौली से आगे 25 कि.मी. बुटवल से काठमांडू के लिए करीब प्रत्येक घंटे पर बस सुविधा उपलब्ध है।
काठमांडू दर्जनों मठों से भरा पड़ा है, जिसमें सबके पास अपनी ऐतिहासिक धरोहर है। प्राचीन संस्कृतियों की पूंजी, स्थापत्य कल्प का अनूठा संग्रह है। काठमांडू हिमालय के दक्षिणी भाग में अवस्थित अनेकों पर्वत श्रृंखलाओं से घिरे पवित्र बागमती के तट पर बसा हुआ है। इस क्षेत्र को “देवक्षेत्र’ कहते हैं।
श्री पशुपति नाथ की दृश्यमान मूर्ति साधारण मूर्ति नहीं है, अपितु पुराणों में वर्णित सज्योतिर्मय ब्रह्माविष्णुशिवात्मक एवं उमा महेश्र्वरात्मक ज्योतिर्लिंग है। इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने का अपना विधान है। सर्वप्रथम प्रवेश के पूर्व वत्सला जयमंगला, नील, सरस्वती, भस्मेश्र्वर महादेव के दर्शन होते हैं।
भस्मेश्र्वर से उत्तर सीढ़ी पर चढ़ने के बाद प्रांगण में पहुँचते हैं, जहॉं लिंग-समूह (चौंसठ लिंग और चौरासी यंत्र) की दर्शन परिामा के बाद पूर्व-पश्र्चिम के प्रवेश-द्वार से स्वर्ग-द्वार के रास्ते भीतर पहुँचते हैं, जहां दाहिनी ओर (आग्नेय कोण) शीतला देवी और कीर्तिमुख भैरव, श्री गणेश जी, शंकर नारायण सूर्य, विष्णु आदि मूर्तियों की दर्शन-पूजा होती है। किंवदंती के अनुसार यदि कीर्तिमुख भैरव की पूजा पहले न की जाए, तो पशुपतिनाथ जी अपनी पूजा ग्रहण नहीं करते। अतः भगवान पशुपतिनाथ के दर्शन के पूर्व कीर्तिमुख भैरव का दर्शन-पूजन “नमो नमस्ते भगवान। वर भैरव अनुज्ञा देहि यात्रायै ज्योतिर्लिंगेश्र्वरस्य हि’ करते हुए अनुमति लेनी चाहिए। फिर बगल की यज्ञशाला में यज्ञवेदी की परिामा करने के बाद अष्टमात्रका की प्रदक्षिणा करते हुए प्रांगण में स्थित नौ ग्रह, हनुमान, सत्यनारायण की प्रदक्षिणा का विधान है। पुनः नंदी भगवान के दर्शन-पूजन के पश्र्चात् तुलसी दर्शन, तुलसी वृक्ष के उत्तर त्रिशूल मुनि, भृंग-गण, बेल वृक्ष, महेश्र्वर-ज्वरेश्र्वर की दर्शन-परिामा, चंडेश्र्वर की दर्शन-पूजा, रूद्रगाडेश्र्वर, वासुकी के दर्शन के पूजन के बाद अपमृत्यु हरेश्र्वर, गुप्तेश्र्वर, दुंडेश्र्वर (लाल गणेश),चागु नारायण, कलियुगेश्र्वर, संताप हरेश्र्वर (संतानेश्र्वर) का दर्शन करते हैं।
भगवान पशुपतिनाथ अपने गणों को संबोधित करते हुए कहते हैं, “”हे नंदी, हे भंगगण, गणेश, वासुकी, भैरव… आप लोग मेरे द्वार पर आसन ग्रहण कर क्षेत्र की रक्षा करें। आप लोगों के दर्शन मात्र से मेरे भक्तगण पशुयोनि से मुक्त हो जाएंगे और उन्हें मेरी भक्ति प्राप्त होगी।”
पशुपति के वर्तमान मंदिर के निर्माता राजा प्रचंडदेव हैं। पशुपति के देवल निर्माणकर्ता सुपुष्पदेव माने जाते हैं। वर्तमान मूर्ति को सुसज्जित करने वाले राजा जयसिंह देव के मंदिर के सम्मुख विशाल बसाहा को बनवाने का श्रेय राणा जगतजंग को जाता है। पशुपतिनाथ को स्वर्णमयी करने का श्रेय सोमवंशी राजा भास्कर वर्मा को जाता है।
– कीर्ति
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