“निर्धन हो या हो धनवान सबको शिक्षा एक समान’, यह नारा यदा-कदा शिक्षक संघों से जुड़े लोग देते हैं, किन्तु इस नारे पर अमल करने के लिए देश में कोई सार्थक प्रयास किया जाता हो, तो ऐसा नहीं है। बात साफ है कि राजनीति ने अपने पैर शिक्षा में भी इस प्रकार धंसा लिए हैं कि वहॉं भी कथनी और करनी में अन्तर स्पष्ट दिखाई देता है।
शिक्षा पर सभी का अधिकार है, जिस कड़ी में सर्वशिक्षा अभियान के नाम पर अरबों रुपये सरकार द्वारा व्यय किए जाते हैं, किन्तु यह अभियान कितना सफल है, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। पैसे की बंदरबांट करके इस अभियान को पलीता लगाया जाना नई बात नहीं रह गई है। यही कारण है कि आम आदमी के लिए शिक्षा भी एक सपना बन चुकी है।
पूरे देश के प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति कौन नहीं जानता। एकल अध्यापकों वाले अनेक ऐसे विद्यालय हैं, जहॉं बच्चों का भविष्य निर्माण नहीं हो सकता। अयोग्य शिक्षकों के चलते भी शिक्षा का बंटाधार हो रहा है। प्राथमिक शिक्षा में जो संस्कार एवं जानकारियां बच्चों को दी जानी चाहिए, उनका नितान्त अभाव है। कुछ विद्यालयों में बच्चों को शिक्षा देने के स्थान पर बेगार कराए जाने के समाचार भी प्रकाश में आते रहे हैं। शिक्षा संसाधनों का अभाव होने के कारण शिक्षा का उचित वातावरण ही नहीं बनता, ऐसे में बच्चों की नींव कैसे मजबूत हो, यह भी प्रश्र्न्नचिह्न है? प्राथमिक शिक्षा की बदहाली एवं निम्न-मध्यम आय वर्ग तथा मध्यम आय वर्ग में अपने बच्चों के प्रति समर्पित भावना ने समाज में दोहरी शिक्षा प्रणाली के भाव बढ़ा दिए हैं। गली-गली में खुले मांटेसरी स्कूल तथा शहरों में महंगी फीस वसूल रहे अंग्रेजी माध्यम स्कूलों ने परिवारों का अर्थशास्त्र बिगाड़कर रख दिया है। शिक्षा के प्रति कोई ऐसा प्रयास स्वाधीनता के बाद नहीं किया गया है, जिससे ऐसा प्रतीत हो कि सरकार शिक्षा के प्रति ईमानदार है। विडम्बना यही है कि देश में समस्याओं का निदान ईमानदारीपूर्वक नहीं किया जाता, सभी क्षेत्रों में भ्रष्टाचार की संभावनाएं तलाशी जाती हैं, सो शिक्षा भी अछूती नहीं रह गई है। यही कारण है कि दोहरी शिक्षा प्रणाली गंभीर समस्या बनकर विकराल रूप धारण कर चुकी है। इस प्रकार का आचरण देश को कहॉं ले जाएगा, यह प्रश्न अत्यधिक चिन्तनीय और विचारणीय है।
– डॉ. सुधाकर आशावादी
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