कश्मीर की “आ़जादी’ की लड़ाई घाटी की अलगाववादी जमातें और उन्हें शिखंडी की तरह आगे खड़ा कर पीठ पीछे पाकिस्तान तो लड़ ही रहा था, पूरे देश को हैरत में डालते हुए अब मानवाधिकारों की पैरोकार तथा समाज सेविका अरुंधती राय भी उसी जमात में शामिल हो गई हैं। ऐसा नहीं है कि अरुंधती अकेली हैं। दरअसल देश की बहुत सारी सेकुलर जमातें इस समस्या का एकमात्र समाधान वही देखती-समझती हैं, जो अलगाववादी और उनका आका पाकिस्तान देख रहा है अथवा मानवाधिकार पर नई बौद्घिकता की सृजनकर्ता अरुंधती देख रही हैं। इस हालत में अगर बहुत जल्द ़खुद भारत के भीतर से यह मॉंग उठने लगे कि कश्मीर को आ़जाद कर दिया जाय, तो अरुंधती के इस बयान के बाद अब किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए। इसलिए भी नहीं होनी चाहिए कि अरुंधती किसी व्यक्ति का नाम नहीं है, एक तरह की सोच का नाम है। और वह सोच तथाकथित बौद्घिक स्तर पर बहुत ते़जी से फल-फूल रही है। माना यह भी जा सकता है कि जनतांत्रिक मानवाधिकार के नाम पर पैदा किया गया, यह हमारे लोकतंत्र का सबसे घटिया उत्पाद है।
मानवाधिकार के नाम पर जिस तरह भारतीय झंडा फूंकने वालों, आतंकवाद का ़खूनी खेल खेलने वालों और हमारा अन्न खाकर हमारे ही खिलाफ षड्यंत्र रचने वालों को हमने अब तक सहा है, उसी तरह हम देशद्रोह की हद से गु़जर कर देश के एक हिस्से को उससे तोड़ने की वकालत करने वाली अरुंधती राय को भी सहेंगे और कुछ नहीं कहेंगे। नहीं कहेंगे तो सिर्फ इसलिए कि हम उस देश के वासी हैं जिसकी सहिष्णुता सॉंपों को भी दूध पिलाने में यकीन करती है। अरुंधती को यह तो दिखाई दे रहा है कि भारतीय सुरक्षाबल कश्मीरियों पर बहुत जुल्म ढा रहे हैं, मगर वे यह नहीं बता रही हैं कि देश के साथ बगावत करने वालों के साथ कौन-सा व्यवहार करना चाहिए? उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि जिस “आ़जादी’ की पैरवी वे कर रही हैं, आ़िखर वह है क्या? कश्मीर ़जमीन भी है और कश्मीर अवाम भी है। इनमें से किसी एक को आ़जाद करने की वे पैरवी कर रही हैं या दोनों की?
जहॉं तक ़जमीन को आ़जाद करने का सवाल है तो वह किसी कीमत पर नहीं हो सकती। अरुंधती इस बात को समझती हों या न समझती हों, लेकिन पाकिस्तान इस बात को ब़खूबी समझता है। कश्मीर का विलय भारत में उसी कानून के तहत हुआ है जिसके तहत पाकिस्तान बना है। अगर विलय पर सवाल उठाया जाएगा तो फिर पाकिस्तान की बुनियाद भी हिल जाएगी। अंग्रेज चाहकर भी कश्मीर को न भारत का हिस्सा बना सकते थे और न पाकिस्तान का, क्योंकि वह एक स्वतंत्र रियासत थी और बंटवारे के समय रियासतों को यह कानूनी अधिकार दिया गया था कि चाहें तो वे स्वतंत्र रहें अथवा अपनी इच्छानुसार भारत या पाकिस्तान में विलय करें। इसी प्रावधान के तहत कश्मीर के राजा हरि सिंह ने कश्मीर का विलय भारत में किया और उस विलय प्रस्ताव पर तब घाटी के एकछत्र नेता शेख अब्दुल्ला ने भी हस्ताक्षर किया था। हां, विलय के साथ कश्मीर के लिए कुछ शर्तें हरि सिंह और शेख अब्दुल्ला दोनों ने रखी थीं, जिन्हें भारत सरकार ने कश्मीर को विशेष दर्जा देते हुए मंजूर भी कर लिया था।
तो अरुंधती राय अगर जमीन को आ़जाद करने की बात कर रही हैं तो यह एक पूरी प्रिाया को उलटना होगा, जो मनमोहन सरकार के लिए असंभव है। मुशर्रफ अगर कह सकते हैं कि कश्मीर हर पाकिस्तानी के दिल में बसता है तो हम यह क्यों नहीं कह सकते कि कश्मीर प्रत्येक भारतीय के हृदय में निवास करता है। इस बारीकी को शायद अपने को बुद्घिजीवी खेमा में शुमार करने वाली महिला अरुंधती ने नहीं समझा है कि आज तक पाकिस्तान ने सिर्फ कश्मीर की आजादी की पैरवी भर की है, उसने कभी उस पर अपना अधिकार नहीं जताया है। यह ़गौरतलब है कि कश्मीर का जो हिस्सा उसके कब्जे में है, उसे वह अपना प्रांत नहीं मानता और उसे “आ़जाद कश्मीर’ कह कर ही पुकारता है। यही नहीं जब वह कश्मीर हड़पने की गऱज से कबायलियों के वेश में अपने सिपाहियों को भेज कर हमलावर हुआ था, तब भी उसने खुलेआम यह नहीं स्वीकार किया था कि यह हमला उसकी ओर से हुआ है। तब भी उसने इसे कबायली हमला ही कहा था और आज भी वह उसे वही कहता है। इससे यह तो साफ होता ही है कि पूर्व में महाराज हरि सिंह की रियासत रही जम्मू-कश्मीर की इंच-इंच जमीन अब भारत की संप्रभु सत्ता के अधीन है। भारत अपनी संप्रभुता के खिलाफ निर्णय लेते हुए इस ़जमीन को किसी ़गैर की झोली में डाल देगा या उसे आ़जाद छोड़ देगा, यह अरुंधती जैसी मानवाधिकारवादी ही सोच सकता है, कोई देशभक्त भारतीय ऐसा सोचना भी पाप समझेगा।
लिहाजा यह तो तय है कि अगर कश्मीर की आ़जादी का मतलब अरुंधती राय जैसे लोगों के अनुसार ़जमीन को आ़जाद कर देने से है, तो यह कत्तई मुमकिन नहीं है। फिर सवाल यह भी तो है कि कौन करेगा आ़जाद। अगर कोई कहे कि भारत सरकार कर सकती है तो यह भ्रामक है। भारत सरकार एक बड़ी जनतांत्रिक प्रिाया का बहुत छोटा हिस्सा है। सर्वोपरि जनता द्वारा चुनी गई संसद है। क्या अरुंधती को यह नहीं मालूम है कि इसी भारतीय संसद ने प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के कार्यकाल में सर्वसम्मति से अपनी इस प्रतिबद्घता की घोषणा की है कि इंच-इंच कश्मीर की जमीन भारत की है। उस प्रतिबद्घता का एक हिस्सा यह भी है कि भारत अपने कश्मीर के जबरी हड़पे गये हिस्से को एक न एक दिन पाकिस्तान से वापस ले लेगा। भारतीय संसद की इस प्रतिबद्घता के कायम रहते आ़िखर वह कौन-सी ताकत हो सकती है जो भारत से कश्मीर को जुदा कर सके।
हॉं, अगर अरुंधती का मतलब उन लोगों की झोली में आ़जादी की भीख डालने की है जो पाकिस्तान के इशारे पर भारत के खिलाफ नारे लगा रहे हैं और भारतीय राष्टध्वज का अपमान कर रहे हैं, तो बड़ी खुशी-खुशी उन्हें आ़जादी दी जा सकती है। बल्कि अब तक दे देनी चाहिए थी। उनसे साफ तौर पर कह दिया जाना चाहिए कि अगर तुम्हें भारतीय संप्रभुता स्वीकार नहीं है तो तुम यह देश छोड़ कर कहीं भी जा सकते हो। अगर भारत का निजाम तुम्हारे साथ नाइंसाफी कर रहा है, तुम्हें सता रहा है और तुम्हारे मानवीय अधिकारों का हनन हो रहा है, तो तुम कहीं भी उस जगह जाने को स्वतंत्र हो जो तुम्हें पसंद हो। अरुंधती राय अगर इस तरह की कोई मुहिम छेड़ती हों कि भारत सरकार कश्मीर के उन बाशिंदों को, जो भारतीय कश्मीर में नहीं रहना चाहते और कहीं अन्यत्र अपना घोंसला बनाना चाहते हैं, आजाद कर दे तो इसे पूरा देश तहे-दिल से स्वीकार करेगा। अगर अरुंधती का मतलब जमीन और बाशिन्दे दोनों की आ़जादी से है तो उनसे यह भी पूछा जा सकता है कि कश्मीर का मतलब आ़िखर वे क्या निकालती हैं?
वैसे तो प्रादेशिक स्तर पर जम्मू-कश्मीर राज्य बहुत बड़ा है, जिसके बहुत छोटे हिस्से से “आ़जादी’ की मॉंग सामने आई है। साथ ही विचार करने का एक पहलू यह भी है कि “आ़जादी’ मॉंगने या चाहने का आधार क्या है? उनको अलग राज्य या राष्ट अगर घोषित कर दिया जाय तो उसकी तार्किक बुनियाद क्या होगी? वह आधार कश्मीरियत है या इस्लाम? अगर कश्मीरियत है तो क्या उस पर उनका ह़क नहीं था या है, जिन्हें इन अलगाववादियों ने मार-मार कर बाहर खदेड़ दिया था? जिस दिन कश्मीरी हिन्दुओं पर इन दरिन्दों ने बेइंतहां जुल्म ढाये थे, हैरत की बात है कि किसी अरुंधती या किसी मानवाधिकार संगठन की आँख से एक बूँद आँसू तक नहीं टपका था। आज भी विस्थापित के रूप में इनकी जिन्दगी शिविरों में बजबजा रही है और कोई मानवाधिकार संगठन खुल कर सामने नहीं आ रहा है जो यह दबाव बनाये कि इनको पुनः अपनी ़जमीन से जोड़ा जाना चाहिए। इन संगठनों की छद्म वास्तविकता इसी से समझ में आती है कि इन्हें घाटी में सुरक्षा बलों का अत्याचार भर दिखाई देता है। मतलब यह कि वे आतंकवाद और अलगाववाद की खेती करते रहें और भारतीय संप्रभुता का मुँह चिढ़ाते रहें, पुरस्कार के रूप में बकौल अरुंधती, हम उन्हें सम्मानपूर्वक “आ़जादी’ का तोहफा भेंट करें।
देश को, देश की सरकार को, सुरक्षाबलों को और सेना को मानवाधिकार की सीख देने के पहले, मानवाधिकारवादियों को इन अलगाववादी देशद्रोहियों को यह सीख तो देनी ही चाहिए कि वे जिस देश का अन्न-जल ग्रहण कर रहे हैं उसका सम्मान करना सीखें। उन्हें यह भी समझा देना चाहिए कि उन्हें दुनिया का कोई कानून देश के झंडे को अपमानित करने का अधिकार नहीं देता। मानवाधिकारों में देश का झंडा फूंकने का अधिकार शामिल नहीं किया जा सकता। मानवाधिकारों में देश के खिलाफ सा़िजश करना भी शामिल नहीं है। मानवाधिकारों में कायरतापूर्ण आतंकवादी हमले का समर्थन भी शामिल नहीं किया जा सकता। अगर इस तरह की कोशिश कोई व्यक्ति या समूह करता है तो उसके साथ वही व्यवहार किया जा सकता है जो हमारा सुरक्षा बल कश्मीर में कर रहा है। दुःख तो इस बात का भी है कि उसे करने भी नहीं दिया जा रहा है। मानवाधिकारवादियों के शोरो-गुल से डरी सरकार ने सुरक्षाबलों को कायर बना दिया है। हमारा जॉंबाज सिपाही देश की अस्मिता से जूझता शहीद हो जाता है, उसकी लाश पर श्रद्घा के दो फूल चढ़ाने की बात कौन करे,कोई अफसोस के दो बोल भी नहीं बोलता। वहीं कोई आतंकवादी अथवा उसे पनाह देने वाला मारा जाता है तो मानवाधिकार के हनन की दुहाई शुरू हो जाती है। जरा सोचिये, वह सिपाही जो राष्टीय ध्वज की अभ्यर्थना के साथ देश की सुरक्षा की शपथ लेता है, जब उसके सामने उसका पवित्र तिरंगा जलाया जाता होगा और वह चुपचाप देखते रहने को मजबूर होता होगा, तब उसके दिल पर क्या गुजरती होगी? क्या अरुंधती राय यह बता सकती हैं कि उस समय उसका दिल गद्दारों की लाश पर से भी गुजर कर अपने तिरंगे की लाज बचाने को तड़पता नहीं होगा?
– रामजी सिंह “उदयन’
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