भारत के पावन तीर्थों की श्रृंखला में हरिद्वार का अपना एक विशिष्ट स्थान है। पुण्य-सलिला भागीरथी अपने पूर्ण रूप में यहीं दृष्टिगोचर होती है। ऋषिकेश एवं लक्ष्मण झूला के मध्य गंगाजी के पूर्वी तट पर स्वर्गाश्रम है। इसी स्वर्गाश्रम के चंद्रकूट पर्वत के अग्नि पार्श्र्व में एक भव्य प्राचीन, विशाल शिव-स्थल है, जिसे नीलकंठ कहा जाता है। इस पौराणिक सिद्घ स्थल की कथा एक विशिष्ट घटनााम से जुड़ी है। देव-दानव युद्घ के समय समुद्र-मंथन से रत्नों की प्राप्ति हुई थी। उसी में से निकले विष का लोकहिताय शिव द्वारा पान किये जाने की कथा से सभी परिचित हैं। इस कालकूट नामक हलाहल विष को शिव ने उदरस्थ नहीं किया वरन् इसे अपने कंठ में ही धारण कर लिया। इसी के कारण उनका कंठ नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाये।
सृष्टि का रहस्य अद्भुत है। प्रत्येक कालचा में सृष्टि-चा की घटनाएं एक समान होती हैं। सदैव ही देव और दानव (यहां देव का वास्तविक अर्थ है निर्माणात्मक शक्तियां और दानव का वास्तविक अर्थ है ध्वंसात्मक शक्तियां) का युद्घ होता है। उस युद्घ में समुद्र-मंथन भी होता है (यहां समुद्रमंथन प्रतिकात्मक शब्द है जिसका अर्थ है – नवीन आविष्कार, ये आविष्कार विष तुल्य संहारक भी हो सकते हैं और अमृत तुल्य जीवनदायक भी) और भगवान शिव को सदैव ही लोकहितार्थ विषपान करना पड़ता है। विषपान के बाद उसकी उष्णता को शांत करने के लिए शिव किसी शीतल स्थान में बैठकर समाधिस्थ हो जाते हैं। उस स्थान को भी नीलकंठ नाम से प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। इसी कारण हिमाचल में श्री नीलकण्ठ के अनेक स्थान विद्यमान हैं। हरिद्वार के निकट स्थित इन स्थानों में यह नीलकंठ मंदिर विशिष्ट है।
बारह कल्प (वर्तमान सृष्टि-चा) के विषपान के बाद जब शिव विष की उष्णता से व्याकुलता अनुभव करने लगे तो उन्होंने चुपचाप कैलाश-पर्वत को छोड़ दिया और शीतल एकांत स्थान की खोज में निकल पड़े। हरिद्वार के निकट पर्वतों के मूल स्थल पर मधुमती (मणिभद्र) तथा पंकजानंदिनी (चंदभद्रा) नामक गंगा-यमुना की पवित्र धाराओं के संगम पर स्थित वल्लभा नामक नदी के उद्गम-स्थल पर विष्णु पुष्कर नामक तीर्थ के निकट का स्थान शिव को समाधि हेतु आदर्श स्थल महसूस हुआ। वहीं एक वटवृक्ष के नीचे शिव समाधि लगाकर बैठ गये।
जब श्री सती को शिव के कैलाश छोड़कर जाने का भान हुआ तो वे भी शिव के पीछे-पीछे निकल पड़ीं। शिव को समाधि में लीन देख पहले तो सती ने उन्हें पुकारने की चेष्टा की, किन्तु जब देखा कि शिव की समाधि आसानी से भंग होने वाली नहीं है। यह समाधि तो कालकूट विष के प्रभाव को शांत करने के लिए है तो सती भी समाधि-स्थल के समीप शुम्भ नामक पर्वत के शिखर में पंकजा (चन्द्रप्रभा) नदी के उद्गम के निकट बैठकर तपस्या में लीन हो गयीं।
समस्त देवगणों को जब शिव एवं सती के कैलाश छोड़कर जाने का पता चला तो वे उन्हें खोजने के लिए निकल पड़े। तपस्थल पर शिव एवं सती को समाधिस्थ देख सती ब्रह्माजी और शिव के समीप भगवान विष्णु एवं तृतीय पर्वत पर अन्य समस्त देवगण बैठ गये और भगवान श्री नीलकण्ठ की समाधि खुलने की प्रतीक्षा करने लगे। शिव ने 60 हजार वर्षों तक एवं सती ने 20 हजार वर्षों तक इन स्थलों पर तपस्या की। शिव की समाधि भंग हुई तो समस्त देवताओं ने उनके दर्शनकर उनसे पुनः कैलाश पर चलने की प्रार्थना की। इतने समय में विषपान की उष्णता शांत हो जाने से स्वस्थ एवं प्रसन्न शिव कैलाश की ओर प्रस्थान कर गये। कैलाश जाने से पूर्व सती एवं समस्त देवों की प्रार्थना पर जाने से पूर्व अपने समाधि स्थल अर्थात् वट वृक्ष के मूल में शिव स्वयं लिंग के रूप में प्रकट हुए और नीलकंठ महादेव के नाम से स्थिर हो गये।
इस स्वयंभू लिंग श्री नीलकंठ का सर्वप्रथम श्री सती ने ही पूजन किया, तदनंतर अन्य देवों ने। जहां बैठकर श्री सती ने तप किया, वह स्थान श्री भुवनेश्र्वरी के नाम से विख्यात सिद्घपीठ हो गया। ब्रह्माजी ने जिस पर्वत पर निवास किया, वह पर्वत ब्रह्मकूट और जिस पर्वत-शिखर पर श्री विष्णु जी बैठे, वह विष्णुकूट कहलाया।
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