आज का युग प्राचीन युग से प्रायः सभी मामलों में भिन्न है। प्राचीन मान्यताएं एवं धारणाएं बदल गयी हैं। जीवन के कुछ नैतिक मूल्य भी बदले हैं और इस बुद्घि-प्रधान भौतिक युग में समाज का एक नया स्वरूप उभर कर सामने आ रहा है। ऐसी स्थिति में प्राचीन परिपाटियों को पकड़े रहना तो किसी भी दशा में उपयुक्त नहीं होगा। शिक्षक एवं शिक्षार्थियों के संबंध आज उसी प्रकार परिवर्तित हुए हैं, जिस प्रकार शिक्षा-प्रणाली में परिवर्तन हुआ है।
प्राचीन समय में शिक्षा, गुरुकुलों व विद्यापीठों में दी जाती थी। शिक्षार्थी वहां स्थायी रूप से रहकर विद्यार्जन करते व शिक्षक, शिक्षार्थियों की हर समस्या का निराकरण करते थे। इसीलिए उनको माता-पिता से भी ऊंचा स्थान प्राप्त था। उनमें किसी प्रकार का लालच नहीं था। आज भौतिकवादी युग में शिक्षक ने स्वयं अपना स्तर निम्न बना लिया है और वह किसी न किसी प्रकार से धनार्जन करने में लगा हुआ है। आज केवल शिक्षक ही दोषी नहीं है, बल्कि शिक्षार्थी भी दोषी नजर आते हैं। छात्र कॉलेजों में अध्ययन न करके ट्यूशन का सहारा लेते हैं। इसलिए यह दोष केवल शिक्षक को नहीं दिया जा सकता है।
शिक्षक को अपने विषय का सम्पूर्ण ज्ञान होना परमावश्यक है, क्योंकि शिक्षार्थी अपने शिक्षक के ज्ञान को ही सत्य मानता है, किसी अन्य के ज्ञान को नहीं। इसीलिए शिक्षक को सदैव शिक्षार्थियों को सही ज्ञान ही देना चाहिए। शिक्षक का एक महत्वपूर्ण दायित्व यह भी है कि वह शिक्षार्थियों से संबंध एक दायरे में रखे, जिससे शिक्षक एवं शिक्षार्थी के संबंध यथावत रहें।
शिक्षक एवं शिक्षार्थियों के संबंधों में परिवर्तन शिक्षा के व्यवसायीकरण का भी होना माना जाता है। शिक्षक एवं शिक्षार्थियों की दूरी का एक कारण यह भी है कि शिक्षार्थी प्राचीन समय में गुरु के समीप रहकर उनके समस्त सद्गुणों को अपनाता था, परन्तु आज के युग में शिक्षार्थी ने मान-मर्यादाएं त्याग दी हैं और स्वच्छन्दता तथा अराजकता की सीमाएं लांघता जा रहा है। अनुशासन, नम्रता, सदाचार और शिष्टाचार से जैसे उनका कोई सरोकार ही नहीं रह गया है। आज का शिक्षार्थी क्या नहीं कर सकता है। घेराव, हड़ताल और तोड़-फोड़ जैसी असामाजिक गतिविधियों से लेकर मारपीट तथा हिंसा जैसे जघन्य अपराधों से भी उसे कोई हिचक नहीं है।
आदर के पात्र गुरु कहलाने वाले शिक्षकों के साथ अभद्रता, अशिष्टता और मारपीट करने की बात अब सामान्य-सी हो गयी है। खुलेआम शराब आदि मादक द्रव्यों का सेवन करना और संगठित दल के रूप में किसी भी स्थान पर आतंक फैला देना शिक्षार्थी अपनी बहादुरी समझने लगे हैं। पढ़-लिखकर ज्ञानार्जन करना तथा शालीनता एवं शिष्टतापूर्ण आचरण से अपने व्यक्तित्व का विकास करने की बात अब कल्पना-सी लगती है। शिक्षार्थी के इन्हीं अवगुणों के कारण शिक्षक एवं शिक्षार्थियों के संबंध बदलते नजर आ रहे हैं, जो शिक्षार्थियों एवं देश के भविष्य के लिए घातक सिद्घ हो सकता है। शिक्षक को हम छात्र-जीवन का ज्ञानचक्षु भी कह सकते हैं। वह ज्ञानचक्षु, जो कि छात्र को जीवन के प्रति सही दृष्टि प्रदान करता है और उसे इस योग्य बनाता है कि वह भला-बुरा सोचने योग्य बन सके, उचित मानवीय जीवन जी सके। मगर आज शिक्षा पाना, स्कूलों-कॉलेजों में जाना अन्य अनेक फैशनों के समान मात्र एक फैशन बनकर रह गया है। उसका उद्देश्य ज्ञान या सूझ-बूझ अर्जित करना तथा व्यक्ति के छिपे गुणों-शक्तियों को उजागर कर उसकी कार्य-क्षमताओं का विकास करना न होकर फैशनपरस्ती के नाते कुछ डिप्लोमा-डिग्रियां प्राप्त करना ही रह गया है। यही कारण है कि आज का स्कूल-कॉलेज का शिक्षार्थी पढ़ने-लिखने में ध्यान नहीं देता, जितना कि अन्य तरीकों से डिप्लोमा-डिग्रियां हथियाने का प्रयास करता है। शिक्षार्थी कक्षाओं में पढ़ता नहीं या पढ़ना नहीं चाहता एवं शिक्षक भी कक्षाओं में पढ़ाना गुनाह समझ कर छात्रों के ग्रुप ट्यूशन स्कूलों में, अपने घरों में या किसी छात्र के घर में पढ़ाना अपना बुनियादी अधिकार समझते हैं। ऐसी स्थिति में शिक्षक एवं शिक्षार्थियों के संबंध बिगड़ना स्वाभाविक है।
शिक्षक एवं शिक्षार्थियों के संबंधों में सुधार तभी होगा, जब शिक्षार्थी अपने आचरण में सुधार करें। जिस प्रकार चर्म चक्षुओं के बिना मनुष्य अपने चारों ओर के स्थूल जगत को नहीं देख सकता, उसी प्रकार विद्या रूपी ज्ञानमय नेत्रों के बिना वह अपने वास्तविक स्वरूप को भी नहीं पहचान सकता और अपने जीवन को सफल नहीं बना सकता। इसी कारण विद्याध्ययन का काल अत्यधिक पवित्र काल माना गया है, क्योंकि शिक्षार्थी अपने शारीरिक, बौद्घिक एवं आध्यात्मिक जीवन की सफलता की आधारशिला इसी समय रखता है। पर विद्याध्ययन एक तपस्या है और तपस्या बिना समाधि के, बिना चित्त की एकाग्रता के संभव नहीं है। इसीलिए शिक्षार्थी अन्तर्मुखी होकर ही विद्यार्जन कर सकता है और शिक्षकों को भी दुर्व्यसनों को त्यागना चाहिए, जिससे शिक्षार्थियों पर इसका प्रभाव न पड़े। जिससे शिक्षक एवं शिक्षार्थियों में मधुर संबंध बन सके व एक अच्छे राष्ट का निर्माण हो सके। हम कह सकते हैं कि शिक्षक और शिक्षार्थियों के बीच बिगड़ते संबंधों में कोई एक कारण सन्निहित नहीं है। इन संबंधों में त्रिदोष उत्पन्न हो चुका है। शिक्षक, शिक्षार्थी और माता-पिता के बदलते दृष्टिकोणों ने इन संबंधों की गरिमा को समाप्त कर दिया है। अतः इस संबंध में त्रिदोष की समाप्ति परमावश्यक है। आज के परिवेश के बदलते नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों में जो निरन्तर गिरावट आ रही है, उसे भारतीय प्राचीन परम्परा और आदर्शों को ग्रहण कर बदलना परम आवश्यक हो गया है। तभी शिक्षक और शिक्षार्थियों के मध्य संबंधों में माधुर्य लाया जाना संभव हो सकेगा।
– डॉ. मनु प्रताप
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