जैन-धर्म के 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्र्वनाथ का जन्म करीब तीन हजार वर्ष पूर्व पौष शुक्ल दशमी के दिन वाराणसी में हुआ था। उनके पिता राजा अश्र्वसेन और माता महारानी वामादेवी थी। नौ हाथ अवगाहना की नीलवर्णी उनकी काया थी। तीस वर्ष की उम्र में पार्श्र्वनाथ ने दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के 84 वें दिन पार्श्र्वनाथ को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। 70 वर्ष तक उन्होंने केवली पर्याय में देशनाएं प्रदान कीं। सौ वर्ष की आयु में सम्मेद शिखर पर उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। उनके धर्मसंघ में दस गणधरों सहित 54 हजार साधु-साध्वियां, करीब पांच लाख व्रती श्रावक-श्राविकाएं और करोड़ों साधारण अनुयायी थे।
जैन मूर्तिकला और चित्रकला के विकास में भगवान पार्श्र्वनाथ की प्रतिमाओं और चित्रों का विशेष स्थान है। पार्श्र्वनाथ की प्रतिमाओं और चित्रों में सिर पर नाग का फन विशेष तौर पर होता है। इसके अलावा कहीं-कहीं आसन के रूप में भी नाग व नागिन को कमलवत घुमावदार दर्शाया जाता है। इन मूर्तियों और चित्रों में नाग-नागिन के साथ भगवान पार्श्र्वनाथ का सैकड़ों-हजारों कलात्मक रूपों में अंकन व चित्रण हुआ है। जैन-ग्रंथों में वर्णन मिलता है कि साधना काल के दौरान कमठ नामक दुष्ट देव ने भगवान पार्श्र्वनाथ को कष्ट देना चाहा, परन्तु उसी समय धरणेन्द्र और पद्मावती वेक्रिया लब्ध से नाग-नागिन के रूप में वहां उपस्थित होकर प्रभु को उपसर्ग से बचाया। पिछले जन्म में धरणेन्द्र पद्मावती नाग-नागिन ही थे, जिन्हें पार्श्र्वनाथ ने आग से बचाया और अंतिम समय में नवकार महामंत्र सुनाया, जिससे उन्होंने भवनपति देवों के देव इन्द्र धरणेन्द्र और उनकी रानी पद्मावती के रूप में देवलोक में जन्म लिया।
भगवान पार्श्र्वनाथ ने कर्मकाण्ड और अंधविश्र्वासों का प्रतिवाद किया और अहिंसा, करुणा तथा क्षमा का उपदेश दिया। चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का कुटुम्ब भगवान पार्श्र्वनाथ की परम्परा का अनुगामी था। भगवान महावीर के माता-पिता, मामा आदि भगवान पार्श्र्वनाथ की परम्परा के श्रावक-श्राविका थे। बौद्घ-विद्वान धर्मानन्द कौशाम्बी, जैन विद्वान पंडित सुखलाल, इतिहासकार राधाकुमुद मुखर्जी, राइस डेविड्स आदि के अनुसार भगवान बुद्घ ने आरंभिक तौर पर भगवान पार्श्र्वनाथ की परम्परा स्वीकार की थी और वहां उन्होंने जैन सिद्घांत, तप, आचार आदि को जाना व अभ्यास किया था। भगवान पार्श्र्वनाथ के विचार-दर्शन का उपनिषद साहित्य पर भी गहरा प्रभाव है।
पाश्र्चात्य विचारक डॉ. हर्मन जैकॉबी ने जैनागमों और बौद्घ पिटकों के आधार पर सर्वप्रथम भगवान पार्श्र्वनाथ को ऐतिहासिक तीर्थंकर सिद्घ किया। उनके बाद कोलब्रुक डॉ. एस. राधाकृष्णन, शार्पेण्टियर आदि अनेक पाश्र्चात्य और पौर्वात्य विद्वानों ने भी भगवान पार्श्र्वनाथ की ऐतिहासिकता को असंदिग्ध बताया। आज भगवान पार्श्र्वनाथ को सुस्पष्ट रूप से ऐतिहासिक तीर्थंकर के रूप में जाना जाता है।
भगवान पार्श्र्वनाथ को प्रत्यक्ष चमत्कारी तीर्थंकर माना जाता है। यही कारण है कि चौबीस तीर्थंकरों में से सर्वाधिक मंदिर, मूर्तियां, स्तुतियां, यंत्र, मंत्र आदि भगवान पार्श्र्वनाथ के प्राप्त होते हैं। प्राचीन और अर्वाचीन सभी भाषाओं में भगवान पार्श्र्वनाथ के हजारों स्तोत्र, भजन, गीत, काव्य आदि प्राप्त होते हैं। मंत्र दिवाकर ग्रंथ में लिखा है कि महाराणा प्रताप ने एक जैन मुनि के उपदेशानुसार संकट के समय भगवान पार्श्र्वनाथ की आराधना की थी और वे संकटमुक्त हुए थे।
– डॉ. दिलीप धींग
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