अ़र्जी

शक की कोई वजह नहीं है

मैं तो यों ही आपके शहर से गु़जरता

उन्नीसवीं सदी के उपन्यास का कोई पात्र हूँ

मेरी आँखें देखती हैं जिस तरह के दृश्य, बेा़र्ंिफा रहें

वे इस यथार्थ में नामुमकिन हैं

 

मेरे शरीर से, ध्यान से सुनें तो

आती है किसी भापगाड़ी के चलने की आवा़ज

 

मैं जिससे कर सकता था प्यार

विशेषज्ञ जानते हैं, वर्षों पहले मेरे बचपन के दिनों में

शिवालिक या मेकल या विंध्य की पहाड़ियों में

अंतिम बार देखी गई थी वह चिड़िया

 

जिस पेड़ पर बना सकती थी वह घोंसला

विशेषज्ञ जानते हैं, वर्षों पहले अन्तिम बार

देखा गया था वह पेड़

अब उसके चित्र मिलते हैं पुरा-वानस्पतिक किताबों में

तने के फ़ासिल्स संग्रहालयों में

 

पिछली सदी के बढ़ई मृत्यु के बाद भी

याद करते हैं उसकी उम्दा इमारती लकड़ी

 

मेरे जैसे लोग दरअसल संग्रहालयों के लायक भी नहीं हैं

कोई क्या करेगा आ़िखर ऐसी वस्तु रखकर

जो वर्तमान में भी बहुतायत में पाई जाती है

 

वैसे हमारे जैसों की भी उपयोगिता है ़जमाने में

रेत घड़ियों की तरह हम भी

बिल्कुल सही समय बताते थे

हमारा सेल ़खत्म नहीं होता था

पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण हमें चलाता था

हम बहुत कम ़खर्चीले थे

हवा, पानी, बालू आदि से चल जाते थे

अगर कोयला डाल दें हमारे पेट में

तो यकीन करें हम अब भी दौड़ सकते हैं

 

– उदय प्रकाश की एक मशहूर कविता

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