गंंगईकोण्डा चोलपुरम् मंदिर का निर्माण चोल नरेश राजराज-प्रथम के यशस्वी पुत्र राजेंद्र-प्रथम (1018-1033 ईस्वी) ने 1025 ईस्वी में कराया था। गंगइकोण्डा चोलपुरम् तंजावर से 61 किलोमीटर तथा कुंभकोनम से 35 किलोमीटर दूर है। गंगइकोण्डा चोलपुरम् को राजेंद्र चोल ने बसाया था तथा कुछ समय के लिए यह उसकी राजधानी रहा। राजेंद्र चोल ने कश्मीर को छोड़कर सम्पूर्ण उत्तर भारत पर विजय प्राप्त की थी तथा पूर्वी एशिया के बहुत बड़े भाग पर भी अपना वर्चस्व स्थापित किया था। उत्तर में गंगा के तटों तक अपनी विजय के स्मारक स्वरूप तथा भगवान शिव के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए उसने गंगईकोण्डा चोलपुरम् मंदिर का निर्माण कराया। उत्तर भारत में अपनी विजयों के पुरस्कार स्वरूप उसने केवल पवित्र “गंगाजल’ ही वसूला और उसे यहॉं लाकर एक सरोवर में भरवा दिया था। यह मंदिर राज-परिवार की व्यक्तिगत पूजा-पाठ के लिये प्रयुक्त होता था।
यह विशाल मंदिर ऊँची प्राचीर से घिरे आयताकार प्रांगण के बीचोंबीच खड़ा है। सुरक्षा की दृष्टि से इसके दक्षिण-पूर्वी कोने में एक बड़ा तथा पश्र्चिमी छोर पर एक छोटा निगरानी बुर्ज है। मंदिर का मुख्य प्रवेश-द्वार पूर्व में है, जो सभा-कक्ष में खुलता है। सम्पूर्ण मंदिर 103.70 मीटर लम्बा व 33.5 मीटर चौड़ा है। रक्षा प्राचीर में अनेक गोपुर थे, जिन्हें क्षतिग्रस्त किया गया था। मंदिर के मुख्य अंग-प्रदक्षिणा पथ युक्त विमान, अन्तराल तथा विशाल कक्ष एक ही आधार पीठिका पर तथा आपस में संलग्न बनाये गये हैं। इस मंदिर की आधार पीठिका अधिक सुसज्जित एवं समृद्घ है। इसका भूतल कुछ बड़ा है। इसमें दो सोपान पंक्तियॉं चढ़कर एक लंबे बंद-मण्डप के प्रथम प्रवेश-द्वार में पहुँचते हैं, जो मुख्य मंदिर की ओर जाते हुए अनेक स्तम्भ युक्त विभाजनों से बंटा हुआ है। 150 स्तम्भों वाला यह विशाल कक्ष अपेक्षाकृत कम ऊँचा है, जिसकी लंबाई 53.40 मीटर तथा चौड़ाई 29 मीटर है। विमान की कुल ऊँचाई 56.75 मीटर है। यहॉं के स्तम्भ 1.20 मीटर ऊँचे व आधार मंचों पर पंक्तिबद्घ खड़े हैं। इस स्तम्भ युक्त कक्ष को एक मध्य वीधि दो भागों में विभाजित करती है। स्तम्भ युक्त कक्ष तथा देवकक्ष के बीच एक अनुप्रस्थ भाग है, जो उत्तर तथा दक्षिण के दो द्वारों में खुलता है। इनके आगे सोपान हैं। मंदिर का प्रार्थना-कक्ष भीतर-बाहर से अत्यंत सादा है।
प्रार्थना-कक्ष के मुख्य-द्वार के सामने एक भव्य प्रवेश-मण्डप बनाने का प्रयत्न किया गया था, जो दुर्भाग्यवश अधूरा ही रह गया। इसका आभास सामने निर्मित नंदी की एक बड़ी मूर्ति से होता है। विमान के वर्गाकार आधार की एक भुजा की नाप 30.5 मीटर है। मंदिर का पिरामिडिय शिखर मध्य में वााकार है, क्योंकि कोनियों से बना पिरामिडिय आकार वा हो जाता है। ऐसी वाता पूरे आकार को नवीनता प्रदान करती है। यह लचक मंदिर को एक नारी सुलभ कोमलता भी प्रदान करती है।
मंदिर का मूर्ति-शिल्प भी उसकी वास्तुगत विशेषताओं जितना ही महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली है। अधिकांश मूर्तियॉं एक आकृति वाली तथा अलिंदों में सज्जित हैं। दक्षिण-पूर्व दिशा में एक धंसाकर बनाये गये चित्र-फलक में भगवान नटराज की प्रतिमा उत्कीर्ण है। एक अन्य चित्र-फलक में लपटों से घिरे हुए एक शिवलिंग की आकृति है। दक्षिणी छोर पर भगवान गणेश तथा उत्तर में चण्डी केश अग्रहार मूर्ति अंकित है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक तल में सबसे निचले सिरे पर दबे हुए बौने तथा राक्षस आदि बनाये गये हैं। विशाल नंदी की मूर्ति भी अपने मंच सहित अत्यंत संतुलित लगती है। चोल शिल्प में अंकित अर्द्घनारीश्र्वर की कांस्य प्रतिमा भी कला-दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।
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