श्रेणिक महाराज समवसरण में बैठकर प्रभु श्री महावीर स्वामी की देशना का पान कर रहे थे। देशना के पश्र्चात् श्रेणिक राजा ने प्रभु से पूछा, “”प्रभु, मैं मरकर कहॉं जाऊँगा।”
प्रभु ने कहा, “”तुम पहली नरक में जाओगे।”
प्रभु के मुख से पहली नरक सुनकर श्रेणिक राजा चिन्ता में पड़ गये। स्तब्ध हो गये।
प्रभु ने कहा, “”श्रेणिक, हर एक प्राणी को अपने किये कर्म तो भोगने ही पड़ते हैं।”
श्रेणिक ने कहा, “”प्रभु, नरक की वेदना तो अत्यंत असह्य व दुःखदायी होती है, मैं कैसे सहन कर पाऊँगा। मुझे वहां न जाना पड़े, ऐसा कोई उपाय बताओ।” श्रेणिक ने बालक की तरह बहुत जिद की।
तब उसके संतोष के लिए प्रभु ने कहा, “”इस राजगृही नगरी में एक पुणिया नामक श्रावक रहता है, तू उसके पास जाकर सामायिक ले आना, तेरा नरक गमन रुक जाएगा।”
श्रेणिक ने सोचा, “”मेरे पास मगध की सत्ता है। बड़ा साम्राज्य है, पुणिया से सामायिक ले आना बड़ी बात नहीं है। अभी ही जाकर सामायिक ले आता हूँ।” श्रेणिक पुणिया के पास जाता है। मन में नहीं सोचा कि मैं मगध का मालिक हूं। छोटे श्रावक के यहां कैसे जाऊं।
श्रेणिक महाराजा ने पुणिया के घर में प्रवेश किया, वह सामायिक में बैठा था। आंखें बंद थीं, चित्त शांत था, मन प्रसन्न था, चेहरे पर समता और समाधि दिख रही थी। ऐसी शांति तो श्रेणिक महाराज ने राजमहल में भी नहीं देखी थी।
राजा ने उसके घर में एक नजर घुमाई। घर की चार दिवारें उसमें थोड़ा-सा राशन-पानी व चार-पांच बर्तन थे।
पुणिया की सामायिक पूरी हुई। श्रेणिक ने पुणिया को नमस्कार किया। हाथ जोड़कर पुणिया ने पूछा, “”महाराज, मेरे जैसे गरीब के घर को आपने पावन किया है। फरमाइये क्या कारण है आपके आगमन का? क्या कष्ट पड़ा आपको? आज्ञा करते तो मैं स्वयं ही आ जाता।”
राजा ने कहा, “”मेरा निजी काम था। अतः आना जरूरी था।”
पुणिया ने कहा, “”आज्ञा फरमाइए, महाराज।”
श्रेणिक ने कहा, “”तुम तो बड़े पुण्यात्मा हो, जीवन भर तुमने सामायिकें की हैं। उसमें से मुझे एक सामायिक दे दो तो मेरा काम बन जायेगा।”
पुणिया ने कहा, “”राजन, आप तो मेरे स्वामी हैं। आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। आपके राजमहल में झाडू निकालने को मैं तैयार हूं किन्तु सामायिक देने की शक्ति मुझमें नहीं है।”
पुणिया की बात सुनकर राजा को आश्र्चर्य हुआ। राजा उसे लाखों स्वर्ण मोहरें देने की बात कहने लगे।
पुणिया ने कहा, “”महाराज, सामायिक देना मेरे बस की बात नहीं है।”
श्रेणिक ने कहा, “”तू मगध का राज्य और सिंहासन सब कुछ ले ले, किन्तु मुझे एक सामायिक दे दे बस।”
पुणिया बोला, “”महाराज, जो सामायिक तीनों लोक का साम्राज्य दे सकती है, उसकी सौदेबाजी मैं स्वर्ण मोहरें और राज सिंहासन से नहीं कर सकता। मुझे माफ करो महाराज, माफ करो, मैं सामायिक नहीं दे सकता। सामायिक करने वाले को ही सामायिक का फल प्राप्त होता है। सामायिक कोई बाजार में बिकने वाली चीज नहीं है। यह तो आत्मा का भाव है।”
श्रेणिक निराश हो गया। उसकी तृप्ति एवं संतोष को देखकर प्रसन्न होता हुआ वह चला गया। पुणिया धन से गरीब किन्तु दिल से बड़ा दिलावर था। बाहर से कंगला, भीतर से अमीर था।
रोज दो आना कमाकर भी हर रोज साधर्मिक बंधुओं की भक्ति करता था। पुणिया के जैसे ही दिल के दिलावर बन साधर्मी भक्ति कर मुक्ति मंजिल को प्राप्त करें।
– आचार्य विजय वीरेन्द्र सूरीश्र्वर
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