वह जिस लड़की से प्यार करते थे, वह तंग गली में रहती थी। उसके मकान के आगे-पीछे दोनों तरफ गलियां थीं, जो नालियों से अटी हुई थीं और वहां बेजा गंदगी रहती थी। मकान के पीछे की अपेक्षा आगे की गली में सदैव आवाजाही बनी रहती थी। वह गली ठीक बस-स्टाप के पीछे और उसके घर के सामने थी। पिताजी की बहुत जान-पहचान थी। वे कड़क स्वभाव वाले थे। तंग, गंदी गलियों में उनके विचरने से सवाल और संदेह भी उठ सकते थे, सो इन सबसे बचने के लिए वह पीछे वाली गली से उस लड़की को “लाइन’ मारा करते थे। जहां उनकी प्रेमिका घर का कूड़ा-करकट बाहर फेंकती हुई या अपने छोटे भाई-बहनों की पोंद धुलाती हुई दिख जाती थी। पूरे तीन साल गली के पूरब और पश्र्चिम छोर से उन्होंने ताका-झांकी की, पर पूरे प्रयत्न के बाद भी वह उसका पूरा चेहरा नहीं देख पाये।
उसका बायां और दायां चेहरा देखकर ही उन्होंने एक खूबसूरत लड़की की कल्पना की थी। यह कल्पना उन्हें आसमानी रंग-सा सुकून देती थी। यूं तो उनके जीवन में अनेक रंग आये और चले गये, पर जो रंग उनके जीवन में आकर ठहर गये, वह आसमानी और कच्चे हरे रंगों से बने पल थे। इन पलों में बहुत से उस गली में गुजरे थे। उस वक्त जब उनकी समझ विकसित हो चुकी थी… बरसात के दिनों में बादलों के गरजने, बरसने और मई-जून के महीनों में सूरज के तपने और दिसंबर में मुरझा जाने के मतलब वह समझ चुके थे। उस वक्त तक वह यह भी समझ चुके थे, उनका बचपन संयुक्त परिवार में बचपन जैसा नहीं, अपितु निर्वाह जैसी चीज बनकर रह गया है। जीवन की बहुत अनिवार्य सुविधाएं और भरपेट भोजन के साथ, उनके सामने एक बहुत बड़ी चुनौती रख दी गई थी… “”यह तुम्हारा जीवन है। इसे तुम जैसा चाहो बना लो।” जिले में कई कोयले की खदानें हैं। खदानों में कई तरह की नौकरियां हैं। कोयला खदानों की पालियों में काम करना और लोगों को करता देखना उन्हें कतई पसंद नहीं था।
बचपन का बचपना, बचपन के खेल, बचपन के मजे, बचपन की दौड़-धूप, बचपन का रोना-गाना, बचपने को मनाना-फुसलाना जैसे क्षण उनके बचपन में नहीं आये। उनके साथ ही घर में अन्य दूसरे बचपनों की भी यही स्थिति थी। यदाकदा घर की महिलाएँ वात्सल्य भरी दृष्टि फेर देती थीं, पर सदैव घर के काम में ही जुटी रहतीं।
उस वक्त सूरज के उगने के साथ ही घर में रोशनी हुआ करती थी और सूरज के डूबने के साथ ही घर अंधेरों से घिरा होता था। थोड़ी-बहुत जो रोशनी होती, वह या तो चूल्हे के आसपास होती या एक छोटी-सी ढिबरी में बंद केरोसिन आयल में डूबी हुई कपड़े की बत्ती में होती। घर के सामने तुलसी के पौधे के चौरे पर एक मीठे तेल का दीया गोधूलि बेला पर जलता जरूर था, पर कम तेल होने से जल्दी बुझ भी जाता था। जितना घर के पुरुष घर के बाहर रहकर काम करते, उससे अधिक काम घर में, घर की महिलाओं के लिए होता था।
उस समय तक गांव में बिजली नहीं आई थी और बच्चे दीये की रोशनी में घेरा बनाये बैठे अपनी पढ़ाई किया करते थे। दादा-दादी, चाचा-चाची, बुआ, सगे व चचेरे भाई-बहनों व दो मौसियों के बीच रहकर भी वह अपने आपको बेहद अकेला पाते थे। घर के सदस्यों को यंत्रवत्, अपनी-अपनी दिशा में घूमते देख वह अनमने से हो जाते थे। ऐसे में उन्हें बस-स्टॉप के पीछे वाली गली बहुत याद आती और उनके आसपास छाये आसमानी रंग और प्रखर हो जाते। वह दसवीं, ग्यारहवीं कक्षा के दिन हुआ करते थे। घर और स्कूल में उनका एक ही काम था… पढ़ाई और सिर्फ पढ़ाई।
इसके बावजूद वह अपने अनमनेपन से बाहर निकलने के लिये सुबह-शाम यानी स्कूल जाने से पहले और स्कूल से आने के बाद बस-स्टॉप के दो चक्कर अवश्य लगा लिया करते थे, जहां उन्हें यदाकदा उस लड़की की थोड़ी-बहुत झलक मिल जाती थी।
कई बार उन्होंने चाहा कि एक बार सामने की गली से उसके मकान के सामने से गुजरें। उसके मकान के अंदर तक झांककर देखें। उसे एकदम नजदीक से देखें… देखकर अपने बहुत अंदर तक महसूस करें। मगर यह हो न सका। अपने पहचाने जाने की आशंका और किसी भी प्रकार के संदेह से पिता का लाल-पीला हो सकने वाला चेहरा उन्हें हतोत्साहित करता रहा था। वह चाहकर भी ऐसा नहीं कर सके थे। उनके इसी दब्बू स्वभाव के कारण उनके सबसे प्रिय आसमानी रंग जमीन पर नहीं उतर पाये। पर इन्हीं रंगों की कल्पनाओं के साथ उन्होंने मैटिक किया, फिर नगर से दूर रहकर स्नातक की परीक्षा पास की। स्नातकोत्तर परीक्षा के प्रथम वर्ष में ही उन्हें पोस्ट ऑफिस की पोस्ट मास्टरी मिल गयी थी। वह आसमानी रंगों के साथ, एक गांव से दूसरे गांव, एक पोस्ट ऑफिस से दूसरे पोस्ट ऑफिस में तीन-तीन चार-चार वर्षों के अंतराल में भटकते रहे।
अपने रिटायरमेंट के अंतिम दिनों में वह अपने नगर पहुँच गये थे। उनकी पोस्ंिटग ठीक बस-स्टाप के पास वाले पोस्ट ऑफिस में हुई, जहां से कभी उन्होंने आसमानी रंगों के पल बटोरे थे और जो बहुत दिनों तक उनके जीवन में धुंधले नहीं हुए थे।
एक दिन अचानक उनके कदम बस-स्टॉप के पीछे और उस मकान के सामने वाली गली की ओर मुड़ गये, जहां पहले कभी जाने से वह बेहद डर जाया करते थे। वह इन गलियों से युवावस्था में चुराये गये आसमानी रंग के बारे में सोच ही रहे थे कि उन्हें सामने से अपना बेटा दीनू आता हुआ दिखाई दिया।
उसकी चाल में बेहद अल्हड़पन और आंखों में आसमानी रंगों के बादल का एक छोटा-सा टुकड़ा था। एक पल तो वह ठिठककर खड़े हो गये। पर फौरन वहां से हट भी गये। वह नहीं चाहते थे कि उनके बेटे दीनू की नजर उन पर पड़े और उनकी आंखों में झलक रहे आसमानी रंग डरकर बिखर जाएँ।
– राजेश झरपुरे
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