भारत की अनेक विशेषताएं हैं। हम लोग इस दिव्य परम्परा के वारिस हैं, जिस परम्परा ने अनादिकाल से हम लोगों को ज्ञान-विज्ञान का अपूर्व भंडार दिया है। अनेक स्थानों पर ऐसा कहा गया, ऐसा सोचा गया है कि मनुष्य उतांत होता गया है। पूरे संसार का वाङ्मय देखने पर और हमारे वेद-वेदान्त के वाङ्मय को देखने पर एक बात आपको निश्र्चित रूप से प्रतीत होनी चाहिए कि आज भी हम विचार की उन ऊँचाइयों को नहीं छू पाये हैं जिन ऊँचाइयों को हमारे वैदिक ऋषियों ने, हमारे प्राचीनतम मनीषियों ने सरलता से छू लिया था। अनेक बार ऐसा भी कहा जाता है कि वेदों में तो केवल साधारण सी बातें हैं। गड़रियों के गीतों जैसे गीत हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वेदों में जो उतान्ति विचारों की हुई। वस्तुतः अनेक पाश्चात्य विचारकों ने भिन्न-भिन्न कारणों से कभी अज्ञान से तो कभी हेतुपूर्वक हमारी निष्ठाओं को विचलित करने का प्रयास किया। किन्तु जब वैदिक वाङ्मय की ओर जिज्ञासा की दृष्टि से देखते हैं तब यह बात निश्र्चित रूप से हम लोगों के ध्यान में आ जाती है कि जितना ऊँचा विचार उपनिषदकारों ने दिया उतना ही ऊँचा विचार वैदिक संहिताओं में भी है। जिसने भी ऋग्वेद का अध्ययन ठीक ढंग से किया होगा, उसके ध्यान में यह बात आसानी से आई होगी। “”नासदासीत् नो सदासीत् तदानीं।” जो विचार नासदीय सूक्त ने प्रतिपादित किया है कि न सत् था न असत् था। क्या था पता नहीं। “”कुतो विसुष्टिः इयमाबभूव”? यह सम्पूर्ण सृष्टि कहॉं से आई? ऋषि इसका विचार करते हैं। ऋषियों को परमात्मा के दिव्य तत्त्व का साक्षात्कार होते समय वे भाव विभोर हो जाते हैं और कहते हैं कि परमात्मा की उस महिमा को वे स्वयं भी जानते हैं कि नहीं, पता नहीं। “”सो अंग वेद यदि वा न वेद”। वे इतने सुन्दर हैं, वे इतने अद्भुत हैं, वे इतने विलक्षण हैं कि उनकी इन विलक्षणताओं को वे स्वयं भी जानते हैं कि नहीं पता नहीं। विचारों की ऐसी ऊँचाइयों को, शिखरों को आज तक अन्य कोई नहीं छू पाया है।
हमारे यहां उतान्ति का विचार नहीं है। एक चावत् गति का विचार है कि जिस परम्परा को हमने प्राप्त किया है, यह परम्परा उतान्त नहीं होती गई। ये अत्यन्त श्रेष्ठ विचार – नहीं, नहीं, श्रेष्ठतम विचार अनादिकाल से हमारे पास उपलब्ध रहे हैं। जब इतने प्राचीन काल से इतने श्रेष्ठ विचार हम लोगों को उपलब्ध हैं तो हम लोगों से वास्तव में यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि हमारा जीवन भी उतना उन्नत हो। सर्वोच्च उन्नत ना भी हो तो भी अन्य लोगों की अपेक्षा, अन्य भूमि के, अन्य राष्टों के निवासियों की अपेक्षा हमारा जीवन निश्र्चित रूप से कुछ न कुछ मात्रा में विकसित प्रतीत होना चाहिये। इसी दृष्टि से भगवान मनु ने स्वयं कहा था कि संसार के समस्त लोगों से मैं अनुरोध करता हूं कि वे आयें और मेरे देश के उन अग्रजन्मा ब्राह्मणों से अपने जीवन के, अपने चरित्र के दिव्य सन्देशों को सुनें, जानें और अपने जीवन को भी उन्नत करने का प्रयास करें।
“”एत्द्देशप्रसूतस्य सकाशादग्र जन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।”
मानो हिमालय की चोटी पर खड़े होकर भगवान मनु कहते हैं कि हे संसार के समस्त लोगों आप आइए और यहां का जीवन देखिए। किसलिए देखिए? स्वयं के जीवन को उन्नत बनाने हेतु शिक्षा प्राप्त करने के लिए देखिए।
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