कैसे हावी हो जाते हैं चरमवादी विचार?

मुंबई की सड़कों पर तोड़-फोड़ करने वालों, गुजरात के साम्प्रदायिक दंगों में निरीह लोगों पर हथियार उठाने वालों, उड़ीसा में धर्मांतरण के नाम पर अत्याचार करने वालों और धर्म के नाम पर जेहाद का नारा लगाने वाले आतंकवादियों में क्या समानता है? इस सवाल का एक जवाब यह है कि उनमें से अधिसंख्य युवा हैं और दूसरा जवाब यह है कि ये सारे युवा अनपढ़ व बेरोजगार नहीं हैं। यह तथ्य व्यवस्था एवं समाज-शास्त्रियों की चिंता का विषय होना चाहिए कि देश का युवा मानस इतनी आसानी से बहकाया कैसे जा रहा है? समाज की सकारात्मक शक्तियों का कोई असर क्यों नहीं पड़ता?

बहुत से कारण गिनाये जाते हैं युवाओं के गुमराह होने के। इनमें से एक कारण यह भी बताया जाता है कि ऐसे अधिसंख्य युवा बेरोजगारी, अशिक्षा, सामाजिक पिछड़ेपन आदि के शिकार होते हैं, इसलिए अकसर गलत राह पर चल पड़ते हैं। लेकिन हाल ही में देश में हुए बम धमाकों के संदर्भ में हुई गिरफ्तारियों से जो तथ्य सामने आया है, वह युवाओं की गुमराही का एक और दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। गिरफ्तार हुए ज्यादातर नौजवान संभ्रांत परिवारों के हैं, पढ़े-लिखे भी हैं। इतना ही नहीं, इनमें से कई तो उच्च तकनीकी शिक्षा प्राप्त हैं। विज्ञान के स्नातक हैं, इंजीनियर हैं और अच्छी-खासी नौकरियां भी कर रहे हैं। तो फिर ये गलत राहों पर कैसे चल पड़े?

वैसे, यह पहली बार नहीं है जब पढ़े-लिखे युवाओं ने ऐसे रास्ते चुने हैं जो स्वीकृत सामाजिक मान्यताओं के विपरीत तो हैं ही, इस अर्थ में भी खतरनाक हैं कि प्रकाश की ओर नहीं, अंधेरों के घर तक ले जाते हैं। नक्सलवाद का जन्म हुआ था तो हमने अनेक पढ़े-लिखे नौजवानों को अपने कथित आदर्शों के लिए बंदूकें उठाते देखा था। तब भी यह सवाल उठा था कि क्यों युवा मानस ऐसे कदम उठाता है। धर्म के नाम पर आतंकवाद अपनाने वाले भी अपने पक्ष में तर्क देते हैं। इस बार गिरफ्तार युवाओं में से एक, मोहम्मद मंसूर असगर ने तो स्पष्ट कहा है कि भारत, इराक और चेचन्या में मुसलमानों पर जिस तरह के अत्याचार होते हैं, उन्हें वह सह नहीं पाया, इसलिए उसने आतंकवाद का रास्ता अपनाया है। सवाल उठता है कि मेधावी और प्रतिभाशाली छात्र रहा असगर कथित अत्याचारों के झांसे में कैसे आ जाता है?

पहले यह कहा गया था कि गरीबी, बेरोजगारी, सामाजिक पिछड़ेपन आदि के शिकार मुसलमान युवा आसानी से बहकाये-बहलाए जा सकते हैं। पर असगर जैसे उदाहरण इस तर्क को खारिज कर देते हैं।

अमेरिका में वर्ल्ड टेड सेंटर पर आत्मघाती हमला करने वाले युवा न गरीब थे, न बेरोजगार, न अशिक्षित। धर्म के नाम पर वे अधर्म करने के लिए कैसे उतारू हो गये? अब भारत में गिरफ्तार हुए असगर जैसे नौजवान भी एक सवालिया निशान बनकर हमारी व्यवस्था के सामने खड़े हैं। गुजरात में खून बहाने वाले युवाओं का उन्माद भी ऐसा ही सवालिया निशान था और उड़ीसा में धर्मांतरण के खिलाफ उठी साम्प्रदायिकता भी हमारी शिक्षा व्यवस्था, हमारी सामाजिक सोच और नैतिक मूल्यों पर प्रश्र्न्नचिह्न ही लगा रही है। ये सारे उदाहरण यह भी बता रहे हैं कि समाज और मनुष्यता विरोधी ताकतें प्रगतिशील सोच और सकारात्मक विचारों पर भारी पड़ रही हैं। लेकिन क्यों? और कैसे?

आतंकवाद और साम्प्रदायिकता के प्रत्यक्ष कारण कुछ भी बताये जाते हों, लेकिन इस सवाल पर विचार किया जाना जरूरी है कि अतार्किक चरमवादी विचार कैसे हावी हो जाते हैं? मानवीय मूल्य, मानवीय आदर्श, हमारी प्रगतिशील कहलाने वाली शिक्षा प्रणाली, परंपरागत विवेक आदि सब क्यों असफल सिद्घ हो रहे हैं? पढ़े-लिखे और संभ्रांत घरानों के युवा भी गुजरात के दंगों या फिलस्तीनी संघर्ष या इराक युद्घ की सीडी देखकर बहक कैसे जाते हैं? धर्म की दुहाई देकर मुसलमानों या हिन्दुओं के युवा वर्ग को बहकाने में कुछ ताकतें सफल होती हैं तो उसका सीधा-सा मतलब यह है कि समाज की सकारात्मक ताकतें कमजोर सिद्घ हो रही हैं।

लगातार बढ़ते-पसरते आतंकवाद के संदर्भ में इस तथ्य को समझना भी जरूरी हो गया है कि समाज में अलगाववादी सोच अविश्र्वास की खाइयां गहरी करती जा रही है। इस दृष्टि से देखें तो यह विश्र्वास का संकट है। विभिन्न समुदायों के बीच आपसी समझ और आपसी विश्र्वास को बढ़ावा देने की आवश्यकता को समझना शायद अब जितना जरूरी पहले कभी नहीं था। यह विसंगति ही है कि दो देशों के बीच आपसी विश्र्वास बढ़ाने के लिए कदम उठाने की बातें तो होती हैं,  लेकिन दो समुदायों के बीच विश्र्वास बढ़ाने की बात हम नहीं सोचते।

भारत में आतंकवाद के बढ़ने और युवाओं का उसका शिकार होने के संदर्भ में हम बाहरी ताकतों की बात अक्सर करते रहते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि ये बातें निराधार नहीं हैं, लेकिन जिस तरीके और जिस गति से भारतीय युवा मानस आतंकवादी सोच की गिरफ्त में आ रहा है, उससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि इस आतंकवाद के कारणों की तलाश हमें अपने भीतर भी करनी होगी।

आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, यह बात अक्सर कही जाती है लेकिन अक्सर धर्म के नाम पर आतंकवाद फैलाया जाता है, यह भी हकीकत है। इसलिए जरूरी है कि इस कथित धार्मिक कट्टरता से युवा मानस को बचाने की कोशिश हो। लेकिन हमारी त्रासदी यह भी है कि हमारी शिक्षा प्रणाली में इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए कोई जगह नहीं है। कहीं न कहीं हम अपनी युवा पीढ़ी को गलत मूल्यों और गलत आदर्शों में ढाल रहे हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में बमों के धमाके करने वाले आतंकवादियों और धर्म के नाम पर समुदायों को बांटने की साजिश रचने वालों में कोई बुनियादी अंतर नहीं है। फिर जब यह तथ्य सामने आता है कि बम रखने वाले या घर जलाने वाले हाथ उन युवाओं के थे, जिन्हें अपनी ऊर्जा निर्माणात्मक कार्यों में लगानी चाहिए थी, तो यह बात अनायास सामने आ जाती है कि इस सारी समस्या को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है। यह सुनिश्र्चित करने की जरूरत है कि देश के हर तबके को सामाजिक न्याय दिलाने की आश्र्वस्ति और अहसास मिले। यह भी सुनिश्र्चित किया जाना जरूरी है कि कोई नागरिक या कोई समुदाय स्वयं को समाज-देश की मुख्य धारा से काटा हुआ न महसूस करे। यह काम आसान नहीं है, लेकिन किया जाना जरूरी है। समस्या का निदान पत्तियों पर नहीं, जड़ों में दवा डालने से हो पायेगा। इस बात को हम जितनी जल्दी समझ लेंगे, उतना बेहतर होगा।

 

– विश्र्वनाथ सचदेव

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