करें मरण का प्रशान्त वरण

किसी फिल्मी गाने का यह अंश शायद आपके मन में कभी-कभी प्रतिध्वनित होता रहा होगा – दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा… जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा… एक कविता में इसी सबको कुछ दूसरे ढंग से व्यक्त किया गया है – विहंसते मुर्झाने का फूल… श्रीमद्भगवद् गीता उद्घोषित करती है – जातस्य हिध्रुवो मृत्यु… यानी जिसने भी जन्म लिया है उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है। उसे मरना ही होगा। पर चिन्ता की बात यह है कि यद्यपि हम सभी जानते हैं कि किसी न किसी दिन हमें अपने सारे प्रियजनों और कठिन प्रयत्न से अर्जित सम्पत्ति को सदा के लिए छोड़कर इस दुनिया से विदा लेनी ही होगी तो भी हम इसे भुला देते हुए अपने बंधनों को इतना अधिक दृढ़ करते चलते हैं कि अन्तिम बुलावा जब आता है, तब इन बंधनों को तोड़ने में बड़ी मानसिक पीड़ा भोगनी पड़ती है। इसकी अपेक्षा यही अच्छा है कि जब जीवन के अंतिम चरण में पहुंच जाते हैं तो इन बंधनों को ढीला करने और मृत्यु का शान्त भाव से वरण करने की मानसिक तैयारी आरंभ करें? यानी मोक्ष का प्रयत्न। धीर वीर निर्भीक मन। जो सेवाव्रती पुरुष हैं वे अपने किसी उच्चतम आदर्श के लिए या अपने वतन की आजादी के लिए सहर्ष अपनी जान कुर्बान करते हैं। सुकरात से लेकर भगतसिंह तक और बाद के अनेक शहीदों तक की कितनी ही लंबी सूची है इनकी। खैर, यह तो असाधारण धीरता रखने वालों की बात है। यहां तो हम साधारण व्यक्तियों की बात कर रहे है। कई ऐसे हैं जो भगवान का जाप या स्मरण करते हुए बड़े शान्त भाव से विदा ले लेते हैं। मेरे पिताजी एक साधारण व्यक्ति थे। हर शाम को वे मलयालम में भक्त कवि एसुत्तच्छन कृत हरिनाम का जाप रटा करते थे। जब अंतिम समय आ गया तो अस्पताल के बिस्तर पर पड़े-पड़े मुझसे कहा – “”अब मेरे जाने का समय आ गया है। अब मुझसे कुछ न बोलना। ऐसा करो- तुम मेरे सिरहाने बैठ जाओ। मेरा सिर उठाकर तुम्हारी गोदी में रख लो। मैं हरिनाम कीर्तन जपते हुए जाना चाहता हूं। मैं जाप शुरू करता हूं। जितना हो पाएगा, रटूंगा। जब मेरी आवाज बन्द हो जाएगी, शेष भाग तुम रटना। तब तक रटना जब तक मेरा शरीर पूर्ण रूप से जड़ नहीं हो जाए।” मैंने ऐसा ही किया। वे हरिनाम कीर्तन के करीब पन्द्रह पद धीमी आवाज में रट गए और मूक हो गए। शेष भाग मैंने सुनाया। उसे सुनते हुए उन्होंने आखिरी सांस छोड़ी। परिजनों को भी चाहिए कि अंतिम समय अपने बन्धुजनों को शान्ति से विदा लेने का अवसर प्रदान करें। – के.जी. बालकृष्ण पिल्लै

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