विनम्र प्रधानमंत्री जी ने विनम्रतापूर्वक महंगाई पर चिन्ता व्यक्त की। वित्त-मंत्री जी ने भी महंगाई पर चिन्तन किया। मुख्यमंत्री जी ने भी महंगाई पर चिन्ता की। इस स्थिति में मेरा भी पुनीत कर्तव्य है कि मैं भी महंगाई पर चिन्ता करूं, चिन्तन करूं, मनन करूं। तो हुजूर पाठकान, मैं आपके चिन्तन को भी आमंत्रित करता हूँ। कृपया चिन्ता करें और चिन्तक कहलायें।
महंगाई सुरसा की तरह बढ़ती जाती है और सरकारी वक्तव्य “ऊँट के मुंह में जीरा’ साबित होते रहते हैं। रसद विभाग की कड़ी कार्यवाही और कठोर अनुशासन की चेतावनी मुनाफाखोरी, कालाबाजारी के आगे खोखली धमकी साबित हो रही है। मेरे कमजोर दिमाग के अनुसार महंगाई का असली कारण गरीब है। अमीर को महंगाई नहीं सताती है, वह महंगाई को मारकर रावण की तरह हंसता है, जबकि गरीब महंगाई की मार से कमर तुड़वाकर बैठता है। हर व्यक्ति के लिए महंगाई की परिभाषा भी अलग-अलग होती है। एक व्यक्ति कहता है-फ्लैट एक करोड़ का मिल रहा है, तब मजदूर कहता है-प्याज दस रुपये किलो हो गया है, दाल महंगी हो रही है। लेकिन मंत्री माने तब ना।
महंगाई पर चिन्तन करना हर एक की मजबूरी है। गृहिणी कहती है कि सरकार के पेट में गैस भर गई है, मगर गैस सिलेण्डर खाली है और ब्लैक में खरीदना संभव नहीं। अर्थशास्त्री महंगाई को मुद्रास्फीति, बजट, करों की चोरी, फिजिकल डेफिसिट, विश्र्व बाजारवाद, उपभोक्ता संस्कृति, स्वतंत्र अर्थ व्यवस्था, शेयर बाजार, कारपोरेट कल्चर और करप्शन से जोड़ता है, मगर अर्थशास्त्र की यह भाषा आम आदमी की समझ से बाहर है। मुद्रा है कहां जो बढ़ रही है। मुद्रा तो बस मुद्रणालयों में छप रही है।
समाजविज्ञानी से पूछो तो कहेगा कि महंगाई समाज में विघटन के कारण बढ़ रही है। पूरा सामाजिक ढांचा बदल रहा है। इसी कारण महंगाई बढ़ रही है। मगर समाज विज्ञानी को समाज से क्या मतलब। वैज्ञानिक जी से पूछा, तो स्पष्ट जवाब मिला कि चूहों, बन्दरों, खरगोशों के खाने की चीजों के भी दाम बढ़ गये हैं तो आदमी के खाने की चीजों के दाम तो बढ़ेंगे ही। नेताजी और भी स्पष्टवादी निकले-तुम दिनभर रोटी-रोटी क्यों चिल्लाते रहते हो। अरे भाई, अगर दाल-रोटी नहीं मिलती है तो केक, ब्रेड, बर्गर, पिज्जा, मुर्गा, नॉन क्यों नहीं खाते। देखो कितने खूबसूरत रेस्टोरेन्ट खुल गये हैं। ढाबा चिन्तन छोड़ो और मॉल कल्चर अपनाओ। महंगाई अपने आप दूर भाग जायेगी।
महंगाई पर विचार प्रस्तुत करने का यह सुनहरा मौका था। बुद्घिजीवी कैसे पीछे रहते। तुरन्त अपना चिन्तन प्रस्तुत किया- हर युग में महंगाई रही है और भविष्य में भी रहेगी। इट इज ए ग्लोबल फिनोमेना। विकास करोगे तो महंगाई बढ़ेगी। विकास से ही देश आगे बढ़ेगा। यह कहकर वे सरकारी गाड़ी में बैठकर क्लब चले गये। महंगाई पर चिन्ता करता-करता मैं थक और ऊब गया था, सोचा घरवाली से पूछूं, “अरे भागवान! यह महंगाई क्यों बढ़ रही है?’ “बड़ी सीधी-सी बात है, डिमाण्ड ज्यादा सप्लाई कम। तुम महंगाई का रोना छोड़ो और कमाई की जुगत करो। कमाई बढ़ने पर महंगाई नहीं मारती, फिर महंगाई को हम मारेंगे।’ बात ठीक थी।
शायर का कलाम हाजिर है-
मैंने तो उछाले थे कुछ शब्द हवा में यूं ही।
ये जल्लाद इधर क्यूं चले आ रहे हैं।
– यशवन्त कोठारी
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