इसे अप्रत्याशित नहीं माना जा सकता कि उधर पाकिस्तान ने मुंबई आतंकी हमलों में पाकिस्तानी तत्वों की भूमिका रेखांकित करने वाले सबूतों को “नाकाफी’ बताकर ़खारिज किया और इधर भारतीय प्रधानमंत्री ने अपने पिछले रु़ख में परिवर्तन लाते हुए पाकिस्तान सरकार को भी आतंकवाद के आईने में उतार दिया। अब तक भारत सरकार की ओर से सभी स्तरों पर यही कहा जाता रहा है कि पाकिस्तान की ़जमीन पर आतंकवादी संगठनों की सिायता है, जो भारत के खिलाफ आतंकी हमलों की सा़िजश को अंजाम देते रहते हैं। भारत ने कभी इस सा़िजश में पाकिस्तान सरकार को लपेटने की कोशिश नहीं की। सराकर को बरी करते हुए भी भारत की ओर से पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई को इसके लिए जवाबदेह बनाने की कोशिश ़जरूर की गई। पिछले साल काबुल में भारतीय दूतावास पर हुए तालिबानियों के आतंकी हमलों में आईएसआई की भूमिका का साफ तौर पर पर्दाफाश भी हुआ था। बावजूद इसके भारत सरकार की ओर से मुंबई के आतंकी हमलों के बाद सीधे तौर पर पाकिस्तान सरकार पर यह आरोप नहीं चस्पा किया गया कि आतंकवादी हमलों में उसकी भी कोई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भूमिका है। अभी हाल ही में विदेशमंत्री प्रणव मुखर्जी का इस बाबत बयान भी आया था कि भारत यह नहीं कहता कि आतंकवाद को प्रायोजित करने के पीछे पाकिस्तान सरकार की कोई भूमिका है, लेकिन यह ध्रुव सत्य है कि उसकी जमीन पर आतंकवादी संगठन सिाय हैं और वे भारत के खिलाफ अपना अभियान चला रहे हैं। इस हालत में पाकिस्तान सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह भारत के खिलाफ सा़िजश रचने वाले इन संगठनों के खिलाफ़ निर्णायक तौर पर कार्यवाही करे।
राष्टीय राजनीति में भी और अन्तर्राष्टीय राजनीति में भी भारत के इस बदले हुए रु़ख के मायने हैं। भारत के इस रु़ख को अब तक उसके द्वारा अपनाये गये रूखों में सर्वाधिक आाामक माना जा सकता है। इसका एक सांकेतिक निहितार्थ यह है कि इस तरह का बयान भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की ओर से आया है, जिन्हें इस मुद्दे पर अब तक “साफ्ट कार्नर’ कहा जाता रहा है। यह भी समझने की बात है कि उनका यह बयान तब आया है जब पाकिस्तान सरकार की ओर से सौंपे गये सबूतों को “नाकाफी’ कहकर खारिज कर दिया गया। ़खारिज करने का यह मतलब भी है कि पाकिस्तान सरकार ने अपनी ओर से वे सारे दरवा़जे बन्द कर दिये जिनसे होकर भारत की उम्मीदें उस तक पहुँच सकती थीं। सबूतों के ़खारिज करने का एक निहितार्थ यह भी है कि पाकिस्तान की राजनीतिक सत्ता यह स्वीकार करने के मूड में नहीं है कि उसकी ़जमीन पर कोई आतंकवादी संगठन सिाय है, जो भारत पर आतंकवादी हमलों की सा़िजश रच रहा है। अब तक के सारे प्रयासों की विफलता ने भारत को अन्ततः इस यथार्थ से जोड़ दिया कि अब आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई बच-बचाकर नहीं लड़ी जा सकती तथा यह भी कि भारत अथवा अन्तर्राष्टीय समुदाय के दबाव में पाकिस्तान आतंकवादियों के खिलाफ कोई कार्यवाही करेगा, ऐसी आशा करना बालू से तेल निकालने जैसा है।
पाकिस्तान सरकार अब तक एक नीति के तहत अपने को आतंकवाद से अलग-दिखाती रही है। कमोबेश भारत भी इस बात को तस्लीम करता रहा है। लेकिन प्रधानमंत्री ने पहली बार बेहद कड़ा तेवर दिखाते हुए कहा कि पाकिस्तान आतंकवाद को राजकीय नीति के रूप में इस्तेमाल कर रहा है। उन्होंने मुंबई हमलों का जिा करते हुए यह भी कहा कि जिस सुनियोजित तरीके से हमलों को अंजाम दिया गया उससे यह अंदाज लगाना कठिन नहीं है कि इनके पीछे सरकारी एजेंसियों की महत्वूपर्ण भूमिका है। प्रधानमंत्री के इस बयान से एक बात साफ हो गई है कि पाकिस्तान भारत की पहल पर कोई सकारात्मक प्रतििाया देने वाला नहीं है। उसने अब तक हर उस सबूत को अपनी इन्कारियत ही दी है जो मुंबई हमलों को उसकी ़जमीन तक ले जाते हैं। इस हालत में भारत के पास बहुत सीमित विकल्प बचते हैं। एक विकल्प तो यही है कि अन्तर्राष्टीय समुदाय इसे गंभीरता से ले और पाकिस्तान, जो बार-बार आतंकवाद के मुद्दे से ध्यान हटा कर “युद्घोन्माद’ का वातावरण बना रहा है, को नियंत्रित करे तथा आतंकवादी संगठनों के खिलाफ कार्यवाही करने को विवश करे। दूसरा यह कि भारत अपने “आत्मरक्षा’ के अधिकार को सुरक्षित रखते ़हुए खुद इन आतंकवादी संगठनों के खिलाफ कार्यवाही करे। भारत जिस दिन अपनी ओर से इस तरह की कोई पहल करेगा, उस दिन पाकिस्तान इसे अपने पर हुआ हमला ही मानेगा। हो सकता है कि अन्तर्राष्टीय समुदाय भी इसे “आामण’ ही स्वीकार करे। लेकिन सच्चाई यह है कि परिस्थितियॉं न चाहते हुए भी भारत को इसी दिशा में खींचे लिए जा रही हैं। भारत सरकार भी आतंकवाद के मुद्दे पर बनने वाले जन-दबाव को और अधिक नहीं झेल सकती है। संभवतः प्रधानमंत्री का इस मुद्दे पर यह नया तेवर जन आकांक्षा के दबाव में ही सामने आया है। वास्तविकता चाहे जो हो, लेकिन यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि बिना उंगली टेढ़ी किये घी नहीं निकाला जा सकता। देश अब उस मोड़ पर खड़ा है जहॉं वह आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक युद्घ चाहता है। उसे अब अपने सियासी रहनुमाओं की लीपापोती वाली ढुलमुल नीति स्वीकार नहीं है। कहावत है कि हाथी के पॉंव में सबका पॉंव होता है। प्रधानमंत्री के इस बयान में सिर्फ प्रधानमंत्री की ही आवाज नहीं है, उसमें देश की आकांक्षा का भी स्वर है।
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