फुँसियाँ

सुधीन्द्र,

जब यह पत्र तुम्हें मिलेगा, मैं तुम्हारे जीवन से बहुत दूर जा चुकी होंगी। मेरे पैरों में इतने बरसों से बंधी जंजीर खुल चुकी होगी। मेरे पैर परों से भी हल्के हो चुके होंगे और किसी भी रास्ते पर चलने के लिए स्वतंत्र होंगे।

चलने से पहले तुम से चंद बातें कर लेना जरूरी है। कल रात फिर मुझे वही सपना आया। तुम अपने दफ्तर की किसी पार्टी में चले गये हो। सपने में जाने-पहचाने लोग हैं। परस्पर अभिवादन और बातचीत हो रही है। अचानक सबके चेहरों पर देखते ही देखते फुंसियाँ उग आती हैं। फुंसियों का आकार बढ़ता चला जाता है। फुंसियों की पारदर्शी झिल्ली के भीतर भरा मवाद साफ दिखने लगता है। और तब एक और भयानक बात होती है। उन फुंसियों के भीतर मवाद में लिपटा तुम्हारा डरावना चेहरा नजर आने लगता है। तुम्हारे सिर पर दो सींग उग जाते हैं। जैसे तुम तुम न होकर कोई भयावह यमदूत हो। असंख्य फुंसियों के भीतर असंख्य तुम। मानो बड़े-बड़े दाँतों वाले असंख्य यमदूत… डर के मारे मेरी आँख खुल गयी। दिसंबर की सर्द रात में भी मैं पसीने से तरबतर थी।

‘‘तुमने ऐसा सपना क्यों देखा?’’ जब भी मैं इस सपने का जिा तुमसे करती हूं, तो तुम मुझे ही कटघरे में खड़ा कर देते हो। क्या सपनों पर मेरा वश है? तुम्हारा बस चलता तो तुम मेरे सपने भी नियंत्रित कर लेते। तुम कहते हो कि यह सपना मेरे अवचेतन मन में दबी हुई कोई कुंठा है, अतीत की कोई स्मृति है। दुर्भाग्य यह है कि मेरी तमाम कुंठाओं के जनक तुम ही हो। मेरे भूत और वर्तमान में तुम्हारे ही भारी कदमों की चहलकदमी की आवाज गूंज रही है।

मुड़कर देखने पर लगता है कि मामूली-सी बात थी। मेरे गाल पर अक्सर उग आने वाली चंद फुंसियाँ ही तो इसकी जड़ में थीं। लेकिन क्या यह बात वाकई इतनी मामूली-सी थी? तुमने ‘आइसबर्ग’ देखा है? उसका केवल थोड़ा-सा हिस्सा पानी की सतह के ऊपर दिखता है। यदि कोई अनाड़ी देखे तो लगेगा, जैसे छोटा-सा बर्फ का टुकड़ा पानी की सतह पर तैर रहा है। पर ‘आइसबर्ग’ का असली आकार तो पानी की सतह के नीचे तैर रहा होता है जिससे टकरा कर बड़े-बड़े जहाज डूब जाते हैं। जो बात ऊपर से मामूली दिखती है, उसकी जड़ में कुछ और ही छिपा होता है। बड़ा और भयावह।

मेरे चेहरे पर अक्सर उग आने वाली फुंसियों से तुम्हें चिढ़ थी। मेरा उन्हें सहलाना भी तुम्हें पसंद नहीं था। बचपन से ही मेरी त्वचा तैलीय थी। मेरे चेहरे पर फुंसियाँ होती रहती थीं। मुझे उन्हें सहलाना अच्छा लगता था।

‘‘फुंसियों से मत खेलो। मुझे अच्छा नहीं लगता।’’

‘‘क्यों? आखिर यह छोटी-सी आदत ही तो है।’’

‘‘क्यों क्या? मैंने कहा, इसलिए।’’

‘‘पर तुम्हें अच्छा क्यों नहीं लगता?’’

तुम कोई जवाब नहीं देते। पर तुम्हारा गुस्सा बढ़ता जाता। फिर तुम मुझ पर चिल्लाने लगते। तुम्हारा चेहरा मेरे सपने में आई फुंसियों में बैठे यमदूतों-सा हो जाता। तुम चिल्ला कर कुछ बोल रहे होते, पर मुझे कुछ भी सुनाई नहीं देता। मैं केवल तुम्हें देख रही होती। तुम्हारे हाथ-पैरों में किसी जंगली जानवर के पंजों जैसे बड़े-बड़े नाखून उग जाते। तुम्हारे विकृत चेहरे पर भयावह दांत उग जाते। तुम्हारे सिर पर दो सींग उग जाते। तुम मेरे चेहरे की ओर इशारा करके कुछ बोल रहे होते। और तब अचानक मुझे फिर से सुनाई देने लगता।

‘‘भद्दी, बदसूरत कहीं की।’’ तुम गुस्से से पागल होकर चीख रहे होते।

शायद मैं तुम्हें शुरू से ही भद्दी लगती थी, बदसूरत लगती थी। फुंसियाँ तो एक बहाना थीं। शायद यही वजह रही होगी कि तुम्हें मेरी फुंसियाँ और उन्हें छूने की मेरी मामूली-सी आदत भी असहनीय लगती थी। जब हम किसी से चिढ़ने लगते हैं, नफरत करने लगते हैं तब उसकी हर आदत हमें बुरी लगती है। यदि तुम्हें मुझसे प्यार होता तो शायद तुम मेरी फुंसियों को नजरअंदाज कर देते। पता नहीं तुमने मुझसे शादी क्यों की? शायद इसलिए कि मैं अपने अमीर पिता की इकलौती बेटी थी। पापा की मौत के बाद उनकी सारी जायदाद तुम्हारे पास आ गयी और तुम अपना असली रूप दिखाने लगे।

‘‘तुम भी पक्की ढीठ हो। तुम नहीं बदलोगी।’’ तुम अक्सर किसी न किसी बात पर अपने विष-बाणों से मुझे बींधते रहते। सच्चाई तो यह है कि शादी के बाद से अब तक तुमने अपनी एक भी आदत नहीं बदली- सिगरेट पीना, शराब पीना, इंटरनेट पर पोर्न-साइट्स देखना, दरवाजा जोर से बंद करना, बाथरूम में घंटा-घंटा भर नहाते रहना, बीस-बीस मिनट तक ब्रश करते रहना, आधा-आधा घंटा टॉयलेट में बैठ कर अखबार पढ़ना, रात में देर तक कमरे की बत्ती जलाकर काम करते रहना, सारा दिन नाक में उंगली डाल कर गंदगी निकालते रहना, अजीब-अजीब से मुंह बनाना, बिना किसी बात पर हंस देना…। तुमने अपनी एक भी आदत नहीं बदली। केवल मैं ही बदलती रही। तुम्हारी हर पसंद-नापसंद के लिये। तुम्हारी हर खुशी के लिये।

घर में जो तुम खाना चाहते थे, केवल वही चीजें बनती थीं। टी.वी. के ‘रिमोट’ पर तुम्हारा कब्जा होता। जो प्रोग्राम तुम्हें अच्छे लगते थे, मैं केवल वही देख सकती थी। जो कपड़े तुम्हें पसंद थे, मैं केवल वही पहन सकती थी। मेरा जो हेयर स्टाइल तुम्हें पसंद आता, केवल वही बना सकती थी। घर में केवल तुम्हारी मर्जी का साबुन, तुम्हारी पसंद के ब्रांड का टूथपेस्ट और तुम्हें अच्छे लगने वाले शैम्पू ही आते थे। खिड़की-दरवाजों के पर्दों का रंग तुम्हारी इच्छा का होता। ड्राइंग-रूम और बेडरूम का फर्नीचर तथा उनकी साज-सजावट, सब तुम्हारी मर्जी का था। बिस्तर पर बिछी चादर का रंग चाय की पत्ती का ब्रांड हर चीज पर तुम्हारी इच्छा ही सर्वोपरि थी।

जो तुम्हें अच्छा लगे, मुझे वही करना था। जो तुम्हें पसंद हो, मुझे वही कहना-सुनना था। जैसे मैं, मैं नहीं रह गयी थी, केवल तुम्हारा विस्तार भर थी।

डाइनिंग-टेबल पर तुम्हारी एक निश्‍चित कुर्सी थी। बेडरूम में तुम्हारे बैठने की एक निश्‍चित जगह थी, जहां कोई और नहीं बैठ सकता था। घर में यदि कोई चीज अनिश्‍चित थी तो वह मैं थी, अनिश्‍चित और अधर में लटकी हुई।

खाना मैं बनाती थी, कपड़े-लत्ते मैं धोती थी, बर्तन मैं साफ करती थी, झाड़-पोंछा मैं लगाती थी। तुम रोज ऑफिस से आकर ‘‘आज बहुत थक गया हूँ’’ कहते और टांग फैलाकर बिस्तर पर लेट जाते और अपना पसंदीदा टी.वी. प्रोग्राम ऑन कर लेते। एक गिलास पानी भी तुम खुद उठकर नहीं ले सकते थे। फिर भी थकते सिर्फ तुम ही थे। शिकायत सिर्फ तुम ही कर सकते थे। उलाहने सिर्फ तुम दे सकते थे। बुरी सिर्फ मैं थी। कमियां सिर्फ मुझ में थीं। दूध के धुले, अच्छाई के पुतले सिर्फ तुम थे। ‘हेड-ऑफ-द-फैमिली’ के नाम पर तुम जो चाहो, करने के लिये स्वतंत्र थे।

इस सबके बावजूद तुम्हारा प्यार पाने के लिए मैं तरसती रही। मैंने तुमसे कुछ ज्यादा तो नहीं चाहा था। एक पत्नी अपने पति से जो चाहती है, मैं भी केवल उतना भर चाहती थी। काश, तुम भी कभी आकर मेरे कानों में गुनगुनाते, कभी प्यार से मेरे माथे पर गिर आई लटों को हटाते, घर के कामों में मेरा कुछ हाथ बंटाते, अपनी किसी न्यारी अदा से मेरा मन मोह ले जाते। काश, मेरा आकाश भी कभी सतरंगी हो पाता। मेरे मन की नदी में भी लहरें कभी गीत गातीं। मेरे अंतस की बगिया को भी कोई पुरवैया सहलाती। पर मेरे अंतस की बगिया में चावात आते रहे। मेरे मन की नदी में भयावह सूखा पड़ा रहा। मेरा आकाश बंजर बना रहा।

असल में तुमने मुझ से कभी प्यार किया ही नहीं। मैं केवल घर का काम करने वाली मशीन थी, घर की नौकरानी थी, जिसे रात में तुम्हारी खुशी के लिये बिस्तर पर रौंदा जाता था। तुम्हारे लिये प्यार बिस्तर का महाभारत भर था। दिन भर की थकी होने पर भी मुझे तुम्हारी इच्छा के लिये समर्पण करना ही पड़ता था। बिस्तर और रसोई के गणित से परे भी स्त्री होती है, यह बात तुम्हारी समझ से बाहर थी।

मेरे चेहरे पर उगी फुंसियों से तुम्हें चिढ़ थी। पर उन फुंसियों का क्या जो हमारे संबंधों में उग आयीं, जो अब फोड़े बन गये हैं, नासूर बन गये हैं।

तुम चाहते थे कि मैं अपनी फुंसियों पर शर्मिंदा रहूँ। क्यों? क्या चेहरे पर फुंसियाँ हो जाना कोई अपराध है, जो तुम मुझे सजा देने पर तुले रहे? तुम्हारी इच्छा के लिये मैंने ‘हार्मोन थेरेपी’ कराई। सुबह-शाम फुंसियों के दाग हल्की करने वाली क्लियरस्किन और दुनिया भर की न जाने कौन-कौन-सी ाीमें लगाती रही। जबकि तुम अपने पर्स में अपने ऑफिस की युवा महिला कूलीग्स की फोटो रखकर घूमते रहे। इंटरनेट पर अजनबी लड़कियों से फ्लर्ट करते रहे, चैटिंग करते रहे। ब्लू फिल्में देखते रहे।

तुम्हारे चेहरे पर भी एक मस्सा उगा हुआ है। मैंने तो कभी इस बात पर एतराज नहीं जताया कि वहां वह मस्सा क्यों है? मैंने तो कभी यह नहीं कहा कि उस मस्से की वजह से तुम बदसूरत लगते हो।

असल में तुम्हारे लिये मेरे चेहरे पर उगी फुंसियाँ मुझे नीचा दिखाने का बहाना भर थीं। अब, जबकि मेरे चेहरे पर फुंसियाँ नहीं उग रही हैं, तुम्हें मेरे चेहरे से कोई लेना-देना नहीं है। तुमने एक बार भी नहीं कहा कि मेरा चेहरा अब कैसा लगता है। पर तुम्हारी उपेक्षा ने सब कुछ कह दिया है।

आज तुमने किसी और बहाने से पहली बार मुझ पर हाथ भी उठाया है। घृणा का बरगद जब फैलने लगता है तो उसकी जड़ें संबंधों की मिट्टी में बहुत गहरे तक अपने पांव पसार लेती हैं। पता नहीं मैं इतने साल तुम्हारे साथ कैसे रह गयी? अपना मन मारकर। अपना अस्तित्व मिटा कर। पर अब बहुत हो गया। मुझे तुम्हारे हाथों पिटना मंजूर नहीं।

तुम एक रुग्ण मानसिक अवस्था हो और मुझे अब इस रुग्ण मानसिक अवस्था का हिस्सा और नहीं बनना। हमारे पास जीने के लिये एक ही जीवन होता है और मुझे अब यूं घुट-घुट कर और नहीं जीना। आज मैं स्वयं को तुमसे मुक्त करती हूं।

एक बात और। मुझे अपने चेहरे पर उगी फुंसियाँ अच्छी लगती थीं। और वे सभी लोग अच्छे लगते थे, जो उन फुंसियों के बावजूद मुझे चाहते थे, मुझसे प्यार करते थे। प्यार, जो तुम मुझे कभी नहीं दे सके।

 

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